संस्कृतिकरण की अवधारणा का प्रतिपादन प्रोफेसर एम.एन. श्री निवास ने किया है। इस अवराधारणा के माध्यम से उन्होंने भारतीय संरचना एवं संस्तरण मे होने वाले परिवर्तनों को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया हैं। परिवर्तन एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरन्तर गतिशील रहती है।
श्रीनिवास ने लिखा है कि " संस्कृतिकरण का अर्थ सिर्फ नवीन प्रथाओं व आदतों को ग्रहण करना ही नही वरन पवित्र तथा लौकिक जीवन से संबंधित नये विचारों एवं मूल्यों को भी प्रकट करना है जिनका वितरण संस्कृत के विशाल साहित्य मे बहुधा देखने को मिलता है। कर्म, धर्म पाप, पुण्य, संसार, मोक्ष आदि संस्कृत के कुछ अत्यन्त लोकप्रिय आध्यात्मिक विचार हैं।
श्री निवास से स्पष्ट किया है कि उच्च जाति का अनुसरण करके निम्न जाति अपने सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयत्य करती है और इसी को संस्कृतिकरण कहा जाता हैं।
संस्कृतिकरण की विशेषताएं (sanskritikaran ki visheshta)
1. प्रक्रिया का होना
संस्कृतिकरण की पहली विशेषता यह है कि संस्कृतिकरण एक प्रक्रिया है और धारणा गतिशील रहती हैं।
2. उच्च जातियों का अनुकरण
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया मे निम्न हिन्दू जाति व अन्य समूह या जनजाति उच्च जाति के प्रभाव की दशा मे अपने रीति-रिवाज, कर्मकांड और विचारधाराओं मे परिवर्तन लाते हैं।
3. परिवर्तन
संस्कृतिकरण का सम्बन्ध परिवर्तन से होता है क्योंकि बिना परिवर्तन के संस्कृतिकरण नही हो सकता।
4. सार्वभौमिक प्रक्रिया
संस्कृतिकरण सार्वभौमिक प्रक्रिया है यह प्रक्रिया सभी जगह अर्थात् विशव के सभी समाजों मे पाई जाती हैं।
5. सामाजिक जीवन के अनुकूलन
संस्कृतिकरण को सामाजिक जीवन को अनुकूल करने वाली कला कहा जा सकता है। क्योंकि संस्कृतिकरण की इस प्रक्रिया मे निम्न जाति अपने सामाजिक जीवन को उच्च जाति के अनुरूप बनाने का प्रयत्य करती है जिसका यह अनुसरण करती हैं।
6. हिन्दू जाति तक सीमित नही
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया हिन्दू जाति तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह जनजाति और अर्द्ध-जनजाति मे गतिशील होती हैं।
7. तटस्थ अवधारणा
संस्कृतिकरण मे अच्छाई अथवा बुराई का कोई तत्व निहित नही होता क्योंकि हम किसी भी जाति के अनुकरण करने को यह नही कह सकते की वह उन्नत करने का प्रयास अच्छा है या बुरा है। संस्कृतिकरण एक तटस्थ अवधारणा हैं।
संस्कृतिकरण का अर्थ (sanskritikaran ka arth)
संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत कोई निम्न हिन्दू जाति या कोई अन्य जनजाति अथवा समूह किसी उच्च और द्विज जाति की दिशा अपने रीति-रिवाज कर्मकांड विचारधारा और जीवन पद्धति को बदल लेते हैं।श्रीनिवास ने लिखा है कि " संस्कृतिकरण का अर्थ सिर्फ नवीन प्रथाओं व आदतों को ग्रहण करना ही नही वरन पवित्र तथा लौकिक जीवन से संबंधित नये विचारों एवं मूल्यों को भी प्रकट करना है जिनका वितरण संस्कृत के विशाल साहित्य मे बहुधा देखने को मिलता है। कर्म, धर्म पाप, पुण्य, संसार, मोक्ष आदि संस्कृत के कुछ अत्यन्त लोकप्रिय आध्यात्मिक विचार हैं।
श्री निवास से स्पष्ट किया है कि उच्च जाति का अनुसरण करके निम्न जाति अपने सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयत्य करती है और इसी को संस्कृतिकरण कहा जाता हैं।
संस्कृतिकरण की विशेषताएं (sanskritikaran ki visheshta)
1. प्रक्रिया का होनासंस्कृतिकरण की पहली विशेषता यह है कि संस्कृतिकरण एक प्रक्रिया है और धारणा गतिशील रहती हैं।
2. उच्च जातियों का अनुकरण
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया मे निम्न हिन्दू जाति व अन्य समूह या जनजाति उच्च जाति के प्रभाव की दशा मे अपने रीति-रिवाज, कर्मकांड और विचारधाराओं मे परिवर्तन लाते हैं।
3. परिवर्तन
संस्कृतिकरण का सम्बन्ध परिवर्तन से होता है क्योंकि बिना परिवर्तन के संस्कृतिकरण नही हो सकता।
4. सार्वभौमिक प्रक्रिया
संस्कृतिकरण सार्वभौमिक प्रक्रिया है यह प्रक्रिया सभी जगह अर्थात् विशव के सभी समाजों मे पाई जाती हैं।
5. सामाजिक जीवन के अनुकूलन
संस्कृतिकरण को सामाजिक जीवन को अनुकूल करने वाली कला कहा जा सकता है। क्योंकि संस्कृतिकरण की इस प्रक्रिया मे निम्न जाति अपने सामाजिक जीवन को उच्च जाति के अनुरूप बनाने का प्रयत्य करती है जिसका यह अनुसरण करती हैं।
6. हिन्दू जाति तक सीमित नही
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया हिन्दू जाति तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह जनजाति और अर्द्ध-जनजाति मे गतिशील होती हैं।
7. तटस्थ अवधारणा
संस्कृतिकरण मे अच्छाई अथवा बुराई का कोई तत्व निहित नही होता क्योंकि हम किसी भी जाति के अनुकरण करने को यह नही कह सकते की वह उन्नत करने का प्रयास अच्छा है या बुरा है। संस्कृतिकरण एक तटस्थ अवधारणा हैं।
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