9/18/2021

लिंग भुमिकाओं का अर्थ, प्रभावित करने वाले कारक

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लिंग का अर्थ (bhumika ka arth paribhasha)

लिंग को वेभीकरणो द्वारा यह कहकर परिभाषित किया गया है कि जिससे किसी के स्त्री या पुरुष होने का पता चलता हो उसे लिंग कहते है। 

डिक्शनरी के अनुसार जिससे किसी के स्त्री-पुरुष होने का बोध हो उसे लिंग कहते हैं। यह पूर्णतया एक जैविक प्रक्रिया है। जीव विज्ञान के शब्दों में क्रोमोजोम्स या गुणसूत्र मनुष्य के सभी गुणों के अलावा उसके लिंग के लिए भी उत्तरदायी हैं। स्त्री के अंदर सभी कोशिकाओं में समान लिंग गुणसूत्र पाए जाते हैं जिन्हें (XX) का नाम दिया गया हैं। इससे उसकी लिंग कोशिकाएँ एक ही प्रकार की होती है। पुरुष में सभी कोशिकाओं में दो प्रकार के लिंग गुणसूत्र होते हैं जिन्हें (XY) का नाम दिया गया है। इससे उसकी लिंग कोशिकाएँ दो प्रकार की होती है। आधी X गुणसूत्र वाली तथा आधी Y गुणसूत्र वाली। निषेचन की प्रक्रिया के दौरान स्त्री की X गुणसूत्र वाली कोशिका यदि पुरुष की X गुणसूत्र वाली कोशिका से मिलती है तो लड़की का जन्म होता हैं तथा यदि स्त्रो की कोशिका यदि पुरुष की Y गुणसूत्र वाली कोशिका से मिलती है तो लड़के का जन्म होता हैं। 

अतः देखा जाए तो लिंग निर्धारण एक पुरी तरह से अनैच्छिक क्रिया है। इसमें किसी का कोई हाथ नहीं हैं। प्रकृति ने अपने नियमों के कारण अपने आप 50:50 का अनुपात निर्धारित कर रखा हैं। सृष्टि को चलाने के लिए यह अनुपात आवश्यक है। दोनों का ही बराबरी का महत्व है फिर भी समाज में विशेषकर एशियाई देशों के समाज में बालिकाओं को बालक से कमतर समझा जाता हैं। इस तरह लिंग के आधार पर किया जाने वाला भेदभाव ही लिंगीय विभेद कहलाता हैं। 

लिंग भूमिकाओं का अर्थ (bhumika ka arth)

मानव दो रूपों मे जन्म लेता है। स्त्री और पुरुष जिसे प्रारंभिक अवस्था मे बालिका या  बालक कहा जाता है। बालक और बालिकाओं की शारीरिक संरचना में ही विभेद नही होता है। अपितु दो की रूचियों, अभिवृत्तियों तथा क्रियाकलापों में भी विभिन्नता पायी जाती है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने लिंग भूमिकाओं को इस तरह पारिभाषित किया है कि," व्यवहार एवं गतिविधियों से ही सामाजिक रूप से लिंग भूमिकाओं का निर्माण होता हैं। एक समाज पुरूषों तथा महिलाओं हेतु जो उचित समझता है, उसी को जिम्मेदार बताता हैं।" 

हालांकि हर लिंग अपनी भूमिकाओं का निर्माण करने हेतु जो कुछ भी कर रहे हैं वह किस हद तक उचित है यह नही कहा जा सकता है तथा किस हद तक उनकी भूमिकाओं का सामाजिक रूप से निर्माण हो रहा है यह भी नहीं कहा जा सकता हैं। 

कुछ लोग समलैंगिकों को भी एक लिंग मानते हैं परन्तु डब्ल्यू. एस. ओ. के विपरीत हैं, कुछ लिंग अलग श्रेणियों के रूप में ट्रान्सजेण्डर एवं इन्टरसेक्स सहित कई संभव लिंग लिस्टिड हुए हैं। लिंग भूमिकाएँ सांस्कृतिक रूप से भी विशिष्ट होती हैं एवं अगर देखा जाए तो संस्कृतियों के आधार पर सिर्फ लिंग के दो भेद हैं-- लड़का एवं लड़की। एन्ड्रोगाइनी एक तीसरे लिंग के रूप में प्रस्तावित किया गया है। कुछ समाजों में पाँच से ज्यादा लिंग होने का दावा किया गया हैं एवं कुछ गैर पश्चिमी समाजों में तीन लिंग होने का दावा किया गया हैं-- स्त्री, पुरुष एवं तीसरे लिंग।

लिंग भूमिका के वर्गीकरण के अनुसार प्रत्येक लिंग से कुछ सांस्कृतिक उम्मीदें होती हैं इनसे भ्रमित नही होना चाहिए क्योंकि इन्ही सांस्कृतिक उम्मीदों से किसी लिंग की पहचान होती है। सांस्कृतिक उम्मीदों के अनुसार ही सामाजिक मानदंड निर्धारित होते हैं जो प्रत्येक व्यक्ति अपने लिंग से जुड़े रहते हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति एक आंतरिक भावना से अपने लिंग के मानदण्डों से जुड़ा रहता हैं। यही आंतरिक भावना लिंग भूमिका की उत्पत्ति का कारण है। लिंग भूमिकाएँ आमतौंर पर व्यवहार तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबिंबित करती हैं अथवा भेदभाव के लिए एक आधार के रूप में इसका प्रयोग किया जाता हैं। लिंग भूमिका का प्रयोग एक संस्था के रूप में एक अपमानजनक अर्थ में सन्दर्भित कर रहे हैं। इसका मुख्य कारण सामान्य तौर पर लिंग भूमिका करने के लिए सामान्य परतंत्रता की भावना है। कई राष्ट्रो की महिलाओं से लिंग के आधार पर इतना भेदभाव किया जाता हैं कि उन्हें मतदान के अधिकार से भी वंचित रखा गया। 

19वीं एवं 20वीं शताब्दी तक दुनिया के कई हिस्सों में महिलाओं को मतदान का अधिकार नहीं दिया गया। 21 वीं शताब्दी में कुछ राष्ट्रों में महिलाओं को पूर्ण स्वतंत्रता एवं सुरक्षा का अधिकार दिया गया। समाज में कुछ ऐसे समूह भी मौजूद हैं जो सामाजिक एवं स्थापित मानदण्डों के अनुरूप नही हैं तथा नकारात्मक रूप से लिंग भूमिकाएँ कर रहे हैं। कुछ पश्चिमी देशों में समलैंगिक होने के लिए दबाव डाला जाता है जैसे माॅर्गन पर्याप्त समलैंगिक न होने हेतु अमेरिका के सीमा शुल्क से दूर कर दिया गया है। होमोफोविक उत्पीड़न में समलैंगिकों के द्वारा राजनीतिक शरण की मांग की गयी हैं। यह तो तय है कि समलैंगिक के रूप में लिंग भूमिकाओं के मानक पश्चिमी गर्भाधान के अनुरूप नही हैं। समलैंगिक की दुर्दशा लिंग भूमिकाओं के संदर्भ में ही है। ईरान देश के एक समलैंगिक मोहम्मद ने कहा कि", वह किसी भी प्रकार से स्त्री नही था, जब वह समलैंगिक था।" 

इसके बावजूद कुछ व्यक्तियों हेतु लिंग भूमिकाएँ एक सकारात्मक प्रभाव प्रदान कर सकती हैं। कई लिंग भूमिकाएँ हानिकारक लिंग के लिए लकीर के फकीर हो सकती हैं, इस तथ्य के बावजूद लिंग भूमिकाओं को एक सामाजिक संरचना के रूप में स्वीकार कर लिया गया हैं तथा लिंग के व्यवहार को आत्मसम्मान की वृद्धि के साथ जोड़ा गया। निर्धारित लिंग भूमिकाओं को पूरा करने को आत्म सन्तुष्टि के रूप में देखा जाता हैं। जो निर्धारित लिंग भूमिकाओं के अनुरूप आत्म नहीं हैं वे तटस्‍थ लिंग के रूप में पहचाने जाते हैं। वे स्वयं को समाज से अपने को अलग अनुभव करते हैं तथा उन्हें ऐसा भी प्रतीक होता हैं कि वे सामान्य नही हैं एवं उनका व्यवहार समाज के निर्धारित मानकों के अनुरूप नहीं हैं। 

लिंग भूमिकाओं को प्रभावित करने वाले कारक (bhumika ko prabhavit karne wale karak)

लिंग भुमिकाओं को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं--

1. लिंग पहचान को प्रभावित करने वाले हारमोनल कारक 

जैविक कारक बच्चों के शारिरिक विकास को आकार प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। उदाहरणा के लिए लड़के तथा लड़कियाँ लैंगिक अंगों के साथ ही भिन्नता लिए हुए होते हैं एवं जन्म के बाद भी उनकी यह भिन्नता बनी रहती हैं। परिपक्वावस्था पर उनमे दूसरे लिंग की विशेषतांए पैदा होती हैं। प्राकृतिक रूप से शरीर में कूछ रासायनिक कम्पाउण्ड होते हैं जिन्हें हम हारमोन के नाम से जानते है वे ही शारिरिक भिन्नता हेतु उत्तरदायी होते हैं। 

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने अध्ययनों के आधार पर यह कहा है कि समलिंगी हारमोन लैंगिक अंगों में भिन्नता दिखाने में असमर्थ होता हैं तथा यह हारमोन लगभग परिपक्वता काल में पैदा होता है एवं इसका लिंग पहचान आकार में महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। लड़को में एनड्रोगेन लड़कियों की बजाय ज्यादा होता हैं, कुछ लड़के तथा लड़कियाँ ऐसी परिस्थितियों में जन्म लेते हैं जिसे कनजेनीटल एड्रीनल हाइपरप्लासिया कहा जाता हैं जिससे उच्च स्तर पर एन्ड्रोगेन हारमोन पैदा होता है एवं वे अपने सहपाठियों से प्रभावित नहीं होते हैं। कुछ वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया तथा कहा कि जिन बच्चों में एन्ड्रोगेन अतिरिक्त मात्रा मे होता है वह उनके व्यवहार को प्रभावित करता है। जो लड़के ज्यादा एन्ड्रोगेन रखते हैं वे पुरूष साथियों से सामान्य व्यवहार करते हैं तथा उनके साथ खेलते हैं एवं जिन लड़कियों में एन्ड्रोगेन का स्तर उच्च होता है वे ज्यादा लिंग रूढ़ियों से ग्रसित पुरूषों के लक्षण वाली होती हैं तथा वे अपनी समआयु की सहपाठियों से अधिक संबंधित होती हैं। जो लड़कियाँ सी.ए.एच. के साथ अतिरिक्त जेनीटलिया के साथ जन्म लेती हैं वे पुरूषों की तरह दिखाई देती है। वैसे तो वे लड़कियाँ ही होती हैं लेकिन इन बालिकाओं में पुरूष जननांग दिखाई देता हैं। लड़कियों के वास्तविक लिंग का निर्धारण जैनिटिकली होता हैं। महिलाओं में X क्रोमोसोम पाये जाते हैं जबकि पुरुषों में X तथा Y क्रोमोजोम्स पाये जाते हैं जो लिंग निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 

बेशक CAH युक्त लड़कियों में शल्य क्रिया के बाद जननांग मुख्यतः स्त्रियों जैसे दिखाई देते हैं लेकिन उनमें लक्षण पुरूषों जैसे ही बने रहते हैं। वे पुरूष संगी-साथियों के साथ खेलना पसंद करते हैं। वे परम्परागत पुरूषों की भाँति क्रियाकलाप एवं खेल पंसद करते हैं जैसे ब्लाॅक, कार, माॅडल, स्पोर्ट आदि। वे शारिरिक रूप से सक्रिय एवं क्रोधित स्वभाव के भी होते हैं जो लड़कियाँ सी.ए.एच. युक्त होती हैं वे लड़कियों वाले खेल खेलना पसंद नही करती हैं। वे लड़कियों के परम्परागत खेलों जैसे माता बनना, दुल्हन बनना आदि को खेलना पसंद नही करती है वे शारिरिक रूप से कैसी दिखाई देती हैं इसकी भी उन्हें ज्यादा परवाह नहीं होती हैं जितना उनकी उम्र की दूसरी लड़कियाँ करती हैं। अन्य शब्दों में, उच्च स्तर पर पुरूष हारमोन लड़कियों के व्यवहार को काफी प्रभावित करते हैं।

2. लिंग पहचान को प्रभावित करने वाले सामाजिक तथा पर्यावरणीय कारक 

बहुत से अध्ययन यह प्रदर्शित करते हैं कि लिंग पहचान के विकास में बच्चों का पालन-पोषण तथा सामाजिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। इस बात को बच्चों की रूचि, महत्व, व्यवहार, उनकी पूर्ण सोच मध्यावस्था की पूर्व अवस्था में उन्हें दी गयी शिक्षा उनके माता-पिता द्वारा दिया गया या ऐसा व्यक्तित्व जिससे वे प्रभावित होते हैं एवं शिक्षा पर निर्भर करता हैं।

वे बच्चे जिन्हें यह सिखाया जाता है कि अमुक-अमुक कार्य उनके लिए ठीक अथवा उचित है। क्योंकि वह लड़के हैं या लड़की है जीवन के, पश्चकाल में इन शिक्षाओं से प्रभावित होते हैं। उदाहरण के तौर पर ऐसा देखा गया है, कि लड़कियां जिन्हें यह बताया जाता है कि लड़के ज्यादातर गणित में उनकी बजाए अच्छे होते हैं गणित को ना पसंद करती हैं एवं उनकी इस विषय में रुचि भी नहीं रहती है वे यह मानने लग जाती है कि वे इस विषय में अच्छी नहीं है तथा गणित के टेस्ट एवं गृह कार्य प्रोजेक्ट में बहुत खराब प्रदर्शन करती है।

बच्चे निरीक्षण तथा अनुकरण के द्वारा वे सब सीखते हैं जो उनके प्राथमिक संरक्षक माता-पिता करते हैं। वे उन सब की नकल करते हैं एवं आत्मसात करते हैं। जो देखते हैं तथा उसे अपने जीवन में उसी प्रकार अपनाते हैं। इस तरह वे आत्मनिर्भर बनते हैं। बच्चे अपने माता-पिता को देखते हुए बड़े होते हैं तथा अपनी परंपरागत लिंग संबंधी भूमिकाओं को निभाते हैं। सामान्य तौर पर वे प्रौढ़ होने पर भी वैसे ही भूमिका निभाते हैं जो उनके साथियों के माता पिता द्वारा निभाई जाती है जो अपेक्षाकृत कम परंपरागत होते हैं।

3. समलैंगिक, उभयलिंगी तथा सम्मोहित लैंगिक युवा 

जैविक तथा सामाजिक परिस्थितियां बताती है कि ज्यादातर लड़के प्राथमिक तौर पर पुरुष लिंग की पहचान के साथ विकसित होते हैं एवं ज्यादातर लड़कियां प्राथमिक तौर पर स्त्रियोचित लिंग पहचान के साथ विकसित होती है। उनका रूढ़िगत व्यवहारों के कारण उनका व्यवहार बचपन से ही उनके अनुभवों के आधार पर परिवर्तित हो सकता है। यह जरूरी है कि वे अपने लिंग के साथ आराम अनुभव करें एवं कम से कम तनाव अनुभव करें। उन्हें अपने लैंगिक पहचान प्राकृतिक तथा सामान्य तौर पर स्वीकार करनी चाहिए। यह सोचना जरूरी है कि सामाजिक तथा लैंगिक रूप से क्या करना चाहते हैं? तथा वे जो करना चाहते हैं उसका प्रभाव उनके परिवार एवं समाज पर क्या पड़ेगा? क्या परिवार तथा समाज उन्हें इस रूप में स्वीकार करेगा? उन्हें यह नहीं पता होगा कि जो वे नहीं है। उसे देखाने में वे कभी भी आत्मविश्वासी ही नहीं रह सकते हैं।

बहुत कम लड़के तथा लड़कियां ऐसे होंगे जिन्हें इस तरह का अनुभव होगा। इस तरह के युवा एक अलग तरह का अनुभव करते हैं एवं सामाजिक अपेक्षाओं से बाहर निकलकर समलैंगी तथा सम्मोहित लैंगिक युवा की अपनी छवि को स्वीकार कर पाते हैं एवं इस नई लैंगिक पहचान के साथ समाज के समक्ष जाते हैं। जो बच्चे समलिंगी के रूप में विकसित होते हैं वे लैंगिक पहचान हेतु लैंगिक वरीयता अनुभव उस लिंग को देते है जिसके प्रति वे आकर्षित होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि अगर वे यह अनुभव करते हैं कि वे लड़के हैं तो वे लड़कों के साथ ज्यादा आरामदायक एवं सामान्य व्यवहार करते हैं एवं अगर वे अपने आप को लड़की अनुभव करते हैं तो वह लड़कियों के समूह में ज्यादा आरामदायक एवं सामान्य अनुभव करते हैं। अर्थात वे समलिंगी साथियों के साथ यौनिक क्रियाओं हेतु ज्यादा आकर्षित होते हैं। 

सामान्य परिस्थितियों में किशोर ज्यादातर विपरीत लिंग के साथियों की तरफ लैंगिक क्रियाओं हेतु आकर्षित होते हैं। सम्मोहित युवा ज्यादातर विपरीत लिंग पहचान के साथ विकसित होते हैं वे शारीरिक रूप से पुरुष हो सकते हैं लेकिन वे आंतरिक रूप से अपने आप को महिला समझते हैं अथवा शारीरिक रूप से महिला होते हैं परंतु वे अपने आप को पुरुष अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों को ही भविष्य में गे, लेसावियन, उभयलिंगी, क्वशनिंग, इण्टरसेक्स एवं ट्रान्सजनरेटिड बच्चे कहा जाता हैं।

लिंग भूमिका तथा खेल का मैदान 

खेल के मैदान मे भी लिंग भूमिका का विशेष महत्व होता हैं। पुरूषों से ज्यादातर शक्ति की अधिकता वाले खेलों को खेलने की उम्मीद की जाती है। पुरूषो से जितनी ज्यादा शारीरिक बल वाले खेलों को खेलने की उम्मीद रखी जाती हैं, उतनी बालिकाओं या महिलाओं से नही। क्रिकेट, फूटबाॅल, वेट लिफ्टिंग, मुक्केबाजी, कुश्ती, दौड़ आदि खेल खेलने की उम्मीद पुरूषों से रखी जाती हैं। अगर कोई महिला इन खेलों को खेलने का प्रयत्न करती है तो समाज उसे पसंद नही करता है तथा कदम-कदम पर उसके समक्ष चुनौतियाँ उत्पन्न की जाती है।  मेरीकाॅम इसी तरह की महिला थी जिन्होंने पुरूषों के अधिकार क्षेत्र के खेल खेलने का प्रयत्न किया। अगर कोई बालिका इस तरह के खेल में रूचि लेती है तो तत्काल यह जता दिया जाता है कि वह लड़की है तथा यह खेल पुरूषों के खेल हैं इसलिए उसे खेल नहीं खेलना चाहिए। इस तरह खेल के मैदान में भी लिंग भेद स्पष्ट रूप से दिखाई देता हैं जो कि समाज की रूढ़िप्रद धारणा एवं पूर्व धारणाओं पर आधारित सोच को व्यक्त करता हैं।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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