10/10/2021

विस्मरण/विस्मृति के सिद्धांत

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विस्मरण के सिद्धान्त 

vismaran ke siddhant;विस्मरण की व्याख्या के लिए कुछ विद्वानों ने सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। कुछ प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं-- 

1. प्रतिमा परिवर्तन सिद्धान्त (Trace Change Theory) 

विस्मरण सम्बन्धी यह सिद्धान्त किसी व्यक्ति के प्रत्यक्षीकरण पर आधारित है। जब हम किसी वस्तु या व्यक्ति को देखते हैं, तो हमारे मस्तिष्क में तुरन्त उस वस्तु या व्यक्ति की प्रतिमा या अक्श बन जाती है। अब यदि हम दूसरी वस्तुओं को पहली मूल वस्तु से भिन्न देखते हैं, तो हमारी प्रतिमा में परिवर्तन आ जाता है तथा हम पूर्ववर्ती बातों को भूल जाते हैं। उदाहरणार्थ, मान लीजिए कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हमारा अभिन्न मित्र रहा हो, लेकिन अब वर्तमान में मिलने पर वह हमारी अनदेखी कर रहा हो या उपेक्षा कर रहा हो या विपरीत व्यवहार कर रहा हो, तो उसका ऐसा व्यवहार करना हमें अत्यन्त पीड़ा तो पहुँचाएगा और हम इस वर्तमान व्यवहार में बदलाव लाने का भी भरसक प्रयास करेंगे ताकि यह वर्तमान व्यवहार अपने अतीत के मूल व्यवहार में परिवर्तित हो जाए, लेकिन हमारे अनगिनत या भरसक प्रयास करने के बावजूद भी उसके वर्तमान व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आता है तथा वह जस का तस बना रहता है, तो ऐसी स्थिति में हम पुरानी सब बातों को भुलाकर अपने स्मृति पटल पर उस व्यक्ति की नई तस्वीर या प्रतिमा को स्थापित कर लेंगे जो हमें कुछ अन्तराल के बाद स्वयं ही सहज बना देगी। सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी-न-कभी इस दौर से अवश्य गुजरता है जो किसी भी क्षेत्र या व्यवसाय से सम्बन्धित हो सकती है। 

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2. अनुपयोग सिद्धान्त (Disuse Theory) 

स्मृति एवं विस्मरण की व्याख्या करने वाले सिद्धान्तों में यह एक सामान्य और प्राचीन सिद्धान्त है। इसकी मान्यता है कि अधिगम और धारणा की जाँच के बीच व्यतीत होने वाला समय ही विस्मरण का कारण है और इसमें वृद्धि होने पर विस्मरण की मात्रा में भी वृद्धि होती है। इस सिद्धान्त के अनुसार, अधिगम के फलस्वरूप केन्द्रीय तंत्रिकातंत्र (CNS) में विशेष प्रकार का परिमार्जन उत्पन्न होता है। इसे 'स्मृति चिन्ह' (Memory trace) कहा गया है। अधिगम की गई सामग्री का बाद में उपयोग न करने से समय व्यतीत होने के साथ-साथ स्मृति चिन्ह भी धूमिल होते हैं या उनका क्षय (Decay) होता है और सामग्री का विस्मरण होता जाता है। जिस तरह समय बीतने के साथ दीवार पर लगी फोटो या मकबरा या समाधि में लगे शिलालेख धूमिल पड़ते जाते हैं उसी प्रकार समय बीतने के साथ स्मृति भी कमजोर होती जाती है अर्थात् , विस्मरण वास्तव में स्मृति के भण्डार में भण्डारण की असफलता का परिणाम है। इसमें कूट संकेतन (Encoding) या पुनरुद्धार (Retrieval) की भूमिका नहीं होती है। एविंगहास (1885) तथा कुछ अन्य विद्वानों ने भी इसी अवधारणा का समर्थन किया है। मूल्यांकन (Evaluation) यद्यपि यह सिद्धान्त व्यावहारिक अवश्य लगता है, परन्तु इसमें अनेक कमियाँ हैं। (Megroch, 1942)। आज यह प्रमाणित हो चुका है कि विस्मरण मात्र समय-अन्तराल (Interval) का ही परिणाम नहीं है, बल्कि अधिगम और उसकी धारणा की जाँच के बीच के अन्तराल में व्यक्ति के द्वारा की जाने वाली अन्य क्रियाएँ विस्मरण के मूल निर्धारक हैं। इन्हें अन्तर्वेशी अधिगम (Interpolated learning) कहते हैं (Jenkins and Dallenback, 1924)। विद्वानों ने यह प्रश्न उठाया है कि यदि समय-अन्तराल कही विस्मरण का कारण है, तो अधिगम के बाद विश्राम देने से विस्मरण की मात्रा कम नहीं होनी चाहिये। दूसरी तरफ, अन्तर्वेशी अधिगम (IL) कराने से विस्मरण में वृद्धि हो जाती है। अतः विस्मरण का कारण समय-अन्तराल नहीं बल्कि अन्तर्वेशी अधिगम (IL) है। एविंगहास (1913) को भी इसका आभास हो गया था, परन्तु वे इसे टाल गये। अनेक आधुनिक अध्ययनों में भी विस्मरण का मूल कारण अन्तर्वेशी अधिगम ही माना गया है। फिर भी, यह नहीं माना जा सकता हैं कि विस्मरण मात्र समय-अन्तराल का परिणाम है। धारणा या विस्मरण पूर्व अथवा पश्चात् अधिगम से उत्पन्न व्यतिकरण से व्यापक रूप से प्रभावित होता है। (Estes, 1988)। 

3. संतनन-समाकलन सिद्धान्त (Perseveration Consolidation Theory) 

यह सिद्धान्त म्यूलर एवं पिल्जेकर (1990) द्वारा प्रस्तावित किया गया है। यह एक दैहिक सिद्धान्त है और यह मानता है कि अधिगमोपरान्त भी उससे सम्बन्धित क्रियाएँ मस्तिष्क में कुछ समय तक चलती रहती हैं। इससे स्मृति को समाकलित या सुदृढ़ होने का अवसर मिलता है। यह समाकलन दैहिक एवं मनोवैज्ञानिक, दोनों ही स्तरों पर चलता है। अर्थात् अधिगम के बाद भी स्नायुविक संतनन (पश्चात् प्रतिमाएँ) जारी रहता है और प्रयोज्य उस पर अव्यक्त रूप से ध्यान भी केन्द्रित करता है। अतः यदि अधिगम के बाद कोई कार्य किया जाता है, तो संलग्न समाकलन की प्रक्रिया बाधित हो जाती है और विस्मरण की गति बढ़ जाती है। इस सिद्धान्त की अवधारणा को बाद के अध्ययनों से भी समर्थन प्राप्त हुआ है। यथा- हेब्ब (1949) के अनुसार स्मृति चिन्हों को संरचनात्मक दृष्टि से अपेक्षाकृत स्थायी होने के लिये संतनन आवश्यक है । डन्कन (1949) का भी निष्कर्ष है कि यदि स्मृति संतनन अवस्था में है और प्रयोज्य को एलेक्ट्रोकन्वलसिव आघात (Electroconvulsive shock) दे दिया जाये, तो स्मृति में हास बढ़ जायेगा। यदि स्मृति समाकलित हो गई है, तो आघात से हानि नहीं होगी। चूहों पर प्रयोग करके उन्होंने निष्कर्ष दिया है कि उनमें स्मृति कुछ न कुछ हानि अवश्य उत्पन्न होती है। अतः उसके बाद ई० सी० एस० (ECS) देने से स्मृति में कुछ न कुछ हानि अवश्य उत्पन्न होती हैं।

मूल्यांकन (Evaluation) 

यद्यपि यह सिद्धान्त तार्किक प्रतीत होता है परन्तु इसमें कुछ विशेष दोष हैं। यथा--

1. स्मृति-हानि उत्पन्न करने में अन्तर्वेशी अधिगम की महत्वपूर्ण भूमिका होती है इसे यथोचित मान्यता नहीं दी गई है, 

2. विस्मरण पूर्व अधिगम से भी प्रभावित होता है परन्तु इसमें स्वीकार नहीं किया गया है, ( Bunch and Mcteer, 1932) एवं 

3. मूल अधिगम (O ) एवं अन्तर्वेशी अधिगम (IL) में समानता भी विस्मरण का निर्धारक है परन्तु इसमें इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है (Postman, 1971)। संक्षेप में, यही कहा जा सकता है कि विस्मरण की व्याख्या के दृष्टिकोण से यह सिद्धान्त सामान्यतः अनुपयुक्त है। हाँ, इतना अवश्य है कि ई० सी० एस० (ECS) से प्राप्त साक्ष्यों को देखते हुए यह माना जा सकता है कि अल्पकालिक स्मृति (STM) संतनन द्वारा कुछ सीमा तक प्रभावित हो सकती है। 

4. व्यतिकरण सिद्धान्त (Interference Theory) 

विस्मरण में व्यतिकरण की अहम भूमिका होती है। पूर्वाधिगम का वर्तमान अधिगम की स्मृति और वर्तमान अधिगम का पूर्वाधिगम की स्मृति पर अवरोधक प्रभाव पड़ता है। इन्हें क्रमशः अग्रोन्मुख एवं पृष्ठोन्मुख व्यतिकरण (Pl and RI) कहते हैं। यदि पूर्वाधिगम का बाद में सीखी जाने वाली सामग्री की धारणा पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, तो इसे अग्रोन्मुख व्यतिकरण कहते हैं। यदि पूर्वाधिकरण पर बाद में सीखी जाने वाली सामग्री का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो इसे पृष्ठोन्मुख व्यतिकरण या अवरोध कहते हैं। अग्रोन्मुख व्यतिकरण की दशा में बाद वाली सामग्री और पृष्ठोन्मुख व्यतिकरण की दशा में पूर्व में सीखी गई सामग्री की धारणा में हास बढ़ जाता है। इस सिद्धान्त के समर्थक विस्मरण के लिए व्यतिकरण प्रभाव या अवरोध को उत्तरदायी मानते हैं। ग्लीटमैन (1983) के अनुसार," व्यतिकरण सिद्धान्त की मान्यता है कि सामग्री का विस्मरण इसलिए हो जाता है क्योंकि पहले या बाद में सीखे गये पद उसके साथ हस्तक्षेप करते हैं ।" 

"Interference theory assert that items are forgotten becuase they are somehow interfered with by other iterms learned before or after." -Gleitman 

इस सम्बन्ध में दो विचारधारायें प्रकाश में आयी हैं। इन्हें अनुक्रिया प्रतिस्पर्धा एवं द्वि - कारक सिद्धान्त कहते हैं--

(अ) अनुक्रिया प्रतिस्पर्धा सिद्धान्त (Competition of Response Theory) 

इस सिद्धान्त को लोकप्रिय बनाने में मैक्ग्यू (MeGeoch, 1932) का योगदान अपेक्षाकृत अधिक रहा है (Barnes and Underwood, 1959)। इनका मत है कि जब दो कार्य सीख जाते हैं, तो दोनों के लिए अनुक्रियाएँ मस्तिष्क में अलग-अलग स्थापित होती हैं। इनका एक-दूसरे पर अवरोधक प्रभाव नहीं पड़ता है, बल्कि वे एक-दूसरे के प्रभाव से मुक्त रहती हैं। इसे स्वातन्त्र्य परिकल्पना (Indepenedence hypothesis) का नाम दिया गया है। परन्तु जब दो में से किसी एक सामग्री का पुनमरण किया जाता है। तो दूसरी सामग्री से सम्बन्धित अनुक्रियाएँ भी पुनर्स्थारित होने के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं। इस कारण सम्बन्धित सामग्री का विस्मरण होने लगता है। इस प्रकार स्मरण न हो पाना पुनरुद्धार की असफलता (Failure of retrieval) का परिणाम नहीं है बल्कि अनुक्रियाओं में स्पर्धा का परिणाम है, अर्थात एक का प्रत्याहान करने के समय दूसरी अनुक्रिया भी प्रत्याहान में आना चाहती है। यहीं स्पर्धा है। इसी कारण विस्मरण होता है।

(ब) द्वि - कारक सिद्धान्त (Two-factor Theory

मेल्टन एवं इरविन (1940) के अनुसार विस्मरण केवल अनुक्रियाओं में स्पर्धा के ही कारण नहीं होता है। इनका विचार है कि विस्मरण में अनुक्रिया स्पर्धा (Competition of response) की भूमिका को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। परन्तु इसी के साथ यह भी मानना चाहिये कि जिस समय प्रयोज्य अन्तर्वेशी कार्य (Interpolated learning-IL) करता है उस समय मूल अधिगम (OL) अनुक्रियाओं का अनाधिगम होता है। दूसरी तरफ, जो प्रयोज्य अन्तर्वेशी कार्य से मुक्त रहते हैं उनके अव्यक्त अभ्यास (Inplicit rehearsal) मानसिक स्तर पर होता रहता है। इसीलिए अन्तर्वेशी कार्य करने की परिस्थिति में अनुक्रिया प्रतिस्पर्धा एवं अनाधिगम (Unlearning of OL) दोनों के कारण मूल अधिगम की धारणा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसका परिणाम यह होता है कि इस दशा में विस्मरण की मात्रा बढ़ जाती है। चूँकि इस सिद्धान्त में अवरोध तथा विस्मरण के लिए दो कारकों को उत्तरदायी माना गया है, इसीलिए इसे द्वि-कारक सिद्धान्त कहते हैं। एक उदाहरण द्वारा इसे स्पष्ट कर सकते हैं। जैसे--  

एक प्रयोज्य एक सूची याद करने के बाद दूसरी सूची (A) याद करने के बाद दूसरी सूची (B) याद करता हैं। इसके बाद प्रथम सूची (A) पुनस्मरण याद करने के बाद विश्राम करता है। तत्पश्चात प्रथम सूची (A) का पुनर्म्मरण करता है। ऐसी स्थिति में प्रथम प्रयोज्य प्रयोज्य जब पहली सूची (A) का पुनर्म्मरण करना चाहेगा, तो दूसरी सीची (B) के भी पद  (Item) पुनर्म्मरण के लिए सक्रिय हो सकते हैं। इस तरह से स्पर्धा प्रथम सूची के पदों के विस्मरण का कारण बनती हैं। इसके अतिरिक्त दूसरी सूची (B) का अधिगम करते समय पहली सूची का अनाधिगम (Unlearning) भी होता हैं। प्रयोज्य उसकी समीक्षा या अभ्यास नहीं कर पाता है क्योंकि वह प्रथम के बाद दूसरी सूची को याद करने में लग जाता हैं। इन दोनों कारणों से मूल अधिगम (प्रथम सूची) के पदों के विस्मरण की गति बढ़ जाती हैं। 

मूल्यांकन (Evaluation)

इस प्रकार स्पष्ट है कि विस्मरण का व्यतिकरण सिद्धान्त अन्य सिद्धान्तों की अपेक्षा तार्किक एवं व्यावहारिक लगता है और इसके पक्ष में आनुभविक साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं। यद्यपि यह सिद्धान्त आलोचना का भी विषय रहा है और इसके लिए विकल्पों की खोज भी की गई है, परन्तु, फिर भी अभी तक कोई विधिवत विकल्प उपलब्ध नहीं हो पाया है  इसमें कुछ दोष इस प्रकार हैं--  

1. यद्यपि यह सिद्धान्त विस्मरण की व्याख्या विश्वसनीय ढंग से करता है, फिर भी विस्मरण की सम्यक व्याख्या इसके द्वारा भी नहीं हो पाती है। 

2. ऐसा नहीं माना जा सकता है कि विस्मरण केवल व्यतिकरण प्रभाव (Interference effect) का ही परिणाम है। विस्मरण अन्य कारणों से भी हो सकता है (Milner, 1970)। 3. व्यतिकरण प्रभाव मूल अधिगम (OL) का अत्यधिगम (Over learning) कराकर सीमित किया जा सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि व्यतिकरण प्रभाव अन्य कारकों से प्रभावित होता है। 

4. बहुत से सुख एवं दुःखद अनुभवों पर व्यतिकरण का अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ता है। इससे व्यतिकरण सिद्धान्त की उपादेयता सीमित हो जाती है।

संदर्भ, आर. लाल बुक डिपो, लेखक, डाॅ. ए. बी. भटनागर एवं डाॅ. अनुराग भटनागर तथा डाॅ. (श्रीमती) नीरू भटनागर।

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