11/18/2021

सामाजिक अनुसंधान का क्षेत्र

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सामाजिक अनुसंधान का क्षेत्र 

सामाजिक अनुसंधान का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हैं। यदि यह कहा जाए कि सामाजिक शोध का क्षेत्र संपूर्ण समाज है तो शायद यह गलत नहीं होगा। यह बात अलग है कि समाछ के बारे में क्या और किस बात का अध्ययन किया जाता हैं, अध्ययन की प्रकृति क्या हैं और अध्ययन में कौन-सी प्रविधि व पद्धित अपनाई जा रही हैं आदि बाते बहुत तक इस पर निर्भर करती हैं कि अध्ययन किस विषय (डिसिप्लिन) के क्षेत्र में आता हैं। 

भौतिक विज्ञान भौतिक जगत के बारे में अध्ययन करते हैं। भौतिक जगत के अलग-अलग पक्ष हैं जिनके अध्ययन के लिए अलग-अलग भौतिक विज्ञान हैं। जीव विज्ञान जीव जगत के बारे में अध्ययन करते हैं। जीव जगत के विभिन्न पक्ष हैं जिनका अध्ययन विभिन्न जीव विज्ञान जैसे प्राणिशास्त्र, वनस्पति शास्त्र आदि करते हैं। यद्यपि भौतिक विज्ञान एवं जीव विज्ञान काफी विकसित है तथापि भौतिक जगत एवं जीव जगत के बारे में सभी बातें वैज्ञानिक अध्ययन के दायरे में अभी तक नही लाई जा सकी हैं। उसी प्रकार यह कहा जाए कि सामाजिक शोध का क्षेत्र संपूर्ण समाज है तो इसका अर्थ नहीं हैं कि समाज की प्रत्येक चीज शोद्देय है या शोध के दायरे में लाई जा सकती हैं। सामाजिक विज्ञान अपने-अपने क्षेत्र में अपनी-अपनी दृष्टि से समाज के बारे में शोध करते हैं किन्तु एक तो समाज की रचना एवं प्रकृति बहुत जटिल है तथा इसमें परिवर्तन भी बहुत अधिक व तेज होता है और दूसरे, सामाजिक विज्ञान अभी तुलनात्मक रूप से कम विकसित हैं इसलिए अभी तक समाज या सामाजिक जीवन का बहुत कम भाग ही शोध के दायरे में लाया जा सका हैं और जितना व जो कुछ भी शोध हुआ है वह सामान्यता भविष्य कथनात्मकता, विश्वसनीयता व वैधता की दृष्टि से बहुत निम्न स्तर पर हैं। 

समाज से वस्तुतः आशय सामाजिक व्यवस्था अर्थात् उसके संरचनात्मक ढाँचे व उसकी क्रियात्मकता से है। यह संरचनात्मक ढाँचा परस्पर संबद्ध विभिन्न उपसंरचनाओं, ढाँचों, संस्थाओं या तंत्रों जैसे आर्थिक,राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, विधिक एवं न्यायिक आदि से बना होता हैं। इनसे संबंधित तथ्यों का अध्ययन सामाजिक शोध के दायरे में आता हैं। सामाजिक व्यवस्था एवं उसकी उपव्यवस्थाओं, जैसे-- अर्थव्यवस्था, शासन व्यवस्था, धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था, विधि एवं न्याय व्यवस्था आदि में स्थायित्व, निरंतरता एवं परिवर्तन की प्रकृति, स्वरूप एवं दिशा आदि से संबंधित विषयों पर शोध कार्य सामाजिक विज्ञानों, जैसे-- समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा न्यायशास्त्र आदि में किया जाता हैं। चूँकि ये सभी विज्ञान एक-दूसरे से संबंधित हैं इसलिए इनके शोध क्षेत्र बहुत हद तक पारगम्य होते हैं। उनमें जलरूद्ध विभाजन न तो संभव है और न ही उचित है। हाँ, समाजशास्त्र यदि किसी (या किन्हीं) राजनैतिक या आर्थिक संस्था (ओं) या राजनैतिक व्यवहार (जैसे-- नेतृत्व, मतदान आदि) या आर्थिक क्रियाओं जैसे- उत्पादन, उपभोग आदि का अध्ययन करता है तो वह उसके विस्तार या गहराई में न जाकर केवल वहीं तक अपने शोध अध्ययन को सीमित रखता हैं जहाँ तक कि वह (या वे) सामाजिक तथ्य जिसका वह अध्ययन कर रहा हैं, से संबंधित है अथवा उसे प्रभावित करता हैं। जहाँ तक समाज-शास्त्रीय शोध के क्षेत्र का प्रश्न हैं, इसके अन्तर्गत मुख्यतया सामाजिक संगठन, सामाजिक व्यवस्था, सामाजिक संरचना (या संस्थायें) अर्थात् समाज के संगठनात्मक, संरचनात्मक एवं क्रियात्मक पक्षों, जैसे-- परिवार, नातेदारी, धर्म, गाँव, नगर, जाति, वर्ग, विवाह आदि तथा सामाजिक प्रक्रियायें, असमानता, भेदभाव, अंतर्विरोध, तनाव व संघर्ष, सामाजिक संस्तरण (जाति, वर्ग प्रणालियाँ), सामाजिक नियंत्रण एवं परिवर्तन से संबंधित विषयों पर तथा सामाजिक समस्याओं के बारे में शोध किया जाता हैं। वैसे समाजशास्त्रीय दृष्टि से ऐसे सामाजिक तथ्य जो प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक संरचना से संबंधित होते हैं अथवा जो प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक संरचना को प्रभावित करते है, से संबंधित शोध समाजशास्त्रीय अन्वेषण के केंद्रीय विषय-वस्तु (थीम) की रचना करते हैं, जैसे भारतीय संदर्भ में महिलाओं, दलितों व जनजातियों की स्थिति, उन्हें सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने संबंधी संरक्षणात्मक व वितरणात्मक संवैधानिक एवं वैधानिक प्रावधान, उनके सशक्तिकरण व विकास संबंधी कार्यक्रम से संबंधित विषय। यद्यपि अगस्त काॅम्ट, हर्बर्ट स्पेन्सर, इमाइल दुर्खीम से लेकर वर्तमान समय तक के मुख्यधारा के समाजविज्ञानी विशेष रूप से प्रत्यक्षवादी (पाजिटिविस्ट) तथा अनुभववादी (इम्पीरिसिस्ट) यह मानकर चलते हैं कि सामाजिक शोध का दायरा केवल उन्हीं सामाजिक तथ्यों या सामाजिक यथार्थ के केवल उन्हीं पक्षों के विश्लेषण तक सीमित है जो वैषयिक रूप से निरीक्षणीय व अनुभवजन्य (आब्जेक्टिवली आब्जरवेबुल एण्ड इम्पीरिकल) हैं और जिनका मूल्य निरपेक्ष (वैल्यू फ्री) अध्ययन संभव है तथापि आरंभिक समाज वैज्ञानिकों में मैक्स बेवर ने सामाजिक यथार्थ के अध्ययन में उसके वैयक्तिक पक्ष के अध्ययन को भी महत्वपूर्ण निरूपित किया और सामाजिक यथार्थ के निरीक्षणीय व आनुभविक ज्ञान की प्राप्ति के साथ उसके व्याख्यात्मक बोध (इंटप्रेटिव अंडरस्टैन्डिग) की प्राप्ति पर भी जोर दिया। सामाजिक यथार्थ के अध्ययन संबंधी इस विचारधारा को सी. राइट मिल, रावर्ट लिण्ड, आल्फ्रेड शूज, गारफिन्केल्स तथा पीटर वर्जन आदि ने आगे बढ़ाया। इन विद्वानों का मानना था कि प्रत्यक्षात्मक अध्ययन सामाजिक यथार्थ के केवल बाह्रा पक्ष, जो बहुत कुछ वैषयिक, मापनीय व तुलनीय होता हैं, का ही विवेचन करता है जिसका क्षेत्र बहुत सीमित हैं। सामाजिक यथार्थ का आंतरिक पक्ष, जो तुलनात्मक रूप से अधिक महत्वपूर्ण हैं, की प्रकृति गुणात्मक, विशिष्ट व वैयक्तिक होती हैं, का अध्ययन प्रत्यक्षात्मक उपागम से नही हो सकता। इनके अध्ययन में निरीक्षण की तुलना में अंतर्दृष्टि (इंट्यूशन), परानुभूति (इम्पैथ), संवेदनशीलता (सेन्सिटिविटी) अधिक महत्वपूर्ण हैं। इस प्रकार सामाजिक शोध के प्रत्यक्षवादी उपागम के विकल्प स्वरूप मानवकीय उपागम का विकास हुआ जिसके फलस्वरूप समाज वैज्ञानिक शोध में घटना विज्ञान (फेनोमेनोलाजी), नृजाति प्रणाली विज्ञान (एथनो मेथेडोलाजी), प्रतीकात्मक अंत:क्रियावाद (सिम्बालिक इन्ट्रेक्शनिज्म), आमूल परिवर्तनवादी समाजशास्त्र (रेडिकल सोशियोलाजी) तथा प्रतिवर्तात्मक (अथवा स्वसमावेशी) समाजशास्त्र (रिफ्लेक्सिव सोशियोलाजी) आदि का विकास हुआ।

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