तथ्य का अर्थ (tathya ka arth)
साधारण शब्दों मे तथ्य का अभिप्राय एक ऐसी वस्तु या घटना से लगाया जाता है जो पर्याप्त निश्चित होते है। तथ्य की सत्यता और निश्चितता के संबंध मे किसी प्रकार का संदेह नही होता है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुसार तथ्य के अंतर्गत वे सभी वस्तुयें आती है जिनका ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बोध हो सकता है। इसके अंतर्गत कोई मानसिक दशा, जिसका न किसी व्यक्ति को हो, आती है। उदाहरणार्थ यह कि किसी स्थान पर कुछ वस्तुयें एक निश्चित ढंग से व्यवस्थित है, एक तथ्य है। कुछ विद्वानों ने तथ्य की निम्नलिखित परिभाषाएं की है--
तथ्य की परिभाषा (tathya ki paribhasha)
वी. पी. यंग के अनुसार " तथ्य केवल मूर्त वस्तुओं तक ही सीमित नही है। सामाजिक अनुसंधान मे विचार, अनुभव तथा भावनाये भी तथ्य है। तथ्यों को ऐसे भौतिक या शारीरिक, मानसिक या उद्वेगात्मक घटनाओं के रूप मे देखा जाना चाहिए, जिनकी निश्चयात्मक रूप से पुष्टि की जा सकती है और जिन्हें सच कहकर स्वीकार जा सकता है।"
फेयरचाइल्ड के अनुसार " तथ्य किसी प्रदर्शित की गयी या प्रकाशित की जा सकने योग्य वास्तविकता का मद, पद या विषय है। यह एक घटना है जिसके निरीक्षणों एवं मापों के विषय मे बहुत अधिक सहमति पायी जाती है।"
गुडे एवं हाॅटे " तथ्य एक आनुभाविक सत्यापन योग्य अवलोकन है।"
दि कन्साइज ऑक्सफोर्ड शब्दकोष " तथ्य किसी कार्य,का घटित होना किसी घटना का घटित होना, अवश्यमेव घटित होना या सही मानने वाली बात, अनुभव वस्तु, सही या विद्यमान वास्तविकता है।"
थामस तथा जेनिकी " तथ्य अपने आप मे एक सार है। तथ्य को ग्रहण करके हम किसी प्रक्रिया विशेष के किसी एक निश्चित और सीमित पक्ष को उसकी असीमित जटिलता से पृथक कर देते है।"
प्रो. आर. एल. पाटनी " तथ्य का सामान्य अर्थ एक ऐसी घटना या वस्तु से होता है, जो पर्याप्त निश्चित होती है, जिसका स्वरूप स्पष्ट होता है और जिसकी सत्यता तथा निश्चतता के संबंध मे किसी प्रकार का संदेह नही होता है।"
तथ्य की परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है की तथ्य वास्तव मे कोई विद्यमान घटना, प्रक्रिया, कारक अथवा बात है जिसमे सच्चाई अवश्तमेव होती है तथा जिसे समझा जाना जा सकता है। कई तथ्यों मे अमूर्तता पायी जाती है, जिसके कारण उन्हें प्रत्यक्ष रूप से देखना संभव नही है। ऐसे तथ्यों को अनुभव किया जा सकता है अथवा इनके बारे मे सोचा जा सकता है। समाजशास्त्र मे इमाइल दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों का स्वयं अध्ययन किया तथा इनके अध्ययन पर बल दिया।
सामाजिक तथ्यों पर दुर्खीम के विचार
सामाजिक तथ्य कार्य करने, सोचने तथा अनुभव करने के ऐसे ढंग है जिनमे व्यक्तिगत चेतना से बाहर भी अस्तित्व बनाये रखने की उल्लेखनीय विशेषता होती है। इस प्रकार के विचार तथा व्यवहार व्यक्ति के बाहरी माप ही नही होते अपितु अपनी दबाव शक्ति के कारण व्यक्ति की इच्छा से स्वतंत्र वे अपने आपको उस पर लागू करते है। समाजशास्त्र की समस्याओं तथा तथ्य के संबंध मे सर्वप्रथम दुर्खीम ने अपने विचार प्रकट किये। उन्होंने कहा कि सामाजिक तथ्यों को वस्तु मानकर ही हम उनका वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक अध्ययन कर सकते है, उनकी खोज कर सकते है, उनके प्रकार्यों का ज्ञान कर सकते है तथा अंत मे अन्य विज्ञानों की तरह सामाजिक नियमों का निरूपण कर सकते है।
दुर्खीम के अनुसार " सामाजिक तथ्यों की श्रेणी मे कार्य करने, सोचने, अनुभव करने के ढंग सम्मिलित है जो व्यक्ति के लिए बाहरी होते है तथा जो अपनी शक्ति के माध्यम से व्यक्ति को नियंत्रित करते है।
दुर्खीम अनुसार " सामाजिक तथ्य मनुष्य द्वारा निर्मित नही होते। प्रत्येक समाज मे वे पहले से ही उपस्थित रहते है। व्यक्ति जब समाज मे अपने अस्तित्व के प्रति चेतन होता है तब वह अन्यों जैसा व्यवहार करने लगता है।
तथ्यों की विशेषताएं
1. तथ्य मे सत्यता अवश्य होती है।
2. एक तथ्य के संबंध मे प्रायः सभी अवलोकनकर्ताओं का एक ही विचार होता है।
3. सभी तथ्यों का प्रत्यक्ष रूप से अवलोकन नही किया जा सकता।
4. तथ्य वास्तव मे घटित होने वाली एक घटना, प्रक्रिया, कारक, वस्तु अवथा बात का होना है।
5. तथ्यों के अंतर्गत वे सभी बाते वस्तुयें आती है जिनका ज्ञानेन्द्रियों द्वारा बोध हो सकता है।
6. वैज्ञानिक अध्ययन के दृष्टिकोण से काम मे आने वाले तथ्य अर्थपूर्ण तथा महत्वपूर्ण होते है।
7. तथ्यों को जहाँ अनुभव द्वारा प्राप्त किया जा सकता है वहां दूसरी ओर यह महत्वपूर्ण होते है।
8. तथ्य मे सत्यता, यथार्थता विद्यमान होने की स्थिति का परीक्षण एवं पुनः परीक्षण अवश्य हो सकता है।
9. तथ्यों का प्रत्यक्ष रूप से अवलोकन संभव नही, लेकिन साथ ही यह भी जान लेना आवश्यक है कि उसके अस्तित्व के संबंध मे किसी न किसी प्रकार का अनुभव अवश्य होता है।
Tippaniyan koi bhi
जवाब देंहटाएंदुर्खिम की सामाजिक कार्यात्मकता पर प्रकाश डालिए
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