9/30/2021

मनोसामाजिक सिद्धान्त, एरिक्सन

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ऐरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धान्त 

erikson ka manosamajik siddhant;ऐरिक्सन के सिद्धान्त के अनुसार पूरे जीवन भर विकास के आठ चरण क्रमानुसार चलते रहते हैं। प्रत्येक चरण में एक विशिष्ट विकासात्मक मानक होता है, जिसे पूरा करने में आने वाली समस्याओं का समाधान करना जरूरी होता है। ऐरिक्सन के अनुसार समस्या कोई संकट नहीं होती है, बल्कि संवेदनशीलता और सामर्थ्य को बढ़ाने वाला महत्त्वपूर्ण बिन्दु होती है। समस्या का व्यक्ति जितनी सफलता के साथ समाधान करता है, उसका उतना ही अधिक विकास होता है। 

1. विश्वास बनाम अविश्वास  

यह ऐरिक्सन का पहला मनोसामाजिक चरण है जिसका जीवन के पहले वर्ष में अनुभव किया जाता है। विश्वास के अनुभव के लिए शारीरिक आराम कम-से -कम डर, भविष्य के प्रति कम-से-कम चिन्ता जैसी भ्रान्तियों की आवश्यकता होती है। बचपन में विश्वास के अनुभव से संसार के बारे में अच्छे और सकारात्मक विचार जैसे संसार रहने के लिए एक अच्छी जगह है, आदि उम्रभर के लिए विकसित हो जाते हैं। 

2. स्वायत्ता बनाम शर्म 

ऐरिक्सन के द्वितीय विकासात्मक चरण में यह स्थिति शैशवास्था के उत्तरार्द्ध और बाल्यावस्था (1 से 3 वर्ष) के बीच होती है। अपने पालक के प्रति विश्वास होने के बाद बालक यह आविष्कार करता है कि बालक का व्यवहार उसका स्वयं का है। वह अपने आप में स्वतन्त्र और स्वायत्त है। उसे अपनी इच्छा का अनुभव होता है। अगर बालक पर अधिक बन्धन लगाया जाए या कठोर दण्ड दिया जाए तो उनके अन्दर शर्म और सन्देह की भावना विकसित होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

3. पहल बनाम अपराध बोध  

ऐरिक्सन के विकास का तीसरा चरण शाला जाने के प्रारम्भिक वर्ष के बीच होता है। एक प्रारम्भिक शैशव अवस्था की तुलना में और अधिक चुनौतियां झेलनी पड़ती हैं। इन चुनौतियों का सामना करने के लिए एक सक्रिय और प्रयोजन पूर्ण व्यवहार की आवश्यकता होती है। इस उम्र में बच्चों को उनके शरीर, उनके व्यवहार, उनके खिलौने और पालतू पशुओं के बारे में ध्यान देने को कहा जाता है। अगर बालक गैर जिम्मेदार है और उसे बार-बार व्यग्र किया जाए तो उसके अन्दर असहज अपराध बोध की भावना उत्पन्न हो सकती है। ऐरिक्सन का इस चरण के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण है। उनका यह मानना है कि अधिकांश अपराध बोध की भावना के प्रति तुरन्त पूर्ति ही उपलब्धि की भावना द्वारा की जा सकती है। 

4. परिश्रम उद्यम बनाम हीन भावना 

यह ऐरिक्सन का चौथा विकासात्मक चरण है जो कि बाल्यावस्था के मध्य में (प्रारम्भिक वर्षों में) परिलक्षित होता है। बालक द्वारा की गई पहल से वह नये अनुभवों के सम्पर्क में आता है और जैसे-जैसे वह बचपन के मध्य और अन्त तक पहुँचता है, तब तक वह अपनी ऊर्जा को बौद्धिक कौशल और ज्ञान से हासिल करने की दिशा में मोड़ देता है। बाल्यावस्था का अन्तिम चरण कल्पनाशीलता से भरा होता है। यह समय बालक के सीखने के प्रति जिज्ञासा का सबसे अच्छा समय होता है। इस आयु में बालक के अन्दर हीनभावना (अपने आपको अयोग्य और असमर्थ समझने की भावना) विकसित होने की सम्भावना रहती है। 

5. पहचान बनाम पहचान भ्रान्ति  

यह ऐरिक्सन का पांचवा विकासात्मक चरण है जिसका अनुभव किशोरावस्था के वर्षों में होता है। इस समय व्यक्ति को इन प्रश्नों का सामना करना पड़ता है कि वह कौन है? किससे सम्बन्धित है? और उनका जीवन कहाँ जा रहा है? किशोरों को बहुत सारी नई भूमिकाएँ और वयस्क स्थितियों का सामना करना पड़ता है, जैसे-- व्यावसायिक और रोमेटिक। उदाहरण के लिए, अभिभावकों को किशोरों की उन विभिन्न भूमिकाओं और एक ही भूमिका के विभिन्न भागों का पता लग सकता है, जिनका वह जीवन में पालन कर सकता है। यदि उसके सकारात्मक रास्ते पता लगाने का मौका न मिले तब पहचान भ्रान्ति की स्थिति हो जाती है। 

6. आत्मीयता बनाम अलगाव  

यह ऐरिक्सन का छठवाँ चरण है जिसका अनुभव युवावस्था के प्रारम्भिक वर्षों में होता है। यह व्यक्ति के पास दूसरों से आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करने का विकासात्मक मानक है। ऐरिक्सन ने आत्मीयता को परिभाषित करते हुए कहा है कि आत्मीयता का अर्थ है," स्वयं को खोजना, जिसमें स्वयं को किसी और (व्यक्ति में) खोजना पड़ता है। व्यक्ति की किसी के साथ स्वस्थ मित्रता विकसित हो जाती है और एक आत्मीय सम्बन्ध बन जाता है, तब उसके अन्दर आत्मीयता की भावना आ जाती है। यदि ऐसा नहीं होता है तो अलगाव की भावना उत्पन हो जाती है। 

7. उत्पादकता बनाम स्थिरता 

यह ऐरिक्सन का सातवाँ चरण है जो मध्य वयस्क अवस्था में अनुभव होता है। इस चरण का मुख्य उद्देश्य नई पीढ़ी को विकास में सहायता से सम्बन्धित होता है। ऐरिक्सन का उत्पादकता से यही अर्थ है कि नई पीढ़ी के लिए कुछ नहीं कर पाने की भावना से स्थिरता की भावना उत्पन्न होती है।

8. सम्पूर्णता बनाम निराशा 

यह ऐरिक्सन का आठवाँ और अन्तिम चरण है जो कि वृद्धावस्था में अनुभव होता है। इस चरण में व्यक्ति अपने अतीत को टुकड़ों में एक साथ याद करता है और एक सकारात्मक निष्कर्ष निकालता है या फिर बीते हुए जीवन के बारे में असन्तुष्टि भरी सोच बना लेता है। अलग-अलग प्रकार के वृद्ध लोगों की अपने बीते हुए जीवन के विभिन्न चरणों के बारे में एक सकारात्मक सोच विकसित होती है। अगर ऐसा होता है तो बीते जीवन का एक अच्छा चित्र (खाका) बन जाता है और व्यक्ति को भी एक तरह के सन्तोष का अनुभव होता है। सम्पूर्णता की भावना का अनुभव होता है। अगर बीते हुए जीवन के बारे में सकारात्मक विचार नहीं बन पाते हैं तो उदासी की भावना घर कर जाती है। इसे ऐरिक्सन ने निराशा का नाम दिया है। 

ऐरिक्सन का मानना है कि विभिन्न चरणों में आने वाली समस्याओं का उचित समाधान हमेशा सकारात्मक नहीं हो सकता है। कभी-कभी समस्या के ऋणात्मक पक्षों से परिचय भी अपरिहार्य (जरूरी) हो जाता है। उदाहरण के लिए, आप जीवन की हर स्थिति में सभी लोगों पर एक जैसा विश्वास नहीं कर सकते। फिर भी चरण में आने वाली विकासात्मक मानक की समस्या सकारात्मक समाधान से होती है। उसके बारे में सकारात्मक प्रतिबद्धता प्रभावी होती है।

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