अनुशासन का अर्थ
आधुनिक युग के पूर्व अनुशासन का अर्थ विद्यालय में कानून व व्यवस्था के प्रति आज्ञा-पालन की भावना उत्पन्न करने से लिया जाता था। इसके अन्तर्गत अधिकारियों की आज्ञा का पालन करना, नियमों का परिपालन करना और छात्रों को नियन्त्रण में रखना आदि आता था। इस प्रकार पहले बालकों को शक्ति के आधार पर नियन्त्रण में रखने का प्रयास किया जाता था, अब यह धारणा बदल गई है।
रघुनाथ सफाया के अनुसार," आज का शिक्षक पुलिस वाले अथवा कठोर स्वामी की भाँति व्यवहार न करके मित्र और निर्देशक के रूप में सम्मुख आता है। छात्रों के निजी व्यक्तित्व एवं स्वतन्त्रता को मान्यता प्राप्त हुई है ।.... अब छात्रों पर बाह्य दबाव की अपेक्षा आन्तरिक रूप में ही गुणों के उन्मेष के लिये बल डाला जाता है।"
रायबर्न के शब्दों में," अनुशासन का अर्थ है- मानसिक एवं नैतिक प्रशिक्षण को नियंत्रण में लाना। विद्यालय में अनुशासन का साधारण अर्थ है- कार्यों को करने में व्यवस्था एवं क्रमबद्धता, नियम तथा आज्ञाओं का पालन।"
आज अनुशासन का आधुनिक अर्थ आत्मानुशासन, आत्मसंयम, विवेकपूर्ण निर्णय तथा सदगुणों को ग्रहण करने से लगाया जाता है। इसमें उत्तरदायित्व, अधिकारियों के प्रति आदर, नियमों के प्रति स्नेह, अपने कर्तव्यों का उचित पालन तथा दूसरे के प्रति सहायक बनने की भावना सम्मिलित है।
रायबर्न के अनुसार," सच्चे अर्थों में, अनुशासन वह है जिसका विकास शनैः-शनैः आत्मनियन्त्रण एवं सहयोग की आदतें डालने के फलस्वरूप होता है, जो विद्यार्थी द्वारा इसलिये नहीं स्वीकृत होता अथवा जिसका पालन वह केवल इसलिये नहीं करता कि वह ऊपर से लादा गया है, वरन् इसलिये करता है कि वह स्वयं उसकी आवश्यकता और मूल्य को स्वीकार करता है।.... अच्छा अनुशासन तभी आ सकता है जब विद्यार्थी की इच्छित स्वीकृति प्राप्त हो, और जब वह स्वयं अपने से याचित बातों के औचित्य एवं आवश्यकता को स्वीकार करता हो।
संक्षेप में अनुशासन आत्मनियंत्रण व आत्मस्वीकृति का वह प्रतिफल है जो व्यक्ति स्वयं उसकी आवश्यकता को समझकर उसके मूल्यों को विवेकपूर्ण रूप में स्वीकार करता हैं और स्वतंत्र हुये कर्तव्यों के बंधन में बँधा रहता हैं।
अनुशासन का स्वरूप
विद्यालय में अनुशासन का अर्थ है कार्यों को करने में व्यवस्था एवं क्रमबद्धता, नियमा तथा आज्ञाओं का पालन करना। बाहरी दिखावे के स्वरूप से तो उस विद्यालय में अनुशासन अच्छा ही जाना जाता है जहाँ के छात्र कक्षा में आज्ञा पालक रहते हैं। छात्रावास व खेल के मैदान में किसी भी तरह की परेशानी नहीं पैदा करते और नैतिक के स्वरूप अपराधों से साफ बचकर निकल जाते हैं। फिर भी वास्तविक अनुशासन का निर्णय विधि और परिणाम भी केवल विद्यालय या छात्रावास में नहीं वरन् खेल के मैदान, सड़क पर, बाजार में और घर के सभी स्थानों पर देखना चाहिये। इस बात का निर्णय इस तथ्य को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये कि वयस्क छात्र विद्यालय छोड़कर दुनियादारी में प्रविष्ट होने पर कैसा नैतिक आचरण करते हैं। ये ही स्थान हैं जहाँ हम यह ज्ञात कर सकते हैं कि विद्यालय वास्तव में इस दिशा में अपना कार्य कर रहा है। अनुशासन दो तरह के हो सकते हैं- एक स्वरूप अनुशासन का वह है जिसमें सब कुछ भय बाहर तथा ऊपर से छात्र के ऊपर लादा जाता है? दूसरा स्वरूप अनुशासन का वह है जिसका विकास धीरे-धीरे आत्म नियन्त्रण और सहयोग की आदतें विकसित करने के फलस्वरूप होता है और जो छात्र केवल इसलिये स्वीकार नहीं करता कि यह ऊपर से थोपा हुआ है वरन् इसलिये करता है कि यह स्वयं उसकी आवश्यकता और मूल्य को स्वीकार करता है। इसी आधार पर कहा जाता है कि सच्चा अनुशासन तभी आ सकता है जब छात्र की इच्छित स्वीकृति प्राप्त हो और जब यह स्वयं अपने से याचित बातों के औचित्य एवं आवश्यकता को स्वीकार करता है। इस पर आत्मनियन्त्रण जो अनुशासन का प्रतिफल होता है। एक ऐसी आदत है जो जीवन में विद्यालय के बाहर और विद्यालय छोड़ देने के बाद भी दिखाई पड़ेगा। अनुशासन कायम करने के लिये भय का प्रयोग किया जाता है किन्तु सक्रिय रचनात्मक कार्य करने की इच्छा उत्पन्न करने के लिये इससे कोई लाभ नहीं है। इस प्रकार भय का प्रभाव नकारात्मक है न कि सकारात्मक। छात्रों में अच्छी नैतिक आदतों और सही मानसिक विकास की दृष्टि से यह बेकार है। भय बुरी आदतें पड़ने से बचा तो सकता है और यदि बुरी आदतें पड़ गई है तो उन्हें दूर करने में भी सहायक हो सकता है। इसलिये भय और भय से प्रभावित होने वाला दण्ड केवल नकारात्मक दिशा में ही दण्डात्मक होता है। अनुशासन के दण्डात्मक स्वरूप में शारीरिक दण्ड रूप में दिया जाने वाला फालतू कार्य, अर्थदण्ड कक्षा कार्य के अतिरिक्त दण्ड के रूप में दिया हुआ कार्य नैतिक दण्ड आदि प्रचलित है। विद्यालयों में अब इसे अमानवीय और अमनोवैज्ञानिक माना जाता है। इन सभी प्रकार के दण्डों के देने का मूल उद्देश्य सुधार होता है तथा इनकी सीमा सीमित और सुधारात्मक होती हैं।
छात्रों में अनुशासन की भावना को सशक्त बनाने के लिये यदि एक ओर अनुशासन का दण्डात्मक स्वरूप है तो दूसरी और पुरस्कार और पारितोषिक दिया जाने वाला स्वरूप भी हैं। पुरस्कार और पारितोषिक का उद्देश्य छात्रों मे उनकी रूचि को बढ़ाना तथा उत्तम कार्य एवं उत्तम व्यवहार की ओर लक्ष्य प्रदान करना हैं। पुरस्कार और पारितोषिक के छात्रों में पर्याप्त रूचि पैदा होती हैं। छात्रों में पुरस्कार और पारितोषिक पाने का लालच बना रहता है। इसके लिये वे स्वस्थ प्रतियोगिता मे भाग लेते हैं। विद्यालय में अनुशासनबद्ध रहकर उचित व्यवहार करते हैं। वैसे भौतिक पुरस्कारों एवं पारितोषिक के स्थान पर मौखिक सराहना, प्रशंसा और प्रमाण-पत्र देने की विधि सर्वोत्तम पारितोषिक है। इससे भी अनुशासन बनाये रखने में काफी सहायता मिलती हैं।
वर्तमान में अनुशासन के लोकतांत्रीय स्वरूप को अपनाने पर काफी बल दिया जाता हैं। इसे मनोवैज्ञानिक, सामयिक और वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल माना जाता हैं। विद्यालय में सकारात्मक और रचनात्मक अनुशासन के निर्माण करने के लिये और आत्म-नियन्त्रण की शिक्षा देने के लिये लोकतांत्रीय प्रणाली का सहारा लेना सबसे उत्तम मार्ग हैं। छात्र आत्म-नियन्त्रण का पाठ उसके विषय में दूसरों से सुनकर नही पढ़ते, अपितु अभ्यास करते-करते अपने आप ही उसे सीख लेते हैं। लोकतांत्रिक प्रणालो द्वारा उन्हें ऐसा करने का पर्याप्त अवसर मिलेगा और फिर अनुशासन का जो स्वरूप विकसित होगा, वह लोकतांत्रीय स्वरूप होगा। इस समिति और विद्यालय-समिति के रूप में कार्य करती हैं। यद्यपि अनुशासन के लोकतांत्रिक स्वरूप का विद्यालयों में प्रयोग किया जा रहा हैं किन्तु इसका उपयोग छोटे स्तर के विद्यालयों में सीमित मात्रा में ही संभव हैं, क्योंकि इससे अधिकारों के दुरूपयोग की संभावनायें अधिक होती हैं और शिक्षक-वर्ग भी ऐसी अनुशासन पद्धित को पसंद नहीं करता। समितियाँ प्रायः अपने दण्ड और पुरस्कार में त्रुटियाँ करती है जिसका विद्यालय अनुशासन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं।
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AKANSH
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