11/17/2021

सामाजिक अनुसंधान/शोध का महत्व, सीमाएं

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सामाजिक अनुसंधान या शोध का महत्व

samajik anusandhan ka mahatva;सामाजिक शोध जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है, सामाजिक जीवन और घटनाओं को जानने का प्रयास है। संसार अनेक रहस्यों से भरा पड़ा है। मानव जिज्ञासु प्राणी है, जो इन रहस्यों का उद्घाटन करना चाहता है। सामाजिक जीवन और घटनाओं को उद्घाटित करना सामाजिक शोध की मूल आत्मा है। सामाजिक अनुसंधान का महत्व निम्नलिखित हैं--
1. अज्ञानता का नाश
अनुसंधान विभिन्न सामाजिक घटनाओं के सम्बन्ध मे वैज्ञानिक ज्ञान देकर उन घटनाओं के सम्बन्ध मे हमारे अज्ञान को दूर करता हैं।
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2. ज्ञान की प्राप्ति
सामाजिक अनुसंधान से नवीन ज्ञान मिलता हैं। इससे न केवल जिज्ञासाओं का समाधान होता है, वरन् इससे प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ना सम्भव नही होता है। नवीन ज्ञान के पुनर्निर्माण मे सहायक होता है।
3. वैज्ञानिक अध्ययन
सामाजिक अनुसंधान का तीसरा महत्व सामाजिक समस्याओं के वैज्ञानिक अध्ययन और विश्लेषण से सम्बंधित है। आधुनिक युग विज्ञान का युग है। इस युग मे प्रत्येक अध्ययन को तब तक स्वीकार नही किया जाता , जब तब कि वह वैज्ञानिक आधार पर न हो।
4. भविष्यवाणी करने मे सहायक
सामाजिक अनुसंधान भविष्यवाणी करने मे सहायक होता हैं। कभी-कभी समाज को भविष्य के बारे मे जानकारी नही होती है। इस कारण समाज को आगे बढ़ाने मे कठिनाई का अनुभव होता है। जिस प्रकार से वैज्ञानिक जीवन और जगत की घटनाओं के आधार पर संकेत देते है, ठिक इसी प्रकार का संकेत समाजशास्त्री भी कर सकते है।
5. समाज कल्याण
समाज कल्याण आधुनिक समाज की जरूरत है। सामाजिक संरचना मे विद्यमान तत्व ही विभिन्न समस्याओं का वास्तविक कारण होते है। सामाजिक शोध द्वारा इन तत्वों का ज्ञान प्राप्त करके समाज का संगठित कर सकते हैं।
6. समाज सुधार मे सहायक
सामाजिक शोध से प्राप्त ज्ञान का व्यावहारिक उपयोग समाज सुधारक और प्रशासक करते है। इससे सामाजिक सुधार एवं प्रशासन के संचालन मे सामाजिक शोध महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करता हैं।
7. प्रभावशाली सामाजिक नियंत्रण के लिए
सामाजिक नियंत्रण की समस्या प्रत्येक विकासशील देश के सम्मुख नए रूप में सामने आती है, क्योंकि सामाजिक नियंत्रण के प्रचलित साधन नई परिस्थितियों में इतने प्रभावशाली नहीं रहते हैं। प्राचीन भारतीय समाज में प्रथाएं परंपराएं रूढ़ियां, धर्म, ग्राम पंचायत के साथ-साथ संयुक्त परिवार और जाति व्यवस्था भी सामाजिक नियंत्रण में महत्वपूर्ण योगदान देती थी। परंतु औद्योगिक एवं नागरीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण परिवर्तित परिस्थितियों में अब यह नियंत्रण के साधन अपना प्रभाव खो रहे हैं। इनके स्थान पर कानून न्यायालय पुलिस सेना आदि सामाजिक नियंत्रण के साधन प्रयोग में लाए जा रहे हैं। परंतु इन नए साधनों पर लोगों का इतना विश्वास नहीं है। की इन साधनों से उन्हें न्याय मिलने की उम्मीद कम ही है। ऐसी परिस्थितियों में समाज में अनुशासनहीनता और उदण्ता में वृद्धि हो रही है। सामाजिक शोध के द्वारा ही इन साधनों को प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
8. सामाजिक परिवर्तन को समझने के लिये
विकासशील समाज में परिवर्तन की गति तेज रहती है। परिवर्तनशील समाज संक्रमण कालीन अवस्था से गुजरने वाला समाज होता है। ऐसे समाजों में नए प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती है। साथ ही परिवर्तन किस समय हो रहा है, यदि यह मालूम ना हो तो वह समाज अपने लक्ष्यों से भटक सकता है। भारतीय समाज के साथ वर्तमान में यही घटित हो रहा है पुराने संस्थाएं खत्म हो रही हैं और नई संस्था उत्पन्न हो रही है। क्या छोड़े? क्या पकड़े? क्या करें? इस दुविधा में सामान्य जन फंसे हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें सही मार्गदर्शन की आवश्यकता है सामाजिक शोध के द्वारा परिवर्तन की सही दिशा का आकलन कर जन सामान्य को उसके प्रति मार्गदर्शन किया जा सकता है। ताकि वे सही दिशा का चुनाव कर सकें। इस प्रकार भारत में सामाजिक शोध का लोकव्यापीकरण जरूरी प्रतीत होता है।
9. राष्ट्रीय एकता के लिये
भारत एक कल्याणकारी राष्ट्र है। परंतु प्रदेशवाद, भाषावाद, जातिवाद सांप्रदायिकता आदि व्याधियां भारतीय समाज में व्याप्त है। राजनीतिक नेता चुनाव जीतने के लिए तथा सस्ती लोकप्रियता एवं धन अर्जित करने के लिए इन सब का खुलकर प्रयोग करते हैं। सामान्य जनता भी अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए नेताओं की बातों का अनुसरण करती है। इससे राष्ट्रीय एकता आज भी भारतीय समाज के लिए एक बड़ी समस्या बनी हुई है सामाजिक शोध के द्वारा इन समस्याओं का निराकरण किया जा सकता है इस प्रकार शोध के द्वारा राष्ट्रीय एकता के लिए भी प्रयास किए जा सकते हैं।

सामाजिक अनुसंधान की सीमाएं 

samajik anusandhan ki simaye;विभिन्न सामाजिक विज्ञानों की अनुसंधान संबंधी समस्या होती है और यही बात समाजशास्त्री अनुसंधान पर भी लागू होती है। इन समस्याओं तथा कठिनाइयों के कारण समाजशास्त्री अनुसंधान की वैज्ञानिक प्रकृति के संबंध में आपत्ति उठाई जाती है। सामाजिक अनुसंधान की सीमाएं इस प्रकार हैं--
1. सत्यापन की समस्या
सामाजिक अनुसंधान द्वारा विभिन्न विषयों पर किए गए अध्ययन के निष्कर्षों की विश्वसनीयता को ज्ञात करना वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बहुत जरूरी है। परंतु सामाजिक घटनाएं व्यवहार प्रक्रिया मुक्त होती है जिसका कोई स्वरूप नहीं होता उनकी पुनरावृत्ति करना भी संभव नहीं है। अतः निष्कर्षों की वैज्ञानिकता का परीक्षण करना सामाजिक अनुसंधान की मुख्य समस्या है।
2. प्रायोगिक अनुसंधान का अभाव
प्राकृतिक विज्ञानों की भांति सामाजिक विज्ञान में प्रयोग एक विधियों का प्रयोग प्रायः नहीं के बराबर होता है, क्योंकि इन विधियों के प्रयोग के लिए सामाजिक विज्ञानों में अभी तक समुचित दिशाओं का अभाव होता है। इसलिए कार्य कारण संबंधों की खोज में समस्या आती है।
3. सामाजिक घटनाओं की जटिलता तथा गतिशीलता
सामाजिक घटनाओं तथा समस्याओं की प्रगति सदैव परिवर्तनशील होती है। जो निरंतर समय अनुसार बदलती है, साथ ही विभिन्न घटनाओं के कारण किसी एक पक्ष से संबंधित ना होकर बहुपद के कारणों का परिणाम होती है यही वजह है कि समाजशास्त्री अनुसंधान में अलग-अलग करके सामाजिक घटना के घटित होने में प्रत्येक के प्रभाव को नहीं आंका जा सकता। ऐसी स्थिति में सामाजिक अनुसंधान के मार्ग में एक बहुत बड़ी बाधा उपस्थित होती है।
4. वैषयिकता का अभाव
वैषयिकता का अर्थ है- पक्षपात रहित अथवा टथस्थता। साधारणतया एक अनुसंधानकर्ता जो सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करता है, वह चयन उसका तटस्थ होता है। अतः वह अपनी जाति, परिवार, धर्म, विभाग तथा परंपरा आदि का अध्ययन निष्पक्ष होकर नहीं कर पाता। यही वजह है कि सामाजिक अनुसंधान में वैषयिकता का अभाव होता है।
5. सुनिश्चित माप की समस्या
सामाजिक अनुसंधान में सामाजिक संबंधों व्यवहारों तथा मानवीय प्रकृति का प्रमुख रूप से अध्ययन किया जाता है। इसकी प्रकृति गुणात्मक होती है परिमाणात्मक नही, जिनका मापना संभव नहीं। इसका कारण यह है कि सामाजिक घटनाओं को मापने का कोई सार्वभौमिक पैमाना विकसित नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में सामाजिक अनुसंधानकर्ता के समक्ष घटनाएं उपस्थित होती है कि वह यथार्थ माप कैसे करें?
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