10/05/2021

संवेदना क्या हैं? परिभाषा, विशेषताएं/तत्व

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संवेदना का अर्थ (samvedana kya hai)

samvedana arth paribhasha visheshta tatva;जब हमारी ज्ञानेन्द्रियों के संपर्क में कोई वस्तु आती हैं यानी कि जब हम किसी वस्तु को देखते हैं, या छूते हैं, या चखते हैं, तब हम उसी समय यह निर्णय नही कर पाते कि वह वस्तु क्या हैं? इसी को संवेदना कहते हैं, इस प्रकार संवेदना के लिये दो घटकों की आवश्यता होती हैं, एक वस्तु तथा दूसरी ज्ञानेन्द्रियों से उनका संपर्क। जब वस्तु का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता हैं तब वह प्रत्यक्षीकरण (Perception) कहलाता हैं। इस प्रकार संवेदना प्रत्यक्षीकरण की पूर्ववर्ती क्रिया हैं। संवेदना किसी उत्तेजना के प्रति जीव की प्रथम अनुक्रिया हैं। वास्तव में यह प्रत्यक्ष की दिशा में एक कदम हैं। यथार्थ में संवेदना प्रत्यक्ष से अलग नहीं होती हैं। केवल मौखिक अध्ययन के प्रयोजन से उसको प्रत्यक्षीकरण (Perception) से अलग मान लिया जाता हैं। 

वार्ड (Ward) के शब्दों में," शुद्ध संवेदना एक मनोवैज्ञानिक किवदन्ती हैं।" 

संवेदना का अर्थ स्पष्ट करने के लिये एक उदाहरण यह हैं कि जब हमारे कान में कोई ध्वनि आ रही हैं और हम उस ध्वनि के विषय में यह ज्ञान नहीं कर पा रहें हैं कि वह ध्वनि कहाँ से आ रही हैं, वह ध्वनि पशु की हैं या किसी मनुष्य की या किसी वाद्ययंत्र की हैं? इस प्रकार के ज्ञान का आभास संवेदना कहलाता हैं। 

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि किसी भी वस्तु के प्रत्यक्षीकरण के लिये प्रथम संवेदना होना आवश्यक हैं, दूसरे शब्दों में प्रत्येक प्रत्यक्षीकरण के भीतर संवेदना छिपी रहती हैं। अतः संवेदना ज्ञान की पहली सीढ़ी हैं। व्यवहार में व्यक्ति संवेदना और प्रत्यक्षीकरण में भेद नही कर पाता, इस कारण संवेदना के बाद प्रत्यक्षीकरण की क्रिया की तीव्रता हैं। इसी कारण सैद्धांतिक दृष्टि से यह माना जाता हैं कि प्रथम वस्तु की प्रतीति अथवा संवेदना होती हैं उसके बाद उसका प्रत्यक्षीकरण होता हैं।

संवेदना की परिभाषा (samvedana ki paribhasha)

क्रूज के अनुसार," उत्तेजना के प्रति जीव की प्रथम प्रतिक्रिया ही संवेदना हैं।" इस तरह प्रथम उत्तेजना प्राप्त होने पर जीव द्वारा जो प्रतिक्रिया की जाती हैं, वह उस वस्तु के प्रति जीव की संवेदना कहलाती हैं। 

सली के शब्दों में," यह एक सरल मानसिक प्रक्रिया है जो कि एक ज्ञानवाहक स्नायु के अन्तिम छोर से उत्तेजित होने के फलस्वरूप उत्पन्न होती हैं जबकि वह मस्तिष्क में अंकित होती हैं।" 

जे. एन. सिन्हा के अनुसार," संवेदना एक संस्कार मात्र है जो किसी उत्तेजना के ज्ञानेन्द्रियों पर क्रिया करने के कारण उत्पन्न होता हैं।" 

संवेदना की विशेषताएं या तत्व (samvedana ki visheshta)

संवेदना के अनिवार्य तत्व और विशेषताएं निम्नलिखित हैं-- 

1. निश्चित ग्राह्रा 

संवेदना के लिये उसके ग्रहण के स्थान की निश्चितता आवश्यक हैं। व्यक्ति के शरीर में भिन्न-भिन्न संवेदनाओं के ग्रहण करने के लिये भिन्न-भिन्न स्थान निश्चित हैं, उदाहरणार्थ, गंध की संवेदना नाक को तथा ध्वनि की संवेदना कान को ही होगी, कान गंध की संवेदना को ग्रहण नहीं कर सकता तथा नाक ध्वनि को ग्रहण नही कर सकती। इस प्रकार स्पर्थ के लिये त्वचा, स्वाद के लिए जिह्रा और रंगों की पहचान के लिये आँखें हैं।

2. स्पष्टता 

स्पष्टता संवेदना के लिये आवश्यक तत्व है। स्पष्टता से संबंधित तीन प्रकार की स्थितियाँ संभव हैं, यथा-- अस्पष्ट होना, कम स्पष्ट होना व स्पष्ट होना। इनमें संवेदना के लिए अस्पष्टता निरर्थक होती हैं, कम स्पष्ट संवेदनायें शीघ्र प्रभावित नहीं होती, सामान्य रूप से तीव्र संवेदनायें ही स्पष्ट होती हैं। अति तीव्र अथवा अति मंद संवेदनायें स्पष्ट नहीं होतीं।  उदाहरणार्थ, यदि कोई ध्वनि कानों में मंद गति से आती है तो उसकी ओर कान उत्तेजित नहीं हो पाता और यदि तीव्रता से आती है तो व्यक्ति कान बंद कर लेता है। इस प्रकार सामान्य तीव्रता से जो ध्वनि आती हैं, वही संवेदना कहलाती हैं। 

3. विस्तार 

संवेदना का विस्तार भी उसकी पहचान में सहायक होता हैं, जैसे-- गंध की संवेदना उसके विस्तार पर निर्भर करती हैं अर्थात् वह गंध कितनी दूर तक फैल सकती हैं। यह तत्व संवेदना के विस्तार के साथ व्यक्ति की ग्रहण शक्ति के ऊपर भी निर्भर करता हैं। यथा-- घ्राणेन्द्रिय के विकृत होने पर या विस्तार को ग्रहण करने की क्षमता व्यक्ति में न होने पर विस्तार की संवेदना नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त विस्तार किसी संवेदना में नहीं हो सकता। 

4. काल 

भिन्न-भिन्न संवेदनाओं में पहचान के लिए काल भी अनिवार्य तत्व हैं। जैसे गोली चलने पर प्रकाश की संवेदना एवं ध्वनि की संवेदना एक साथ नहीं होती बल्कि पहले प्रकाश की होती हैं उसके पश्चात ध्वनि की संवेदना होती हैं। इस प्रकार उद्दीपक की गति के अनुपात के अनुसार संवेदना के काल का भेद हो जाता हैं। इसके अतिरिक्त अनेक संवेदनायें एक साथ या एक एक काल में सक्रिय नहीं होती अपितु भिन्न-भिन्न संवेदनायें भिन्न-भिन्न कालों में सक्रिय होती हैं। 

5. तीव्रता 

संवेदना किसी बाहरी उद्दीपक से होती है। इस उद्दीपक की प्रबलता जितनी अधिक होगी उतनी ही अधिक संवेदना की तीव्रता होगी। बेबर महोदय ने कई प्रयोंगों द्वारा इस प्रबलता और तीव्रता के संबंध को समझने का प्रयत्न किया। फेनचनर ने भी कई परीक्षण करके वेबर के निष्कर्षों का स्पष्टीकरण किया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि," उद्दीपक के अनुपात के अनुसार ही वृद्धि या कमी होने से संवेदना के भेद का ज्ञान हो सकता हैं।" 

जैसे किसी व्यक्ति के हाथ पर एक किलों तोल का एक लोहे का टुकड़ा रख दिया जायें, यदि इसके ऊपर 50 ग्राम का एक और टुकड़ा रख दिया जाये तो संभव है कि व्यक्ति उसका अनुभव न कर पाये किन्तु यदि 500 ग्राम का टुकड़ा और रखा जाये तो तौल का भेद वह तुरंत जान सकेगा। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उद्दीपक के अंतर का ज्ञान उसके अनुपात की तीव्रता में परिवर्तन के ऊपर निर्भर करता हैं। 

6. गुण 

आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की धारणा है कि संवेदना में 7 गुण होते हैं। इन गुणों की विविधता के कारण ही संवेदनाओं का विभाजन करना संभव होता हैं। जैसे-- पीले रंग की संवेदना लाल रंग की संवेदना से भिन्न होती हैं। इसी प्रकार स्वाद की संवेदना, स्पर्थ की संवेदना, श्रवण की संवेदना आदि सभी एक-दूसरे से भिन्न होती हैं।

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