9/14/2021

संवेग का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं

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संवेग (भावात्मक) का अर्थ (samveg kya hai)

samveg arth paribhasha visheshta:संवेग अंग्रजी भाषा के 'ऐमोशन' (Emotion) शब्द का हिंदी रूपांतरण हैं। एमोशन शब्द लैटिन भाषा के एमोवेअर (Emovere) शब्द से लिया गया हैं, जिसका अर्थ हिला देना या उत्तेजित कर देना हैं। संवेग मनुष्य को झकझोर देता है। उदाहरण के लिए, आप किसी क्रोधित व्यक्ति को देखिये। 

उसकी मुट्टियाँ भिंच जाती हैं, दाँत किटकिटाने लगते है। माथे पर सलवटें पड़ जाती हैं, उसका पूरा शरीर उत्तेजित-सा जान पड़ता है। संवेग मनुष्य को हिलाकर रख देता हैं। मनुष्य का सन्तुलन संवेग की अवस्था में बिगड़ जाता है, जिस कारण व्यक्ति की बुद्धि उचित प्रकार से कार्य नही कर पाती। 

लेकिन जरूरी नही है कि संवेग काम में बाधक ही बने। जहाँ संवेग मनुष्य जीवन में कठिनाइयाँ लाता है, वही दूसरी ओर व्यक्ति को संवेग से अच्छे कार्य करने में अभिप्रेरणा भी मिलती हैं। कभी-कभी प्रेम के वशीभूत होकर कुछ युवक अपना भविष्य खराब कर लेते हैं, तो बहुत से ऐसे युवक भी होते है जो प्रेम की अभिप्रेरणा से उन्नति का शिखर छूँ लेते है। 

यह बात बिल्कुल सही है कि, जो काम शांत दिमाग से किया जाता है, उसमें मार्ग भ्रष्ट होने का भय बहुत कम होता है। वास्तव में संवेग जीव की शक्ति को उत्तेजित करते हैं और आपातकाल में उसकी बड़ी सहायता करते हैं। संवेग की अवस्था में मनुष्य ऐसा काम करता है जो वह सामान्य अवस्था मे नही कर सकता लेकिन कभी-कभी संवेग के कारण एकदम स्तम्भित हो जाता है और सामान्य क्रियाएँ भी नही कर सकते। कुछ मनोवैज्ञानिक विद्वानों का मत है कि, संवेग और प्रेरणा में कोई अन्‍तर नही हैं। परन्तु व्यक्ति अपने अनुभव द्वारा ज्ञात कर सकता है, कि इन दोनों में कितना अंतर हैं? 

उपर्युक्त विवेचन के बाद अंत मे यह कहाँ जा सकता है कि संवेग बालक के शारिरिक, मानसिक, बौद्धिक, चरित्रिक, चिन्तर-मनन इत्यादि सभी पक्षों को प्रभावित करते हैं। संवेग मानव के सभी पक्षों को प्रभाव में लाते हैं।

संवेग की परिभाषा (samveg ki paribhasha)

वेशन, वर्न तथा कैन्टोविज के अनुसार," संवेग से आशय ऐसी आत्मनिष्ठ भाव की अवस्था से होता है जिसमें कुछ शारीरिक उत्तेजना पैदा होती है और फिर जिसमें कुछ खास व्यवहार होते हैं।

गेट्स के अनुसार," व्यक्ति का संवेगात्मक व्यवहार उसके शारीरिक एवं मानसिक विकास के अनुरूप एवं उससे संबंधित होता हैं।" 

पी.वी. यंग के अनुसार," संवेग संपूर्ण व्यक्ति के तीव्र उद्वेग या उपद्रव की अवस्था है, जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है और जिसमें व्यवहार चेतन अनुभव तथा अंतरावयवीय कार्य सन्निहित रहते हैं।" 

वुडवर्थ के अनुसार," प्रत्येक संवेग एक अनुभूति होती हैं, तथा प्रत्येक संवेग उसी समय एक गत्यात्मक तत्परता होता हैं।" 

ब्रिजेज के अनुसार," शिशु के जन्म के समय केवल उत्तेजना होती हैं संवेगों का विकास तो बाद के वर्षों में होता हैं। संवेगों की अभिव्यक्ति से ही व्यक्ति की समाज में पहचान होती हैं।" 

गेलडार्ड के अनुसार," संवेग क्रियाओं का उत्तेजक हैं।" 

इंग्लिश तथा इंग्लिश के अनुसार," संवेग एक जटिल भाव की अवस्था होती है जिसमें कुछ खास-खास शारीरिक एवं ग्रंथीय क्रियाएँ होती हैं।" 

डाॅ.एस.माथुर के अनुसार," मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संवेग के अंतर्गत भाव, आवेग तथा शारीरिक एवं दैहिक प्रतिक्रियाएँ सभी आती है।" 

आर्थर जरसील्ड के शब्दों में," संवेग शब्द किसी प्रकार से आवेग में आने, भड़क उठने या उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता हैं।"

विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई संवेग की परिभाषाओं के आधार है कहा जा सकता है कि संवेग व्यक्ति की एक जटिल अवस्था है जिसमें संपूर्ण शरीर तंत्र बाह्रय एवं आंतरिक रूप से सम्मालित तथा प्रभावित होता हैं। हर्ष, विषाद, क्रोध, डर, सुख-दुख, प्रेम, विरक्ति आदि मुख्य संवेग हैं। इन संवेगों को बालक या व्यक्ति की भाव-भंगिमाओं द्वारा अच्छी प्रकार समझा जा सकता है। 

आमतौर से संवेग की उत्पत्ति किसी परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण करने से होती है। यह प्रत्यक्षीकरण वास्तविक भी हो सकता है या किसी घटना का स्मरण करने पर। उदाहरण के लिये, जंगल में शेर को देखकर डर जाना संवेग है और इसी तरह किसी को अत्याचार करते हुये देखकर डर जाना भी संवेग हैं। संवेग सुखदायक एवं दुखदायक दोनों ही होती हैं। भय, क्रोध, ईर्ष्या, स्नेह, उल्लास, हर्ष आदि ऐसी संवेगात्मक क्रियायें है जो सर्वव्यापक होती हैं।

संवेगों की विशेषताएं (samveg ki visheshtayen)

संवगों की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-- 

1. तीव्रता 

संवेगो मे तीव्रता पाई जाती जाती है, इस कारण यह व्यक्ति या बालक में एक प्रकार का तूफान पैदा कर देता है। एक अशिक्षित और शिक्षित व्यक्ति की मे संवेगों की तीव्रता की मात्रा मे अंतर होता है। एक अशिक्षित व्यक्ति की तुलना मे एक शिक्षित व्यक्ति संवेगों पर नियंत्रण करना ज्लद सीख जाता हैं। 

2. व्यापकता 

संवेग सभी प्राणियों में समान रूप से देखे जा सकते है। संवेगों मे व्यापकता पाई जाती है। जैसे-- बिल्ली को उसके बच्चे को छ़ेड़ने पर, बालकों से उनका खिलौना छीनने पर, व्यक्ति की आलोचना करने पर उसे गुस्सा आ जाता है। 

स्काउट के अनुसार," निम्नतर प्राणियों से लेकर उच्चतर प्राणियों में एक ही प्रकार के संवेग पाए जाते हैं।" 

3. संवेगात्मक संबंध 

स्काउट का मत हैं कि," संवेग का अनुभव किसी निश्चित वस्तु के संबंध में ही किया जाता है।" इसका अभिप्राय है कि संवेग की दशा में एक व्यक्ति का किसी दूसरे व्यक्ति, वस्तु या विचार से संबंध होता हैं। उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति को किसी व्यक्ति, वस्तु या कार्य को लेकर ही गुस्सा आता हैं, उसके अभाव में गुस्सा आना संभव नही हैं। 

4. वैयक्तिकता

सभी व्यक्ति एक संवेग के प्रति पृथक-पृथक प्रतिक्रिया करते है। उदाहरण के लिए, किसी भिखारी को देखकर कोई व्यक्ति उस पर गुस्सा करेंगा और उसे डाँटकर भगा देगा तो कोई व्यक्ति उसे देखकर द्रवित हो जाता है और उसे भोजन या पैसें देता हैं। 

5. सुख-दुख की भावना 

संवेग में अपनी विशिष्ट भावना के अतिरिक्त निःसंदेह रूप से दुख या सुख की भावना होती है। जैसे-- किसी व्यक्ति को किसी चीज की आशा में खुशी होती है तथा किसी चीज को लेकर निराशा की स्थिति में दुख की अनुभूति होती हैं। 

6. स्थिरता की प्रवृत्ति 

संवेगों में साधारणतः स्थिरता की प्रवृत्ति होती है। जैसे-- बाहर डाँट खाकर घर लौटने वाला व्यक्ति अपने बच्चों को डाँटता एवं पीटता है। 

7. पराश्रयी स्वरूप 

पराश्रयी स्वरूप को भी हम संवेगों की प्रमुख विशेषता कह सकते हैं क्योंकि पशुओं या व्यक्तियों में जिन संवेगों की अभिव्यक्ति होती है, उसका आधार कोई विशेष प्रवृत्ति होती है।

8. व्यवहार में परिवर्तन 

संवेग आने पर व्यक्ति का व्यवहार बदल जाता हैं। जैसे-- दया से ओत-प्रोत व्यक्ति का व्यवहार उसके सामान्य व्यवहार से बिल्कुल अलग होता हैं। 

9. शारीरिक परिवर्तन 

संवेगों के समय व्यक्ति की शारीरिक दशा में कई परिवर्तन देखे जा सकते है। जैसे-- डर के समय-- काँपना, रोंगटे खड़ा होना, मुख सूख जाना, क्रोध के समय-- मूँह लाल होना, पसीना आना, आवाज का कर्कश होना, प्रसन्नता के समय-- हँसना, मुस्कराना, चेहरे का खिल जाना आदि शारीरिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। 

10. मानसिक परिवर्तन 

संवेग के समय व्यक्ति की मानसिक दशा में भी अनेक परिवर्तन देखे जा सकते हैं। जैसे-- किसी वस्तु या स्थिति का ज्ञान, स्मरण या कल्पना, ज्ञान के कारण सुख-दुःख की अनुभूति, अनुभूति के कारण उत्तेजना, उत्तेजना के कारण कार्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती हैं।  

11. विचार शक्ति का लोप 

संवेग हमारी विचार-शक्ति का लोप कर देता है। इसलिए हम उचित या अनुचित का विचार किये बिना कुछ भी कर बैठते हैं। उदाहरण के लिए, क्रोध के वसिभूति होकर मानव की मानव की हत्या करने से भी नही चुक्ता। 

12. क्रिया की प्रवृत्ति 

स्टाउट का विचार हैं," संवेग में एक निश्चित दिशा में क्रिया की प्रवृत्ति होती हैं।" 

क्रिया की इस प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति कुछ न कुछ जरूर करता है। उदाहरण के लिए, लज्जा का अनुभव करने पर बालिका नीचे की ओर देखने लगती है अथवा अपने मुख को छिपाने का प्रयत्न करती हैं। 

13. स्थानांतरण 

ड्रमण्ड व मैलोन का मत हैं, संवेगात्मक जीवन में स्थानांतरण का नियम एक वास्तविक तथ्य है।"

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी B.ed
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