ज्ञान का अर्थ (gyan kya hai)
gyan arth prakar srot;सामान्यतः ज्ञान का अर्थ जानना, ज्ञात होना, आदि के संबंध मे लिया जाता हैं। ज्ञान को प्रकाशमय माना गया है। ज्ञान का स्वरूप है किसी वस्तु को प्रकाशित करना। जिस प्रकार दीपक निकटस्थ वस्तु को प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान भी वस्तु को प्रकाशित करता हैं। इस ज्ञान को ईश्वर-प्रदत्त अर्थात् सत्य प्रदत्त माना गया है। सत्य और ज्ञान एक ही वस्तुये हैं।
विकीपीडिया के अनुसार," ज्ञान लोगों के भौतिक तथा बौद्धिक सामाजिक क्रियाकलाप की उपज, संकेतों के रूप में जगत के वस्तुनिष्ठ गुणों और संबंधों, प्राकृतिक और मानवीय तत्त्वों के बारे में विचारों की अभिव्यक्ति है।"
ज्ञान के प्रकार (gyan ke prakar)
ज्ञान के विभिन्न प्रकारों को निम्नलिखित रूप में समझाया जा सकता है, ज्ञान के प्रमुख रूप से तीन प्रकार हैं--
1. आगमनात्मक ज्ञान
इस प्रकार का ज्ञान हमारे अनुभव तथा निरीक्षण पर आधारित है। जॉन लॉक इस प्रकार के ज्ञान के प्रवर्तक है। उनके मतानुसार बालक का मन जन्म के समय कोरी पटिया के समान होता है। जैसे-जैसे अनुभव मिलते जाते हैं, इस पटिया पर लेखन होने लगता है। इससे तात्पर्य है कि ज्ञान अनुभवों द्वारा बुद्धि प्राप्त करता रहता है। शिक्षा में इस प्रकार के ज्ञान के प्रवर्तक कहते हैं कि सीखने के लिये समग्र अनुभव प्रदान करने चाहिये। इस प्रकार के ज्ञान में अलौकिक का कोई स्थान नहीं है।
2. प्रयोगमूलक ज्ञान
ज्ञान प्रयोग द्वारा प्राप्त होता है, ऐसी प्रयोजनवादियों की धारणा है। एक विचार को अभ्यास में परिवर्तित करने का प्रयास करना एवं ऐसे प्रयास के परिणाम से जो फल प्राप्त होते हैं, उनसे सीखना। इस धारणा के अनुसार ज्ञान कोई भी ऐसी चीज नहीं है जिसे हम समझें कि वह अनुभव या निरीक्षण से अन्तिम रूप से समझी जा सकती है जबकि हम ऐसी विधियों का प्रयोग करते हैं जैसे आगमन। यह तो कुछ ऐसी वस्तु है जो अनुभव में सक्रिय होती है। एक कृत्य की भाँति जो अनुभव को सन्तोषपूर्ण ढंग से आगे की ओर ले जाती है।
3. प्रागनुभव ज्ञान
ज्ञान स्वयं प्रत्यक्ष की भांति समझा जाता है (Knowledge is self evident)। सिद्धान्त जब समझ लिये जाते हैं, सत्य पहचान लिये जाते हैं। फिर उन्हें निरीक्षण, अनुभव या प्रयोग द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती। इस विचारधारा के प्रवर्तक काण्ट थे जो कहते थे कि सामान्य सत्य अनुभव से स्वतन्त्र होने चाहिये, उन्हें स्वयं में स्पष्ट तथा निश्चित होना चाहिये। गणित का ज्ञान प्रागनुभव ज्ञान समझा जाता है।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार एक प्रकार का ज्ञान वह है जो अनुभव के बाद प्राप्त होता है। दूसरे प्रकार का ज्ञान वह है जो प्रयोग, निरीक्षण तथा अनुभव पर केन्द्रित है तथा तीसरे प्रकार का ज्ञान अनुभव से परे है। इस प्रकार के ज्ञान के सम्बन्ध में धारणा होती है कि प्रकार का ज्ञान अनुभव अनुभव केवल तथ्य ही देता है, परन्तु तथ्य किसी बात को सिद्ध नहीं करते। उनसे सत्य का ज्ञान उस समय तक नहीं हो सकता जब तक कि उनको संगठित न किया जाये। तर्क द्वारा वह संगठित किये जाते हैं। इस प्रकार तर्क या बुद्धि अनुभव को ज्ञान में परिवर्तित करता जाता है। किन्तु कुछ सत्य को अनुभव से प्राप्त तथ्यों की कोई आवश्यकता नहीं होती। यह स्वयं स्पष्ट तथा स्वयंसिद्ध है। प्रागनुभविक ज्ञान ऐसा ज्ञान कहलाता है जिसे बुद्धि अनुभव की सहायता के बिना प्राप्त करती है। शिक्षण प्रदान करने में हमें इन तीनों प्रकार के ज्ञान को ध्यान में रखना चाहिये। विभिन्न विषयों का ज्ञान हमें अनुभव द्वारा प्राप्त होता है। गणित या तर्कशास्त्र का ज्ञान प्रागनुभविक प्रकार का ज्ञान है। गणित के शिक्षण के समय हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिये।
ज्ञान के स्रोत (gyan srot)
ज्ञान के स्त्रोत निम्नलिखित हैं--
1. इन्द्रिय अनुभव
मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ही संसार की वस्तुओं के सम्पर्क में आता है। जब कोई वस्तु हमारे सम्पर्क में आती है तो वह एक संवेदना उत्पन्न करती है। यह संवेदना ज्ञानेन्द्रियों को उत्तेजना मिलने के ही कारण होती है। यह संवेदना वस्तु का ज्ञान प्रदान करती है। जब इन संवेदनाओं का अर्थ प्रदान हो जाता है और तब हमें वस्तु का प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। यह प्रत्यक्षीकरण हमें उस वस्तु की जानकारी देते हैं।
प्रत्यक्षीकरण चेतन मन में अवधारणायें (Concepts) उत्पन्न करते हैं। हमारा ज्ञान न अवधारणाओं पर ही निर्भर होता है। इन्द्रिय अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करने को अनुभववादी (Empiricists), तार्किक प्रत्यक्षवादी (Logical postitivists), यथार्थवादी (Realists) तथा विज्ञानवादी (Scientists) मुख्य स्रोत मानते हैं।
2. साक्ष्य
जब हम दूसरों के अनुभव तथा निरीक्षण पर आधारित ज्ञान को मान्यता देते हैं तो इसे साक्ष्य कहा जाता है। साक्ष्य में व्यक्ति स्वयं निरीक्षण नहीं करता। वह दूसरों के निरीक्षण पर ही तथ्य का ज्ञान प्राप्त करता है। इस प्रकार साक्ष्य दूसरे के अनुभव पर आधारित ज्ञान है। हमारे जीवन में साक्ष्य का बहुत उपयोग किया जाता है। हमने स्वयं बहुत से स्थानों को नहीं देखा है किन्तु जब दूसरे उनका वर्णन करते हैं तो हम उन स्थानों के अस्तित्व में विश्वास करने लगते हैं।
3. तर्क-बुद्धि तथा तर्कबुद्धिवाद
तर्क एक मानसिक प्रक्रिया है। हमारा बहुत कुछ ज्ञान तर्क पर भी आधारित होता है। हमें अनुभव द्वारा जो संवेदनायें प्राप्त होती हैं उनको तर्क द्वारा संगठित करके ज्ञान का निर्माण किया जाता है। इस प्रकार तर्क अनुभव पर कार्य करता है और उसे ज्ञान में परिवर्तित करता है।
4. अन्तः प्रज्ञा तथा अन्तः प्रज्ञावाद
अन्तः प्रज्ञा तथा अन्तः प्रज्ञावाद भी ज्ञान का एक प्रधान स्रोत है। अन्तः प्रज्ञा से हमारा तात्पर्य है-- किसी तथ्य को अपने मन में पा जाना। इसके लिये किसी तर्क की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार के ज्ञान का एकमात्र प्रमाण यह है कि हमें उसकी निश्चितता तथा वैधता में सन्देह नहीं होत्। हमारा उस ज्ञान में पूर्ण विश्वास हो जाता है।
अन्तः प्रज्ञा-अर्न्तदृष्टि द्वारा ज्ञान
कुछ दार्शनिकों ने ज्ञान प्राप्त करने के एक ऐसे साधन का उल्लेख किया है जिसे अन्तर्दृष्टि कहते हैं। कुछ अत्रृयत प्रतिभाशाली लोगों को आकस्मात् कुछ बोध होता है, जैसे महात्मा बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे बैठे ज्ञान प्राप्त हुआ। यह ज्ञान एक प्रकाश या बिजली की चमक के समान हृदय में अकस्मात् उदय हो जाता है। मूसा को दस महत्वपूर्ण ईश्वरीय सूत्र एक पर्वत पर बैठे प्राप्त हुये। ईसम के साहित्य में इसे 'इलहाम' कहते हैं। भारतीय दर्शन में भी इसकी चर्चा है। यह विधि भी व्याख्या से परे है और इसे साधन के रूप में ज्ञान पाने के लिये कैसे अपनाया जाये अथवा कौन छात्र इसका उपयोग करे म? आदि अस्पष्ट हैं। दूसरी ओर इस शताब्दी में मनोविज्ञान की खोजों ने अन्तर्दृष्टि (सूझ) पर नये ढंग से प्रकाश डाला है। जर्मनी के मनोवैज्ञानिकों, जैसे कोहलर द्वारा पशुओं पर किये गये प्रयोगों से सिद्ध हुआ कि किसी समस्या से जूझते हुये पशु अकस्मात् समस्या का हल प्राप्त कर लेता है, ऐसा प्रतीत होता है जब वह समस्या की सम्पूर्णता की जानकारी पा जाता है। बच्चों पर किये गये प्रयोग से भी वही निष्कर्ष निकला। इस प्रकार, अन्तर्दृष्टि के साधन की व्याख्या की जा सकती है और शिक्षा में इसका उपयोग करने से अच्छे लाभ मिल सकते हैं। 'अन्तर्दृष्टि' कोई प्रकाश नहीं, वरन् गम्भीर चिन्तन का परिणाम है। बड़े-बड़े वैज्ञानिकों और विद्वानों को अपनी समस्याओं से संघर्ष करने पर अन्तर्दृष्टि प्राप्त हुई। शिक्षा में बालकों की सृजनात्मक शक्ति के विकास में इससे सहायता मिल सकती है। पाठ-योजनाओं के बनाने में 'यूनिट ज्ञान' का इसी दृष्टि से उपयोग किया जाता है ताकि छात्र विषय की सम्पूर्णता का बोध कर सके। इन्द्रियातीत अनुभव की यह वैज्ञानिक व्याख्या शिक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
5. सत्ता
उच्च शिक्षितों द्वारा प्रदत्त ज्ञान (Knowledge imparted by Highly Talented Individuals)- – मनोविज्ञान ने अब यह सिद्ध कर दिया है कि मानव समाज में व्यक्तिगत भिन्नतायें हैं। कुछ मनुष्य अत्यन्त प्रतिभाशाली हैं, जिनकी संख्या बहुत कम होती है, वे ही ज्ञान के क्षेत्र में नई बातें जोड़ते हैं। इनके द्वारा दिये गया ज्ञान आर्ष या प्रतिभा ज्ञान कहलाता है। सामान्यजनों को उनके बताये गये सिद्धान्त या विचार स्वीकार कर लेने चाहिये। शिक्षा का समस्त पाठ्यक्रम इन महान व्यक्तियों द्वारा जीवन के अनुभवों को मथकर निकाले गये मक्खन से परिपूर्ण है। इस पर यदि विश्वास न करें तो शिक्षाक्रम ही समाप्त हो जावेगा। इन महान व्यक्तियों को 'सत्ता' (Authority) मानना ही चाहिये। इस साधन के उपयोग में भी यही कमी है कि हम उनके विचारों से इतना प्रभावित न हों कि हमारा स्वतन्त्र चिन्तन ही समाप्त हो जाये। हम इतने अन्धविश्वासी न हो जायें कि ज्ञान से विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाये।
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