8/25/2023

सामाजिक आंदोलन के प्रकार, सिद्धांत

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प्रश्न; सामाजिक आंदोलन का वर्गीकरण कीजिए।

अथवा", सामाजिक आंदोलन के प्रकार बताइए।

अथवा", सामाजिक आंदोलन की उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत बताइए।  

अथवा', सामाजिक आंदोलन के प्रकार और सिद्धांतों का वर्णन कीजिए।

अथवा", सामाजिक आंदोलन के सिद्धांतों का विवेचन कीजिए। 

अथवा", सामाजिक आंदोलन की उत्पत्ति की सैद्धांतिक व्याख्या कीजिए।

उत्तर--

सामाजिक आंदोलन के प्रकार (samajik andolan ke prakar)

सामाजिक आन्दोलन जो शोषण तथा अन्याय के विरुद्ध अथवा किसी नई सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए होता है उसे दो भागों में बांटा जा सकता है-- 

प्रथम, सामान्य सामाजिक आन्दोलन और 

द्वितीय, विशिष्ट सामाजिक आन्दोलन। 

विशिष्ट सामाजिक आन्दोलन को पुनः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- -

प्रथम, क्रांतिकारी सामाजिक आन्दोलन और 

दूसरा सुधार आन्दोलन। 

इसके अतिरिक्त एक अन्य प्रकार और भी होता है जिसमे धार्मिक आन्दोलन तथा शोभनाचार आन्दोलन को रखते है।

सामाजिक आंदोलन के विभिन्न प्रकारों का विवेचन निम्नलिखित है--

1. सामान्य सामाजिक 

सामान्य सामाजिक आन्दोलन का कोई एक निश्चित उद्देश्य न होकर सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को संशोधित करना होता है। 

2. विशिष्ट सामाजिक आन्दोलन 

विशिष्ट सामाजिक आन्दोलन किसी एक निश्चित उद्देश्य को सामने रखकर आगे बढ़ता है। विशिष्ट सामाजिक आंदोलन को दो भागों में विभाजित किया गया हैं-- 

(अ) क्रांतिकारी आंदोलन 

क्रांतिकारी आंदोलन का उद्देश्य वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को क्रांति के माध्यम से बदलना है। इसमें सामाजिक परिवर्तन के लिए मूलभूत नियमों और परम्पराओं का विरोध किया जाता हैं। क्रांति की सहायता से समाज पर नये नियमों और कानूनों को थोपना इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य है। क्रांतिकारी आंदोलन सुधार के लिए हिंसात्मक विधियों को भी उचित मानता है। क्रांतिकारी आंदोलन का क्षेत्र विस्तृत होता है क्योंकि इसका उद्देश्य संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को बदलना होता हैं। 

(ब) सुधार आंदोलन 

सुधार आंदोलन समाज में व्याप्त समस्याओं के सुधार से संबंधित हैं, इसलिए क्रांतिकारी आंदोलन की तुलना में इसका क्षेत्र सीमित होता है। सुधार आंदोलन समाज के आदर्शों की ओर अधिक उन्मुख होता है। सुधार आंदोलन की सारी कार्यविधि अहिंसा पर आधारित होती हैं। 

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3. अन्य आंदोलन 

अन्य आंदोलन को भी दो भागों में विभाजित किया जा सकता हैं-- 

(अ) धर्मिक आंदोलन 

धार्मिक आंदोलन धर्म सुधार से संबंधित होते हैं। जब समाज में निराशा व्याप्त हो जाती है तथा कोई भी रास्ता दिखाई नहीं देता तो धार्मिक आंदोलन ही समाज को रास्ता दिखाते हैं। 

(ब) शोभनाचार आंदोलन 

ये आंदोलन व्यक्ति के आचार-विचार से संबंधित होते है। इन आंदोलनों के माध्यम से व्यक्ति अपने को व्यक्त करता हैं।

सामाजिक आंदोलन के विविध प्रकारों की विवेचन अलग-अलग विद्वानों द्वारा अलग-अलग आधार पर भी की गई हैं। एम. एस. ए. राव ने आंदोलनों के परिणाम के आधार पर आंदोलन को तीन भागों में विभाजित किया हैं-- 

1. सुधारवादी आंदोलन 

इस तरह के आंदोलन का उद्देश्य मूल्य व्यवस्था में आंशिक परिवर्तन लाना अथवा प्रचलित समाज व्यवस्था की बुराइयों को दूर कर वांछित परिवर्तन लाना हैं। 

2. रूपांतरकारी आंदोलन 

इस तरह के आंदोलन के उद्देश्य परंपरागत रूप से विद्यमान व्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन लाना हैं। 

3. क्रांतिकारी आंदोलन 

इस तरह के आंदोलनों का उद्देश्य समाज की समग्र सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाना हैं।

ली. बाॅन के अनुसार सामाजिक आंदोलन दो प्रकार के होते हैं-- 

1. क्रांतिकारी आंदोलन 

इस तरह के आंदोलन आवश्यकता पड़ने पर हिंसा का सहारा भी लिया जाता हैं। इनसे समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन आते हैं। 

2. सुधारात्मक आंदोलन 

सामाजिक जीवन के किसी एक पक्ष में सुधार हेतु इस प्रकार के आंदोलन चलाये जाते 

हैं।

सामाजिक आंदोलन की उत्पत्ति के सिद्धांत (samajik andolan ke siddhant)

सामाजिक आंदोलन की उत्पत्ति के संबंध में तीन सैद्धांतिक विचारधाराएं प्रचलित हैं जो आंदोलन की संरचनात्मक दशाओं एवं उसे प्रेरणा देने वाली शक्ति से संबंधित हैं। ये सैद्धांतिक विचारधाराएं निम्नलिखित हैं-- 

1. संरचनात्मक तनाव 

संरचनात्मक तनाव के सिद्धांत का प्रतिपादन नील स्मेल्सर ने किया है। स्मेल्सर के अनुसार जब समाज में संरचनात्मक तनाव उत्पन्न होता है तो सामूहिक व्यवहार अर्थात् सामाजिक आंदोलन की उत्पत्ति होती है। मार्क्स के अनुसार जब समाज में परस्पर विरोधी हितों में टकराव होता है तो सामाजिक संरचना में तनाव उत्पन्न हो जाता है। अनिश्चितताऐ, चिन्ताएं, अस्पष्टताएं एवं उद्देश्यों में सीधा टकराव आदि की स्थितियाँ संरचनात्मक तनाव के सूचक हैं। तनाव के कारण सामान्य और विशिष्ट दोनों हो सकते हैं। उदाहरणार्थ अमेरिकन समाज में प्रजातीय भिन्नता के आधार पर समाज में असमानता पाई जाती है। इस असमानता ने वहां तनाव उत्पन्न कर दिया और नीग्रो एवं श्वेत प्रजाति में संघर्ष उत्पन्न हुआ तथा नीग्रो लोगो ने आंदोलन चलाये। 

संरचनात्मक तनाव सामाजिक प्रतिमानों, मूल्यों, गतिशीलता आदि कई स्तरों पर पैदा हो सकता हैं। 

2. पुनर्चेतनत्व अथवा पुनर्जीवन का सिद्धान्त 

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अमेरिकन मानवशास्त्री वालेस ने किया। उनका कथन है कि क्या सापेक्ष पृथक्करण और संरचनात्मक तनाव सामाजिक आंदोलन को आवश्यक रूप से जन्म देते हैं? इस प्रश्न के संदर्भ में वालेस का कहना है कि सामाजिक आंदोलन एक समाज के सदस्यों द्वारा अपने लिये एक अधिक सन्तुष्टि प्रदान करने वाली संस्कृति का निर्माण करने के लिये किया जाने वाला स्वेच्छा से संगठित एवं जागरूक प्रयास है। वालेस ने पुनर्चेतन प्रदान करने वाले आंदोलनों की गतिशीलता के चार चरणों का उल्लेख किया हैं-- 

(अ) संस्कृति स्थिरता का काल 

(ब) वह काल जिसमें समाज के सदस्यों के मध्य तनावों में वृद्धि हो जाती हैं। 

(स) वह काल जिसमें संस्कृति में विघटन की स्थिति पैदा हो जाती है और लोगों में विभ्रम पैदा हो जाता हैं और 

(द) पुनर्चेतनत्व अथवा पुनर्जीवन का काल। 

3. सापेक्ष पृथक्करण या वंचितता 

इस विचारधारा के अनुसार सामाजिक आंदोलन की उत्पत्ति का एक कारण यह है कि जब समाज मे ऐसे लोगों की संख्या अधिक हो जिनको सुविधाओं से वंचित या पृथक किया गया हो या कुछ लोगों को विशेष सुविधाएं या विशेषाधिकार प्रदान किये गये हो और अन्य लोगों को उन्हें प्राप्त करने में कठिनाई प्राप्त हो रही हो तो ऐसी स्थिति में लोगों में असंतोष की भावना जागृत हो जाती है और वह एक आंदोलन का रूप धारण कर लेती है। उदाहरणार्थ-- भारत में अस्पृश्य जातियों एवं आदिवासियों द्वारा सुविधायें प्राप्त करने के लिए किये गये आंदोलन सामाजिक पृथकता या वांचितता के कारण ही थे। इसी प्रकार अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन एवं स्त्री स्वतंत्रता आन्दोलन भी सापेक्ष पृथक्करण के कारण हुए। 

सामाजिक पृथक्करण का सिद्धान्त दो भिन्न उपागमों या आधारों पर विकसित हुआ-- 

(अ) सामाजिक गतिशीलता के संदर्भ में, तथा 

(ब) सामाजिक संघर्ष के संदर्भ में। 

सामाजिक गतिशीलता के संदर्भ में सापेक्ष पृथक्करण के सिद्धांत का विकास सन् 1950 में राबर्ट के. मर्टन ने तथा सन् 1966 में रनसौमेन ने संदर्भ समूह की अवधारणा के विकास के अंतर्गत किया। 

इसके विपरीत मार्क्स तथा अबेर्ल ने सामाजिक संघर्ष के संदर्भ में सामाजिक पृथक्करण के सिद्धांत का विकास किया। मार्क्स तथा एंजिल्स का कहना है कि समाज में यथास्थिति के प्रति असंतोष तुलनात्मक अपेक्षाओं के कारण उत्पन्न होता है। अबेर्ल ने वैधानिक अपेक्षाओं एवं वास्तविकता के बीच अंतर को ही सापेक्ष पृथक्करण कहा हैं। 

इस प्रकार सापेक्ष पृथक्करण भी सामाजिक आंदोलन के उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है। परन्तु केवल यही एक कारण सामाजिक आंदोलन के लिए उत्तरदायी नही है। यह तो उसकी एक अनिवार्य दशा हैं। 

भारत में समय-समय पर आर्य समाज, ब्रह्रा समाज, रामकृष्ण मिशन द्वारा जो सामाजिक धार्मिक सुधार आंदोलन चलाये गये उनका उद्देश्य समाज को पुनर्जीवित करना ही था। भारतीय इतिहास में 19वीं शताब्दी का पुनर्जागरण एक उल्लेखनीय घटना है जिसने भारतीयों में एक नवीन आत्मजागृति की भावना उत्पन्न की और उन्हें एक उन्नत, प्रगतिशील तथा गौरवशाली समाज की स्थापना करने की प्रेरणा दी।

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