8/19/2023

संस्कृतिकरण का अर्थ और विशेषताएं

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प्रश्न; संस्कृतीकरण से आप क्या समझते हैं? संस्कृतिकरण की विशेषताएं बताइए।
उत्तर--
संस्कृतिकरण की अवधारणा का प्रतिपादन प्रोफेसर एम.एन. श्री निवास ने किया है। इस अवराधारणा के माध्यम से उन्होंने भारतीय संरचना एवं संस्तरण मे होने वाले परिवर्तनों को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया हैं।

संस्कृतिकरण का अर्थ (sanskritikaran kya hai)

संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत कोई निम्न हिन्दू जाति या कोई अन्य जनजाति अथवा समूह किसी उच्च और द्विज जाति की दिशा में अपने रीति-रिवाज कर्मकांड विचारधारा और जीवन पद्धति को बदल लेते हैं।
श्रीनिवास ने लिखा है कि " संस्कृतिकरण का अर्थ सिर्फ नवीन प्रथाओं व आदतों को ग्रहण करना ही नही वरन् पवित्र तथा लौकिक जीवन से संबंधित नये विचारों एवं मूल्यों को भी प्रकट करना है जिनका वितरण संस्कृत के विशाल साहित्य मे बहुधा देखने को मिलता है। कर्म, धर्म पाप, पुण्य, संसार, मोक्ष आदि संस्कृत के कुछ अत्यन्त लोकप्रिय आध्यात्मिक विचार हैं।
श्री एम. एन. श्रीनिवास संस्कृतिकरण को परिभाषित करते हुए लिखते है," संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति या कोई जन जाति अथवा अन्य समूह किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपने रीति-रिवाज, कर्मकाण्ड, विचारधारा और जीवन पद्धित को बदलते हैं।" 
संस्कृतिकरण की विस्तृत व्याख्या करते हुए श्रीनिवास जी लिखते हैं," संस्कृतिकरण का अर्थ केवल नये रिवाजों व आदतों को ग्रहण करना नही हैं, बल्कि नये विचारों व मूल्यों की भी अभिव्यक्ति करना है, जो कि धार्मिक साहित्य तथा धर्म निरपेक्ष संस्कृत साहित्य के विशाल शरीर में बहुधा अभिव्यक्त हुआ है। कर्म, धर्म, पाप, पुण्य, माया, संसार एवं मोक्ष सामान्य संस्कृतीय धार्मिक विचारों के उदाहरण है और जब कोई समाज संस्कृत बन जाता है, तो यह शब्द उनकी बातचीत में प्रायः दिखायी पड़ते हैं। संस्कृतीय पौरिणिक कथाओं और कहानियों के द्वारा जन-सामान्य तक पहुँचते हैं।"
श्री निवास ने स्पष्ट किया है कि उच्च जाति का अनुसरण करके निम्न जाति अपने सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयत्य करती है और इसी को संस्कृतिकरण कहा जाता हैं।

संस्कृतिकरण की विशेषताएं (sanskritikaran ki visheshta)

संस्कृतिकरण की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--
1. प्रक्रिया का होना
संस्कृतिकरण की पहली विशेषता यह है कि संस्कृतिकरण एक प्रक्रिया है और इसकी धारणा गतिशील रहती हैं।
2. उच्च जातियों का अनुकरण
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया मे निम्न हिन्दू जाति व अन्य समूह या जनजाति उच्च जाति के प्रभाव की दशा मे अपने रीति-रिवाज, कर्मकांड और विचारधाराओं मे परिवर्तन लाते हैं।
3. परिवर्तन
संस्कृतिकरण का सम्बन्ध परिवर्तन से होता है क्योंकि बिना परिवर्तन के संस्कृतिकरण नही हो सकता।
4. सार्वभौमिक प्रक्रिया
संस्कृतिकरण सार्वभौमिक प्रक्रिया है यह प्रक्रिया सभी जगह अर्थात् विशव के सभी समाजों मे पाई जाती हैं।
5. सामाजिक जीवन के अनुकूलन 
संस्कृतिकरण को सामाजिक जीवन को अनुकूल करने वाली कला कहा जा सकता है। क्योंकि संस्कृतिकरण की इस प्रक्रिया मे निम्न जाति अपने सामाजिक जीवन को उच्च जाति के अनुरूप बनाने का प्रयत्य करती है जिसका यह अनुसरण करती हैं।
6. हिन्दू जाति तक सीमित नही
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया केवल हिन्दू जाति तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह जनजाति और अर्द्ध-जनजाति मे भी गतिशील होती हैं।
7. तटस्थ अवधारणा
संस्कृतिकरण मे अच्छाई अथवा बुराई का कोई तत्व निहित नही होता क्योंकि हम किसी भी जाति के अनुकरण करने को यह नही कह सकते की वह उन्नति करने का प्रयास अच्छा है या बुरा है। अतः संस्कृतिकरण एक तटस्थ अवधारणा हैं।
8. पदमूलक परिवर्तन 
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के कारण एक जाति अपने को ऊपर की ओर उठाने में सफलता प्राप्त करने का प्रयास करती है। इस प्रकार की गतिशीलता के कारण वह जाति व जनसमूह अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा उठा सकती है, किन्तु इस प्रकार की गतिशीलता से केवल पदमूलक परिवर्तन हो सकते हैं सामाजिक संरचना में किसी प्रकार का कोई परिवर्तन संस्कृतिकरण के कारण नही हो सकता। 
9. आदर्शों का महत्व 
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में एक जाति या समूह द्वारा अपसे से उच्च जाति या जनजाति के आदर्शों का अनुकरण किया जाता है। संस्कृतिकरण के परिणामस्वरूप जनजाति हिन्दू जाति होने का दावा कर सकती हैं। किन्तु संस्कृतिकरण की इस प्रक्रिया में जिन आदर्शों का अनुसरण किया जाता है उनमें ब्राह्मण वर्ग के आदर्शों को मुख्य माना गया है, किन्तु डाॅ. श्रीनिवास ने यह मानने का प्रयास किया है कि संस्कृति में ब्राह्मण आदर्श के अतिरिक्त क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के आदर्श तथा प्रभु जातियां भी संस्कृति के आदर्श हो सकते हैं।
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