8/24/2023

नगरीय समाज की समस्याएं

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नगरीय समाज की प्रमुख समस्याएं 

nagariya samaj ki samasya;सभी समाजों में कुछ न कुछ सामाजिक समस्यायें हमेशा बनी ही रहती है, लेकिन उनके प्रति सामाजिक दृष्टिकोण तथा स्वयं उनकी प्रकृति में पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है। कुछ समस्याएँ बहुत गंभीर होती हैं तो कुछ सामान्य प्रकृति की। नगरीय समाज की प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैं-- 

1. गंदी बस्तियों एवं आवास की समस्या 

अनेक समस्याओं को नगर में उत्पन्न करने का श्रेय औद्योगीकरण और नागरीकरण  प्राप्त है। निर्धन ग्रामीण व्यक्ति अपनी जीविका की खोज में नगरों और विशेषतया औद्योगिक नगरों में बड़ी संख्या में आ रहा हैं। उसे पेट भरने के लिए यहाँ कोई न कोई रोजगार मिली ही जाता हैं, इसलिए वह गाँव को छोड़कर नगर में आ जाता हैं, लेकिन उसे रहने के लिए स्थान नही मिल पाता है। उसे इतना भी स्थान नहीं मिलता कि जहाँ वह खाना बना सके, रात में सो सके और अपना खाली समय व्यतीत कर सके। नगर में भूमि की कमी काफी अधिक होती हैं, इसलिए नगरों में भूमि का मूल काफी अधिक होता हैं। निर्धन श्रमिक और वेतनभोगी व्यक्ति की इतनी आय नही होती कि वह भूमि क्रय करके अपना भवन बना सके और यदि किसी प्रकार से उसने कोई टुकड़ा भूमि का खरीद भी लिया तो उस पर मकान बनाना उसकी शक्ति से बाहर होता है। प्रातः से संध्या तक वह अपने जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में लगा रहता है। न तो उसके पास धन है और न समय, जिससे कि वह अपना मकान बना सके। इसलिए वह झोपड़ी, कोठरी अथवा बाँस के छप्परों से कुटिया बनाकर रहता है। सैकड़ों मकान इस प्रकार से बनाकर श्रमिक नगरों में रहते है। यहाँ जीवन किसी भी प्रकार व्यतीत किया जा सकता है। आवास की सुविधाएँ नाम की कोई चीज यहाँ नही होती है। ये वे स्थान है जहाँ गंदगी चिरस्थाई है। ये नगर के नरक, कलंक और अभिशाप हैं। इस प्रकार नगर में भूमि की कमी अथवा इसका मंहगा होना, चाहे उसे खरीदने के लिए हो अथवा किराए पर रहने के लिए दोनों ही निर्धन श्रमिक और बेरोजगार व्यक्ति की क्षमता से बाहर की वस्तु है। अतः मनुष्य बाध्य होकर गंदी बस्तियों में रहता हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि करीब 1.75 करोड व्यक्ति गंदी बस्तियों में रहते हैं। 

2. वैयक्तिक विघटन की समस्या 

औद्योगीकरण ने नगरीकरण को जन्म दिया। औद्योगीकरण के विकास से आर्थिक विषमता में बहुत वृद्धि हुई है। इसके फलस्वरूप न केवल कुटीर उद्योग-धंधों और दस्तकारी के काम में लगे व्यक्ति बेरोजगार हो नए बल्कि उनमें से लाखों लोगों को कारखानों अथवा खेतों में श्रमिकों के रूप में काम करना आवश्यक हो गया हैं। यह स्थिति व्यक्तियों के मानसिक संतुलन को बिगाड़कर तथा उनके सामने आर्थित कठिनाइयाँ उत्पन्न करके वैयक्तिक विघटन को प्रोत्साहन देती है। औद्योगीकरण के कारण व्यापारिक उतार-चढ़ाव, में वृद्धि होने से आज का उद्योगपति कुछ ही समय में दिवालिया हो सकता है। ऐसे व्यक्तियों का वैयक्तिक विघटन हो जाना बहुत स्वाभाविक हैं। इसके अतिरिक्त कारखानों में हड़तालों, तालाबंदियों और औद्योगिक विवादों के कारण भी बहुत से व्यक्ति मजदूरी पाने से वंचित रह जाते हैं। यह स्थिति भी वैयक्तिक विघटन में वृद्धि करती हैं। 

3. भिक्षावृत्ति की समस्या 

नगरों में भिक्षावृत्ति की समस्या भी महत्वपूर्ण है। वैयक्तिक विघटन के रूप में भिक्षावृत्ति व्यक्ति की अपने पर्यावरण से अभियोजन करने में पूर्णतया असफलता की ओर संकेत करती है, जबकि इस समस्या को सामाजिक विघटन का लक्षण इसलिए माना जाता है कि सड़कों पर सैकड़ों हजारों की संख्या में भिखारियों को देखकर कोई भी व्यक्ति सरलतापूर्वक यह अनुमान लगा सकता हैं कि वह समाज कितना असंतुलित, अव्यवस्थिति तथा नियमहीन है। संभवतः इसीलिए ए.एम. विश्वास ने कहा है कि," किसी भी स्थान अथवा नगर की सामाजिक स्थिति का सबसे अच्छा मूल्यांकन हम वहाँ घूमने वाले भिखारियों की संख्या के आधार पर कर सकते हैं।" भारत में आज भी ऐसे व्यक्तियों की संख्या बहुत अधिक है, जो धार्मिक अंधविश्वासों तथा कुरीतियों के आधार पर भिक्षावृत्ति को एक समस्या के रूप में नही देखते, बल्कि दान और सहायता के संदर्भ में अक्सर इसकी उपयोगिता का ही बखाना करते हैं। ऐसे व्यक्ति यह भूल जाते है कि भिक्षावृत्ति के कारण आज हमारे देश में लाखों स्त्रियों और बच्चों को कितना अमानवीय, तिरस्कृत और घृमास्पद जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है, वे यह भूल जाते है कि भिक्षावृत्ति की समस्या किस प्रकार आज बच्चों के अपहरण, आर्थिक अपराधों तथा अनैतिक व्यापार की समस्या को प्रोत्साहन दे रही है। उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहता कि भिक्षावृत्ति किस प्रकार देश के लाखों लोगों को अनुपयोगी और अनुत्पादक बनाकर हमारी अर्थ-व्यवस्था के सामने गंभीर खतरा उत्पन्न कर रही हैं। यदि इन खतरों के संदर्भ में भिक्षावृत्ति का मूल्यांकन किया जाए तो यह एक गंभीर सामाजिक आर्थिक समस्या सिद्ध हो जाती हैं। 

4. वेश्यावृत्ति 

आधुनिक नगरों में स्त्री-पुरूषों के यौन संबंधों में तीव्रता से स्वतंत्रता आ रही है। आज यौन संबंधों को बुरा नही माना जाता है। नवयुवक, नवयुवतियाँ स्वतंत्र रूप से यौन संबंध रखना चाहते है। यह वेश्यावृत्ति का आधुनिक स्वरूप है, जो भौतिकवादी सभ्यता और संस्कृति से जन्मा है। इस सभ्यता में धन का अधिक महत्व हैं। जो धनवान है, समाज उसी का सम्मान करता है। इसका परिणाम यह हुआ कि आज वे स्त्रियाँ जो काफी शिक्षित है, इस व्यवसाय को शिक्षित एवं सभ्य ढंग से करती है, क्योंकि वे व्यावसायिक रूप से कोठे पर नहीं बैठती हैं, वरन् कुछ समय के लिए विशेष स्थान जैसे बड़े-बड़े होटल, रेस्तराँ अथवा गुप्त स्थान पर मिलती हैं और अपने ग्राहकों से रूपये अथवा मनचाहा उपहार लेती हैं।

5. बाल अपराध की समस्या

एक तरफ विश्व के कई देश लगातार उन्नति तथा प्रगति कर रहे है, तो दूसरी तरफ बाल अपराधियों मे तीव्रता से वृद्धि हो रही है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि आज संसार मे व्यक्ति पहले की बजाय कही ज्यादा धनी तथा शिक्षति है। वह सामाजिक समस्याओं के समाधान हेतु करोड़ों रूपये व्यय कर सकता है। अपने बच्चों को ऊंची से ऊंची शिक्षा देने का प्रयत्न ही नही करता है, बल्कि उन्हें हर तरह की सुविधा देने का प्रयास करता है, जिससे कि वह उन्नति कर सके। पर इतनी सुविधाओं तथा प्रयत्नों के बाद भी बाल अपराधियों की संख्या मे वृद्धि हो रही है। इनकी बढ़ती हुई संख्या को देखकर समाजशास्त्री समाज सुधारक तथा राज्य सरकारें चिंतित व दुःखी है। 

वैज्ञानिक और मशीनी युग की विशेषताओं ने समाज के परंपरागत मूल्यों, विश्वासों, स्थितियों, भूमिकाओं को ही नही वरन् सामाजिक व्यवस्था, संगठन एवं ढाँचे को भी परिवर्तित कर दिया है। मानवीय जीवन से संबंधित अनेक वस्तुओं और संबंधों के ताने-बाने को भी विश्रृखंलित कर दिया है। मानवीय जीवन से संबंधित अनेक वस्तुओं और संबंधों के ताने-बाने विश्रृखंलित होकर विघटित हो गए है। बाल अपराध की समस्या कृषि प्रधान और अर्द्ध विकसित देशों की अपेक्षा उन देशों में अधिक गंभीर हो गई है, जो औद्योगिक क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति कर गए हैं। औद्योगिक क्षेत्र में जहाँ आर्थिक ढाँचे में प्रगति हो रही है, वहाँ नगरीयकरण की प्रक्रिया में वृद्धि हो रही है। सामाजिक आर्थिक मूल्यों में नगरीकरण के प्रभाव से परिवर्तन हो रहा हैं। इन परिवर्तनों से नगरों में बाल अपराधियों में वृद्धि हो रही हैं। 

6. निर्धनता की समस्या 

निर्धनता एक सामाजिक आर्थिक समस्या है। यह एक आर्थिक समस्या इसलिए हैं, क्योंकि आर्थिक अभाव ही निर्धनता को को जन्म देता है, जबकि यह एक सामाजिक समस्या इसलिए है, क्योंकि इससे उत्पन्न दशाएँ सामाजिक जीवन को सबसे अधिक प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हैं। कुछ व्यक्तियों की निम्न आर्थिक स्थिति निर्धनता की समस्या को उत्पन्न नहीं करती, बल्कि किसी समाज में व्यक्तियों का बहुत बड़ा भाग जब सभी प्रकार के प्रयत्न करने के बाद भी जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने में असफल रहता है, तभी इस स्थिति को हम 'निर्धनता' के नाम से संबोधित करते है। आज नगरों में निर्धनता की समस्या गंभीर रूप धारण किए हुए हैं।

7. मद्यपान 

हमारी भारतीय संस्कृति में मद्यपान को कभी भी उचित नही माना गया है। प्रचानी भारत में भी मद्यपान का प्रचलन था लेकिन अंग्रेजों के आगमन के पश्चात शराब (मद्यपान) का प्रचलन समाज में और अधिक बढ़ता चला गया। अंग्रेजों ने शराब को अपने आर्थिक लाभ का माध्यम बनाया। 

शराब (मद्यपान) एक ऐसी बुरी आदत है जिसकी वजह से शराब पीने वाले व्यक्ति के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है और इस आदत से उस व्यक्ति का पूरा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। अत्यधिक मद्यपान से स्मरण-शक्ति समाप्त हो जाती है और अपनी इच्छाओं का दमन करने की योग्यता समाप्त हो जाती है। शराब पीने वाला व्यक्ति दूसरों के हाथों का खिलौना बन जाता है।

नगरों में कलारियों (शराब गृहों) की बढ़ती हुई संख्या स्वयं वहाँ शाम और रात को होने वाली भीड़, जहरीली शराब के पीने से हुई मौतों और शराब पीकर किए अपराधों से बहुत आसानी से यह अनुमान लगाया जा सकता हैं कि मद्यपान की समस्या हमारे नगरों में गंभीर रूप धारण कर चुकी हैं।

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