8/20/2023

संस्कृतिकरण के कारण, प्रक्रिया

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प्रश्न; संस्कृतीकरण के स्त्रोत बताइए। 

अथवा," संस्कृतिकरण की सहायक दशाओं का विवेचन कीजिए। 

अथवा", संस्कृतीकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए। 

अथवा", संस्कृतीकरण में योगदान देने वाले कारकों की विवेचना कीजिए। 

अथवा", संस्कृतीकरण के कारण बताइए। 

उत्तर--

संस्कृतिकरण के कारक या कारण (sanskritikaran ke karak)

एम. एन. श्रीनिवास ने संस्कृतिकरण के कारणों की भी चर्चा की हैं, जिससे संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में वृद्धि होती हैं। संस्कृतिकरण के सहायक कारक निम्नलिखित हैं-- 

1.भारत की प्राचीन तथा आधुनिक राजनीतिक व्यवस्थाएँ

भारत की प्राचीन तथा आधुनिक राजनीतिक व्यवस्थाएँ भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के अनुकूल रही है। आधुनिक काल में प्रजातंत्रीकरण की प्रक्रिया ने भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को अनुकूल स्थिति प्रदान की हैं।

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2. यातायात एवं जनसंचार के माध्यम

यातायात एवं जनसंचार के माध्यमों की द्रुतगामी प्रगति ने भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में वृद्धि की हैं। समाज की पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए किये गये कल्याणकारी आर्थिक सुधार कार्यक्रमों ने भी उनके जीवन को ऊँचा उठाया है। अब ये अपने जीवन स्तर को उच्च जातियों या प्रभुत्वसम्पन्न जातियों के अनुरूप बनाने में लगी है। 

3. शिक्षा

 शिक्षा सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण अभिकरण हैं। शिक्षा ने पिछड़ी जातियों के शिक्षित लोगों को उच्च एवं प्रभुत्वसम्पन्न जातियों की जीवनशैली को अपनाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया हैं। 

4. सामाजिक सुधार आंदोलन

विभिन्न सामाजिक सुधार आंदोलनों ने भी निम्न जातियों को अपनी स्थिति सुधारने की प्रेरणा दी हैं। 

5. नगरीकरण की प्रक्रिया

नगरीकरण की प्रक्रिया के कारण शहरों में जातीय भेदभाव में भी कमी आयी है। इससे उच्च जातियों एवं प्रभुत्व सम्पन्न जातियों का निम्न जातियों पर नियंत्रण शिथिल हुआ है। इसके फलस्वरूप भी इस प्रक्रिया को बढ़ावा मिला हैं।,

6. स्वतंत्र भारत का संविधान एवं कानून

स्वतंत्र भारत के संविधान एवं कानूनों ने भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया, क्योंकि संविधान जाति, धर्म, लिंग, प्रजाति एवं रंग आधार पर भेदभाव करने की इजाजत नहीं देता।

7. बड़े नगर, मंदिर एवं तीर्थ स्थान 

संस्कृतिकरण के ये अन्य स्त्रोत हैं। भजन-मण्डलियों, हरि-कथा एवं पुराने व नये संन्यासियों ने संस्कृतिकरण के प्रसार में विशेष योगदान दिया है। ऐसे स्थानों एक एकत्रित जन समुदाय में सांस्कृतिक विचार, विश्वास तथा भावनाओं के प्रसार के उचित अवसर मिलते रहते है। बड़े नगरों में प्रशिक्षित पुजारियों, संस्कृत स्कूलों एवं महाविद्यालयों, छापेखानों तथा धार्मिक संगठनों ने इस प्रक्रिया में सहायता दी हैं।

संस्कृतिकरण की प्रक्रिया (sanskritikaran ki prakriya)

सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का भी प्रारंभ हुआ है। वे जातियां जो समय के साथ निरंतर प्रगति करती गई है उनकी अनेक विशेषताओं का अनुकरण अन्य पिछड़ी हुई जातियों ने किया हैं। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया प्रारंभ में किसी एक धर्म तक ही सीमित नहीं थी वरन् विभिन्न धर्म व जाति के व्यक्ति एक दूसरे की विशेषताओं, आदतों व व्यवहारों का अनुसरण करते थे। इस अनुकरण की पृष्ठभूमि में उनकी यह भावना थी कि वे अपने वर्तमान को अच्छा बनाना चाहते थे। उदाहरण के लिए आर्य लोग जब भारत आये तो अपने साथ अपनी संस्कृति को भी लाये किन्तु उनकी संस्कृति केवल उन्हीं तक सीमित नहीं रह गई बल्कि उनकी संस्कृति का संघात भारतीय संस्कृति से हुआ। इस तरह उन्होंने भी अनेक चीजें भारतीय संस्कृति से सीखीं। इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट होती है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को हम किसी धर्म व जाति तक ही सीमित नहीं रख सकते है। आर्य इसके उदाहरण है। आर्य संस्कृति का प्रभाव संपूर्ण भारत के व्यक्तियों पर पड़ा हैं। 

भारत जैसे विशाल देश में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया एक लम्बे समय तक इसी व्यापक रूप में चलती रही अर्थात् इसकी सीमाओं को हमने किसी जाति, धर्म, संप्रदाय आदि तक सीमित नहीं रखा। इस प्रक्रिया में एक सांस्कृतिक समूह दूसरे सांस्कृतिक समूह की सांस्कृतिक विशेषताओं को अपने में पचाकर उसी के अनुरूप कार्य करने का प्रयत्न करता था किन्तु पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता का प्रभाव जब भारतीय समाज पर पड़ने लगा तब संस्कृतिकरण की प्रक्रिया मे अनेक नयी चीजों का प्रादुर्भाव हुआ और इसने सांस्कृतीकरण की प्रक्रिया को एक नवीन दिशा प्रदान की। पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति ने संस्कृतीकरण की प्रक्रिया को इतना अधिक प्रभावित किया कि बहुत से विद्वान संस्कृतीकरण और पश्चिमीकरण को एक अर्थ में प्रयोग करने लगे जब कि दोनों अवधारणाओं में पर्याप्त अंतर हैं। दोनों को दो अर्थों व संदर्भों में प्रयोग किया जाता हैं। 

श्री एन. श्रीनिवास जी ने 'संस्कृतिकरण' शब्द का प्रयोग अपने शोधग्रन्थ में किया हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है कि "जाति प्रथा उस कठोर प्रणाली से काफी दूर है, जिसमें हर घटक जाति की स्थिति हमेशा के लिए निश्चित कर दी जाती हैं। परिवर्तन हमेशा हुए है और विशेष रूप से इन सोपान क्रमिक व्यवस्था के मध्य भागों पर। एक निम्न जाति एक या दो पीढ़ियों में शाकाहारी बनकर, मद्य-त्याग कर तथा अपने कर्मकाण्ड तथा देव-कुल का संस्कृतीकरण कर ऊँची चढ़ जाती है। संक्षेप में कहें तो यह अधिकरत होता था कि निम्न जातियां ब्राह्मणों के रीति-रिवाजों, विश्वास और उनके तौर-तरीके जितना संभव होता अपना लेती थी। निम्न जातियों द्वारा ब्राह्मणी प्रणाली का अपनाया जाना प्रायः होता था यद्यपि सैद्धांतिक रूप से यह वर्जित था। इस पुस्तक में यह प्रक्रिया संस्कृतिकरण कही गई है, जो ब्राह्मणीकरण की अपेक्षा उपयुक्त शब्द हैं। क्योंकि कतिपय वैदिक कृत्य-मात्र ब्राह्मणों तथा अन्य द्विज जातियों में ही सीमित रहे हैं।" 

श्रीनिवास जी यह भी स्वीकार करते है कि," संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में ब्राह्मणीकरण की प्रक्रिया भी शामिल हैं, किन्तु अनेक स्थानों पर ब्राह्मणीकरण और संस्कृतिकरण की प्रक्रिया एक-दूसरे से अलग रूप में भी देखी जाती है जैसे वैदिक काल मे ब्राह्मण सोम नामक एक मादक पेय का पान करते थे, रक्त की बलि चढ़ाते थे। ये सभी बातें वेदोत्तर काल में त्याग दी गई आज अधिकतर ब्राह्मण शाकाहारी है। केवल सारस्वत, कश्मीरी और बंगाली ब्राह्मण सामिष भोजन करते हैं।" 

वास्तव में संस्कृतीकरण की प्रक्रिया एक गतिशील प्रक्रिया है। उसे न तो समय से बांधा जा सकता है और न जाति, धर्म, संप्रदाय और न किसी स्थान विशेष से ही। यह तो निरन्तर चलने वाली एक प्रक्रिया है। यह हो सकता है कि संस्कृतिकरण का स्वरूप हमेशा समान न रहे। वह विविध रूप में प्रकट हो सकता है। यह एक ऐतिहासिक सत्य भी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के द्वारा निम्न जाति के व्यक्तियों की गतिशीलता नीचे से ऊपर की ओर अग्रसर होती है। इससे उनकी आर्थिक सामाजिक स्थिति में परिवर्तन होता है किन्तु इस परिवर्तन से कोई विशेष संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होते हैं। 

श्रीनिवास जी का यह भी विचार है कि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के लिए किसी विशेष आर्थिक स्तर की आवश्यकता नहीं पड़ती है और न उसका किसी समूह की आर्थिक स्थिति पर कोई विशेष प्रभाव पड़ता है किन्तु इतना सत्य है कि आर्थिक स्तर ऊंचा होने से संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को एक गति और शक्ति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त राजनैतिक सत्ता होने से, शिक्षा में विस्तार और प्रसार होने से, नेतृत्व के अवरस प्राप्त होने से और जातीय संस्तरण में ऊंचे उठाने की आकांक्षा से संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को तीव्र गति प्राप्त होती है। इस तरह संस्कृतीकरण की प्रक्रिया अनेक तथ्यों से प्रभावित होकर गतिमान होती रहती हैं।

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