8/18/2023

सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत

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सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत 

samajik parivartan ke siddhant; सामाजिक संबंध, सामाजिक संरचना तथा कार्यों में जो परिवर्तन होतें है, उसे सामाजिक परिवर्तन कहा जाता हैं। समाज में परिवर्तन की यह प्रक्रिया लगातार गतिशील रहती हैं। इसके कारण समाज में कई प्रकार के परिवर्तन होते रहते हैं। मौलिक प्रश्न यह है कि समाज में परिवर्तन क्यों होते हैं? ऐसी कौन-सी परिस्थतियाँ है जो समाज में परिवर्तन उपस्थित करती हैं? परिवर्तनों के कारणों के संबंध में विद्वान एकमत नहीं है। इस संबंध में विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के विचारों का प्रतिपादन किया है। विद्वानों ने परिवर्तन के संबंध में जिन विचारों का प्रतिपादन किया हैं, उन्हें सामाजिक परिवर्तन के सिद्धांत के नाम से जाना जाता हैं। सामाजिक परिवर्तन यह सिद्धांत निम्नलिखित हैं--

1. सामाजिक परिवर्तन का चक्रीय सिद्धांत 

जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट होता है यह परिवर्तन चक्र की भाँति होता है। इस परिवर्तन में पुनरावृत्ति का महत्व है, अर्थात् परिवर्तन में पुरानी घटनाओं की पुनरावृत्ति होती है। उदाहरण के लिए, भारतीय दर्शन में कर्म का सिद्धांत। व्यक्ति जैसे कर्म करता है, उसी तरह कर्मों का उसे फल मिलता है और इस फल का वह भोग करता हैं। फिर जिस तरह से कर्मों का फल भोगता है उसी के अनुसार पुनःकर्म बनता है। अर्थात् कर्म एवं फल चक्र की भाँति चलते रहते हैं-- कर्म, भोग और पुनः कर्म। 

चक्रिक परिवर्तन को दो भागों में बाँटा जा सकता हैं-- 

(अ) पूर्ण चक्र 

पूर्ण चक्र का तात्पर्य यह है कि परिवर्तन एक बिन्दु अथवा स्तर से चलता हुआ अनेक स्तरों को पार करता हुआ फिर उसी स्तर पर आ जाता है। अर्थात् परिवर्तन एक चक्र की भाँति चलता है, जैसे-- सर्दी, गर्मी, बरसात तथा बसन्त ऋतुओं में परिवर्तन होता है, पर वह परिवर्तन एक क्रम के अनुसार होता है, एक व्यवस्था के अनुसार होता है। गर्मी के बाद बरसात ही आयेगी। गर्मी के बाद सर्दी नहीं आ सकती।

(आ) अर्द्ध चक्र 

यह परिवर्तन घड़ी के पैण्डूलम की भाँति होता है। इसमें परिवर्तन एक स्तर के बाद फिर उसी स्तर पर आ जाता है तथा इस स्तर के बाद पुनः दूसरे स्तर पर आ जाना, उदाहरण के लिए रात के बाद दिन और दिन के बाद पुनः रात्रि। 

चक्रीय सिद्धांतकारों में स्पेंग्लर, टाॅयनबी, पैरेटों, एवं सोरोकिन प्रमुख हैं। यहाँ हम उनके सिद्धांतों का उल्लेख कर रहे हैं--

1. सोरोकिन का सिद्धांत (Sorokin's theory)

सामाजिक परिवर्तन के संबंध में सोरोकिन ने संस्कृति में उतार-चढ़ाव को सामाजिक परिवर्तन का कारण माना। सोरोकिन के अनुसार संस्कृति के तीन स्वरूप हैं-- आदर्शात्मक, इन्द्रियपरक और भावनात्मक। परिवर्तन का आधार हमारी चेतना हैं। आदर्शात्मक संस्कृति का संबंध आध्यात्मिक विचार या भावना से हैं। जिस समाज में इस संस्कृति की प्रधानता होगी वहाँ धर्म, दर्शन, ज्ञान, कला, साहित्य इत्यादि का विकास होगा और सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उच्च आदर्श एवं मूल्य प्रभावी होंगे। इन्द्रियपरक संस्कृति का संबंध भौतिक सुखों की वृद्धि से है। जिस समाज में संस्कृति का यह स्वरूप विद्यमान होगा उस समाज के मूल्य वैज्ञानिक ज्ञान में वृद्धि, अधिक धन कमाना, अधिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त करना होगा। भावनात्मक संस्कृति उक्त दोनों तरह की संस्कृतियों का मिला-जुला रूप है। जब समाज की संस्कृति इन्द्रियपरक से आदर्शात्मक या आदर्शात्मक से इन्द्रियपरक की ओर बढ़ती है तब कुछ समय तक भावनात्मक संस्कृति समाज में प्रभावी होती है। ऐसी संस्कृति में भौतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का अच्छा समन्वय होता है। प्रत्येक समाज में संस्कृतियों का यह उतार-चढ़ाव चलता रहता है जो सामाजिक परिवर्तन को जन्म देता है।

2. स्पेंग्लर का सिद्धान्त (spengler's theory)

सामाजिक परिवर्तन के बारे में जर्मन विद्वान ओस्वाल्ड स्पेंग्लर ने 1918 में अपनी पुस्तक "The Decline of the West' में अपना चक्रीय सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इस पुस्तक में उन्होंने सामाजिक परिवर्तन के उद्विकासीय सिद्धान्तों की आलोचना की और कहा कि परिवर्तन कभी भी एक सीधी रेखा (straight line) में नहीं होता है। स्पेंग्लर का मत है कि समाजिक परिवर्तन का एक चक्र चलता है, हम जहाँ से प्रारम्भ होते हैं, घूम-फिरकर पुन: वहीं पहुँच जाते हैं। जैसे- मनुष्य जन्म लेता है, युवा होता है, वृद्ध होता है और मर जाता है तथा फिर जन्म लेता है। यही चक्र मानव समाज एवं सभ्यताओं में भी पाया जाता है। मानव की सभ्यता एवं संस्कृति भी उत्थान और पतन, निर्माण और विनाश के चक्र से गुजरती हैं। वे भी मानव शरीर की तरह जन्म, विकास और मृत्यु को प्राप्त होती हैं। अपनी बात को सिद्ध करने के लिए उन्होंने विश्व की आठ सभ्यताओं (अरब, मिस्त्र, मेजियन, माया, रूसी एवं पश्चिमी संस्कृतियों, आदि) का उल्लेख किया और उनके उत्थान एवं पतन को दर्शाया। स्पेंग्लर ने पश्चिमी सभ्यता के बारे में कहा कि यह अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गयी है। उद्योग एवं विज्ञान के क्षेत्र में उसने अभूतपूर्व प्रगति की है, किन्तु अब वह धीर-धीरे क्षीणता एवं स्थिरता की स्थिति में पहुँच रही है, अतः इसका विनाश अवश्यम्भावी है। उन्होंने जर्मन संस्कृति के बारे में भी ऐसे ही विचार प्रकट किये और कहा कि यह भी अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी है और अब इसका पतन निकट है।

उनका मत है कि भविष्य में, पश्चिमी समाजों का आज जो दबदबा है, समाप्त हो जायेगा और उनकी सम्पन्नता एवं शक्ति नष्ट हो जायेगी। आपने कहा कि दूसरी ओर एशिया के देश जो अब तक पिछड़े हुए थे, कमजोर एवं सुस्त थे, अपनी आर्थिक एवं सैनिक शक्ति के कारण प्रगति एवं निर्माण के पथ पर बढ़ेंगे। वे पश्चिमी समाजों के लिए एक चुनौती बन जायेंगे। इस प्रकार पश्चिम एवं एशिया के समाजों के उदाहरणों द्वारा स्पेंग्लर ने सामाजिक परिवर्तन की चक्रीय प्रवृति को स्पष्ट किया है।

समालोचना  

स्पेंग्लर के इस सिद्धान्त ने बहुत समय तक लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया, किन्तु इसे पूरी तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। स्पेंग्लर ने संस्कृति एवं सभ्यता की तुलना सावयव से की है जिसे आज कोई स्वीकार नहीं करता। आपने ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़कर अपने पक्ष की पुष्टि की तथा काल्पनिक आधार पर युद्धों से पश्चिमी समाज के विनाश की घोषणा की। स्पेंग्लर ने यह भी नहीं बताया कि किसी सभ्यता, समाज व संस्कृति का अन्तिम बिन्दु कौन-सा है जिसके बाद हास प्रारम्भ हो जाता है। आपका यह कहना भी कि पश्चिमी समाज विकास के चरम स्वरूप को प्राप्त कर चुका है, त्रुटिपूर्ण है क्योकि अब भी उसके विकास का कार्य जारी है। स्पेंग्लर के सिद्धान्तों को हम पूर्णत: वैज्ञानिक नहीं मान सकते। उनके सिद्धान्त से उनका निराशावाद प्रकट होता है।

3. टॉयनबी का सिद्धान्त (Theory of Toynbee)

अर्नाल्ड जे. टॉयनबी एक अँग्रेज इतिहासकार थे। उन्होंने विश्व की 21 सभ्यताओं का अध्ययन किया तथा अपनी पुस्तक 'A Study of history' में सामाजिक परिवर्तन का अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया। विभिन्न सभ्यताओं का अध्ययन करके आपने सभ्यताओं के विकास का एक सामन्य प्रतिमान ढूँढ़ा और सिद्धान्त का निर्माण किया। टॉयनबी के सिद्धान्त को 'चुनौती एवं प्रत्युत्तर का सिद्धान्त' (Challenge and Response Theory of Social Change) भी कहते हैं। वे कहते हैं कि प्रत्येक सभ्यता को प्रारम्भ में प्रकृति एवं मानव द्वारा चुनौती दी जाती है। इस चुनौती का सामना करने के लिए व्यक्ति को अनुकूलन की आवश्यकता होती है, व्यक्ति इस चुनौती के प्रत्युत्तर में भी सभ्यता व संस्कृति का निर्माण करता है। इसके बाद भौगोलिक चुनौतियों के स्थान पर सामाजिक चुनौतियाँ दी जाती हैं। ये चुनौतियाँ समाज की भीतरी समस्याओं के रूप में अथवा बाहरी समाजों द्वारा दी जाती हैं। जो समाज इन चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक कर लेता है, वह जीवित रहता है और जो ऐसा नहीं कर सकता, नष्ट हो जाता है। इस प्रकार एक समाज निर्माण एवं विनाश तथा संगठन एवं विघटन के दौर से गुजरता है।

सिन्धु व नील नदी की घाटियों में ऐसा ही हुआ है। प्राकृतिक पर्यावरण ने वहाँ के लोगों को चुनौती दी जिसका प्रत्युत्तर उन्होंने निर्माण के द्वारा दिया। सिन्धु व मिस्र की सभ्यताएँ भी इसी प्रकार विकसित हुई। गंगा व वोल्गा नदी ने भी ऐसी चुनौती दी, किन्तु इसका समुचित प्रत्युत्तर वहाँ के लोगों ने नहीं दिया। अतः वहाँ सभ्यताएँ नहीं पनपीं। समालोचना

टॉयनबी का सिद्धान्त वैज्ञानिकता से दूर एक दार्शनिकता सिद्धान्त प्रतीत होता है, किन्तु टॉयनबी स्पेंग्लर की तुलना में अधिक आशावादी हैं। उन्होंने परिवर्तन की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने का प्रयास किया। 

4. पैरेटो का सिद्धान्त (Theory of Pareto)

विल्फ्रेड पैरेटो ने सामाजिक परिवर्तन का चक्रीय सिद्धान्त जिसे अभिजात वर्ग के परिभ्रमण का सिद्धान्त (Theory of Circulation of Elites) कहते हैं का प्रतिपादन अपनी पुस्तक 'Mind and Society' में किया। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन को वर्ग व्यवस्था में होने वाले चक्रीय परिवर्तनों के आधार पर समझाया है। उनका मत है कि प्रत्येक समाज में हमें दो वर्ग दिखायी देते हैं: उच्च या अभिजात वर्ग तथा निम्न वर्ग। ये दोनों वर्ग स्थिर नहीं हैं वरन् इनमें परिवर्तन का चक्रीय क्रम पाया जाता है। निम्न वर्ग के व्यक्ति अपने गुणों एवं कुशलता में वृद्धि करके अभिजात वर्ग ( Elite class ) में सम्मिलित हो जाते हैं। अभिजात वर्ग के लोगों की कुशलता एवं योग्यता में धीरे-धीरे ह्रास होने लगता है और वे अपने गुणों को खो देते हैं तथा भ्रष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार वे निम्न वर्ग की ओर बढ़ते हैं। उच्च या अभिजात वर्ग में उनके रिक्त स्थान को भरने के लिए निम्न वर्ग में जो व्यक्ति बुद्धिमान, चरित्रवान, कुशल, योग्य एवं साहसी होते हैं, ऊपर की ओर जाते हैं। इस प्रकार उच्च वर्ग से निम्न वर्ग में तथा निम्न वर्ग से उच्च वर्ग में जाने की प्रक्रिया चलती रहती है। इस चक्रीय गति के कारण सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन आ सकता है। चूँकि यह परिवर्तन एक चक्रीय गति में होता है, इसलिए इसे सामाजिक परिवर्तन का 'चक्रीय' अथवा "अभिजात वर्ग के परिभ्रमण का सिद्धान्त' कहते हैं। पैरेटो ने सामाजिक परिवर्तन के चक्रीय सिद्धान्त का उल्लेख राजनीतिक, आर्थिक एवं आदर्शात्मक तीनों क्षेत्रों में किया है।

(अ) राजनीतिक क्षेत्र

राजनीतिक क्षेत्र में हमें दो प्रकार के व्याक्ति दिखायी देते हैं- शेर तथा लोमड़ियाँ 'शेर' लोगों का आदर्शवादी लक्ष्यों में दृढ़ विश्वास होता है जिन्हें प्राप्त करने के लिए वे शक्ति का सहारा लेते हैं और 'शेर' वे लोग हैं जो सत्ता में होते हैं। चूँकि 'शेर' लोग शक्ति का प्रयोग करते हैं, अतः समाज में भयंकर प्रतिक्रिया हो सकती है, अतः वे कूटनीति का सहारा लेते हैं और शेर से अपने को 'लोमड़ियों' में बदल देते हैं तथा लोमड़ियों की तरह चालाकी से शासन चलाते हैं एवं सत्ता में बने रहते हैं, किन्तु निम्न वर्ग में भी कुछ लोमड़ियाँ होती हैं जो सत्ता को हथियाने की फिराक में होती हैं। एक समय ऐसा आता है कि उच्च वर्ग की लोमड़ियों से सत्ता निम्न वर्ग की लोमड़ियों के हाथ में आ जाती है। ऐसी स्थिति में सत्ता परिवर्तन के कारण राजनीतिक व्यवस्था एवं संगठन में भी परिवर्तन आता है। पैरेटो का मत है कि सभी समाजों में शासन के लिए तर्क के स्थान पर शक्ति का प्रयोग अधिक होता है। शासन करने वाले लोगों में जब बल का प्रयोग करने की इच्छा व शक्ति कमजोर हो जाती है तब वे शक्ति के स्थान पर लोमड़ियों की तरह चालाकी से काम लेते हैं। शासित वर्ग की लोमड़ियाँ उनसे अधिक चतुर होती हैं, अतः वे उच्च वर्ग की लोमड़ियों से सत्ता छीन लेती हैं। अत: जब शासक बदलते हैं एवं सत्ता परिवर्तन होती है तो समाज में भी परिवर्तन आता है।

(ब) आर्थिक क्षेत्र

आर्थिक क्षेत्र में पैरेटो ने दो वर्गों सट्टेबाज ( Speculators) तथा निश्चित आय वर्ग (Rentiers) का उल्लेख किया है। पहले वर्ग के लोगों की आय अनिश्चित होती है- कभी कम तथा कभी ज्यादा। इस वर्ग के लोग बुद्धि के द्वारा धन कमाते हैं। इसके विपरीत, दूसरे वर्ग की आय निश्चित होती है। प्रथम वर्ग के लोग आविष्कारक, उद्योगपति एवं कुशल व्यवसायी होते हैं, किन्तु इस वर्ग के लोग अपने हितों की रक्षा के लिए शक्ति एवं चालाकी का प्रयोग करते हैं, भ्रष्ट तरीके अपनाते हैं। इस कारण उनका पतन हो जाता है और उनका स्थान दूसरे वर्ग के ऐसे लोग ले लेते हैं जो ईमानदार होते हैं। इस वर्ग में परिवर्तन के साथ-साथ समाज की अर्थव्यवस्था में भी परिवर्तन आता है।

(स) आदर्शात्मक क्षेत्र

आदर्शात्मक क्षेत्र में भी दो प्रकार के व्यक्ति पाये जाते हैं- विश्वासवादी एवं अविश्वासी। कभी समाज में विश्वास - वादियों का प्रभुत्व होता है, किन्तु जब वे रूढ़िवादी हो जाते हैं तो उनका पतन हो जाता है और उनका स्थान दूसरे वर्ग के लोग ले लेते हैं।

समालोचना

पैरेटो ने अपने चक्रीय सिद्धान्त को व्यवस्थित एवं बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है फिर भी आप उन कारणों को स्पष्ट करने में असमर्थ रहे हैं जो वर्गों की स्थिति को परिवर्तित करते हैं।

सामाजिक परिवर्तन का रेखीय सिद्धांत 

सामाजिक परिवर्तन के रेखीय सिद्धान्तकार उद्विकासवादियों से प्रभावित थे। वे इस मत को नहीं मानते कि परिवर्तन चक्रीय गति से होता है वरन् उनका मत है कि परिवर्तन सदैव एक सीधी रेखा में नीचे से ऊपर की ओर विभिन्न चरणों में होता है। रेखीय सिद्धांत के प्रतिपादकों में अगस्त काम्ट, हरबर्ट स्पेंसर, एल. टी. हाब हाउस तथा कार्ल मार्क्स के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके सिद्धांत की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह सामाजिक परिवर्तन को एक निश्चित पूर्व निर्धारित अनुक्रम में देखते हैं। इनका सिद्धांत परिवर्तन के नियमों की खोज देशकाल को निरनेक्ष मानकर करता हैं। अर्थात् सभी देशकाल स्थितियों में परिवर्तन समाज की क्रमिक अवस्थाओं को दर्शाता है और इस रूप में उन्होंने उन सभी ऐतिहासिक प्रक्रियाओं अपनी नियम रचनाओं का आधार बनाया जो सर्वकालीन तथा सार्वभौमिक रूप से कुछ क्रमिक अवस्थाओं को दर्शाती है। यह सिद्धांत सहज से जटिल, समरूप से विषयरूप, अस्फुट से स्फुट तथा निम्न से उन्नत अवस्थाओं के एक विकास अनुक्रम को एक रेखा बद्ध रूप में दर्शाता है इसे विकासवादी सिद्धांत भी कहा जाता हैं। रेखीय सिद्धांतकारों के विचारों को हम एक-एक करके इस प्रकार अभिव्यक्त कर सकते हैं--

1. अगस्त काम्टे का सिद्धांत (theory of august comte)

अगस्त काम्ट ने सामाजिक परिवर्तन को समझाने के लिए 'तीन स्तर के नियम' का प्रतिपादन किया। इस नियम के अनुसार अगस्त काम्ट का मानना था कि," हमारे ज्ञान की प्रत्येक शाखा और समाज का बौद्धिक विकास एक के बाद एक तीन अवस्थाओं से होकर गुजरता हैं।" 

1. धर्मशास्त्रीय या काल्पनिक अवस्था। 

2. तात्विक या अमूर्त अवस्था। 

3. प्रत्यक्षात्मक या वैज्ञानिक अवस्था। 

अगस्त काम्टे ने प्रत्येक अवस्था और सामाजिक संगठन के स्वरुप में घनिष्ठ संबंध को स्पष्ट किया। प्रथम अवस्था में प्रत्येक घटना की व्याख्या धार्मिक अथवा अलौकिक शक्तियों के प्रभाव के आधार पर की जाती है और इसी आधार पर समाज को समझने का प्रयास किया जाता हैं। जैसे-- राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। समाज की इकाई परिवार, धार्मिक कर्मकाण्डों को संपादित करने वाले व्यक्तियों, सैनिकों को प्रमुख स्थान प्राप्त होता है। द्वितीय अवस्था में सामाजिक इकाई के रूप में राजनीतिक प्रभुत्व चर्च अधिकारियों और विधि विशेषज्ञों के पाया गया। तृतीय स्तर पर वैज्ञानिक स्तर में निरीक्षण-परीक्षण व अवलोकन के आधार पर समाज की घटनाओं को समझने का प्रयास किया जाने लगा। इस अवस्था मे विज्ञान और उद्योग से संबंधित प्रशासकों का प्रभुत्व स्थापित होता गया हैं। यह प्रगति परिवार से राज्य और फिर राज्य से विश्व समुदाय में परिवर्तन को स्पष्ट करती हैं।

आलोचना 

आलोचकों का कथन है कि काम्ट का विचार व्यावहारिक नहीं है। उनका कहना है कि समाज तर्क के स्थान पर परम्परा और प्रथाओं द्वारा नियंत्रित होता हैं। व्यक्ति भावुक होता है। वह भावुकता से अधिक प्रभावित होता है न कि बौद्धिक नेतृत्व से। फासिज्म और कुलीन तंत्रीय व्यवस्था वाले समाज इसके उदाहरण है। उपर्युक्त आलोचना के बावजूद भी काम्ट के विचार समाज विश्लेषण के लिए उपयोगी रहे हैं। आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान मानव समाज के विकास में बहुत महत्वपूर्ण रहा हैं।

2. स्पेन्सर का सिद्धान्त (Spencer's Theory)

स्पेन्सर ने भी सामाजिक परिवर्तन का उद्विकासीय सिद्धान्त प्रस्तुत किया। आपने सामाजिक परिवर्तन को प्राकृतिक प्रवरण (Natural selection) के आधार पर प्रकट किया है। स्पेन्सर डार्विन के उद्विकास से प्रभावित थे। डार्विन ने जीवों के उद्विकास का सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसे स्पेन्सर ने समाज पर भी लागू किया। डार्विन का मत था कि जीवों में अस्तित्व के लिए संघर्ष (Struggle for existence) पाया जाता है। इस संघर्ष में वे ही प्राणी बचे रहते हैं जो शक्तिशाली होते हैं और प्रकृति से अनुकूलन कर लेते हैं, कमजोर इस संघर्ष में समाप्त हो जाते हैं (Survival of the fittest and elimination of the unfit)। चूँकि प्रकृति भी ऐसे जीवों का वरण करती है जो योग्य एवं सक्षम होते हैं, अतः इस सिद्धान्त को 'प्राकृतिक प्रवरण का सिद्धान्त' कहते हैं। चूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः उसके प्रवरण अथवा जन्म और मृत्यु दर पर सामाजिक कारकों; जैसे प्रथाओं, मूल्यों एवं आदर्शों का भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। इस प्रवरण में श्रेष्ठ मनुष्य ही बचे रहते हैं जो समाज का निर्माण करते हैं और उसमें परिवर्तन लाते हैं। प्रत्येक नयी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में अधिक उन्नति होती है और समाज को आगे की ओर बढ़ाती है, इस प्रकार समाज क्रमशः आगे बढ़ता और परिवर्तित होता जाता है। इस प्रकार स्पेन्सर सामाजिक परिवर्तन के लिए अप्राकृतिक एवं सामाजिक प्रवरण को आधार मानते हैं। स्पेन्सर के अतिरिक्त जैविकीय कारकों को सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी मानने वालों में गोबिन्यू व लापोज आदि भी प्रमुख हैं। इन विद्वानों की मान्यता है कि समाज का निर्माण और प्रगति उन लोगों द्वारा सम्भव है जो प्रजातीय दृष्टि से श्रेष्ठ होते हैं। जब किसी समाज में प्रजातीय दृष्टि से हीन व्यक्ति होते हैं तो वह समाज पतन की ओर जाता है और जब उसमें शारीरिक व मानसिक दृष्टि से श्रेष्ठ व्यक्ति होते हैं तो वह समाज प्रगति करता है। स्पेन्सर व जीववादियों के सिद्धान्तों की अनेक विद्वानों ने यह कहकर आलोचना की कि मानव समाज पर प्राकृतिक प्रवरण को लागू नहीं किया जा सकता। इन्होंने परिवर्तन के अन्य सिद्धान्तों की अवहेलना की है।

3. कार्ल मार्क्स का सिद्धान्त (theory of karl marx)

जर्मन विचारक मार्क्स ने सामाजिक जीवन में परिवर्तन के लिए दो तत्वों को सबसे अधिक महत्व दिया हैं जो इस प्रकार हैं-- 

(1) तकनीक का विकास और 

(2) परिणामस्वरूप उत्पादन की प्रक्रिया में परिवर्तन जिससे विभिन्न वर्गों के संबंधों में परिवर्तन आता हैं। 

कार्ल मार्क्स का ऐसा मानना है कि मानव अपना इतिहास स्वयं रचता है। मानव इतिहास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति स्वयं अपना परिवर्तन कर लेता है, यहाँ तक कि वह प्रकृति पर प्रभुत्व पाने के लिए स्वयं उससे संघर्ष करता है। मानव अपने इतिहास के दौरन अपने को उत्कृष्ट स्तर का बनाने के लिए तथा अपने लक्ष्यों की पूर्ति के संबंध में प्रकृति में रूपांतरण लाने का प्रयास करता है। अतएव प्रकृति के रूपांतरण की प्रक्रिया में व्यक्ति स्वयं परिवर्तित हो जाता हैं। 

कार्ल मार्क्स ने संपत्ति के एकत्रीकरण को परिवर्तन का मुख्य कारण माना है। संपत्ति का संकलन पूँजीवाद का द्योतक हैं। उत्पादकों के हाथ में संपत्ति के कारण मजदूरों एवं वस्तुओं पर नियंत्रण रहता हैं। यह एक राजनैतिक अर्थव्यवस्था हैं। धन व साधन उत्पादन के साधन हैं जो विशेष परिस्थितियों में ही उपयोगी हो सकते हैं। जब मजदूर अपने श्रम को बेचने के लिए स्वतंत्र है तब ही ऐसा हो सकता है। मार्क्स ने अपने विचारों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत बाँधने का प्रयास किया हैं-- 

1. पूँजीवादी समाज में आर्थिक ढाँचे का विकास जमींदारी समाज के आधार पर हुआ और जमींदारी समाप्त हो गयी। 

2. मजदूर और उत्पादक का संबंध जमींदार व कृषक से भिन्न रहा, मजदूर अपने श्रम को बेचने के लिए स्वतंत्र हो गया तथा परम्परागत बंधन से मुक्त हुआ, परन्तु एक मजदूर स्वयं के उत्पादन साधनों को भी खो चुका था और साथ ही उसकी सुरक्षा के आधार भी समाप्त हो गये। 

3. उद्योगपतियों ने न केवल हस्तशिल्पियों को नष्ट किया अपितु जमींदारों को भी समाप्त कर दिया। उत्पादक शोषण के लिए स्वतंत्र हो गये तथा शोषण की नई व्यवस्था स्थापित हुई। 

4. धीरे-धीरे कृषि के स्थान पर उद्योग प्रमुख हुए और जनसंख्या गाँवों से नगरों की ओर गतिशील हुई। मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्यों के सिद्धांत को पूँजीवाद को विकास का कारण बताया। अतिरिक्त मूल्य नई तकनीकी के परिणामस्वरूप प्राप्त किया जा सकता है। 

5. तकनीकी परिवर्तन व औद्योगीकरण ने वर्ग संघर्ष को भी जन्म दिया। 

6. बेरोजगारी, आर्थिक संघर्ष, दुर्घटनाएँ व मानसिक कठिनाइयाँ, इसी व्यवस्था की उत्पत्ति रही। 

7. मार्क्स ने प्रौद्योगिकी को सामाजिक परिवर्तन का मुख्य आधार माना। उन्होंने परिवर्तन के इतिहास को मुख्यतः 5 भागों में विभाजित किया है-- 

(अ) आदिम साम्यवादी युग, 

(ब) दासत्व युग, 

(स) सामन्तवादी युग, 

(द) पूँजीवादी युग तथा

(ई) साम्यवादी युग। 

कार्ल मार्क्स का कथन है कि विकास की स्थिति विशेष का संबंध वर्ग संबंधों और प्रभुता सम्पन्न वर्ग से है। उत्पादन की शक्तियों के विकास के साथ सामाजिक संघर्ष होता रहता है, जिससे नई सामाजिक व्यवस्था का उदय होता है। परिवर्तन के इसी आधार पर मार्क्स ने कहा था कि," अब तक के समस्त समाजों का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है। मार्क्स ने कहा कि यह सार्वभौमिक प्रक्रिया है, यह संघर्ष तत्व तब समाप्त होगा जब श्रमिक वर्ग का उत्पादन के सभी साधनों पर अपना अधिकार हो जायेगा। इससे एक नयी सामाजिक संरचना का निर्माण होगा जिसमें वर्ग-भेद जैसी कोई चीज नहीं रहेगी। धीरे-धीरे विभिन्न परिस्थितियों से गुजर कर यह वर्गहीन समाज तक पहुंच जाएगा। समाज का यह स्वरूप परिवर्तन का अन्तिम रूप होगा।" मार्क्स की इस विचारधारा ने विगत दशकों में सामाजिक एवं राजनैतिक विचारधाराओं को अत्यधिक प्रभावित किया है। राजनीतिज्ञों द्वारा समाजवाद एवं साम्यवाद के आधार पर समाज निर्माण करने का आदर्श रखा जाने लगा हैं।

आलोचना 

कार्ल मार्क्स के सिद्धांत की आलोचना इस प्रकार हैं--

1. कार्ल मार्क्स ने अपने सिद्धांत में वर्ग संघर्ष पर अधिक जोर दिया है लेकिन उन्होंने इस बात को भुला दिया है कि समाज की नींव सहयोग पर आधारित है न कि संघर्ष पर। 

2. मार्क्स ने परिवर्तन के लिए एक कारक आर्थिक कारक को उत्तरदायी मानकर परिवर्तन के अन्य कारकों की उपेक्षा की है अर्थात् सामाजिक, जनसंख्यात्मक, भौगोलिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक कारकों का परिवर्तन में महत्वपूर्ण योगदान होता है। 

3. मार्क्स के अनुसार सामाजिक परिवर्तन, प्रौद्योगिकी, आर्थिक संबंध एवं आर्थिक संरचना में परिवर्तन के कारण आते है, जबकि वे यह स्पष्ट करने में असमर्थ रहे है कि प्रौद्योगिकी इत्यादि में परिवर्तन क्यों होता है तथा स्वयं आर्थिक कारक भी अन्य कारकों से प्रभावी होता हैं।

4. मार्क्स का यस कहना कि" मानव जाति की चेतना नहीं है जो इसके अस्तित्व का निर्धारण करती है अपितु इसके विपरीत इसका सामाजिक अस्तित्व इसकी चेतना का निर्धारण करता है अतिशयोक्तिपूर्ण तथा अस्पष्ट हैं। 

5. मार्क्सवादी सिद्धांत की आलोचनाओं के संदर्भ में उनकी ऐतिहासिक नियतिवाद की भाँति जनक तथा विरोधात्मक अवधारणा थी। उल्लेखनीय है यह भाग्यवाद का स्वतंत्र इच्छा के साथ एक असंगत समंजन प्रस्तुत करती हैं।

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