8/25/2023

सामाजिक आंदोलन के कारण, स्तर, कार्य/महत्व

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प्रश्न; सामाजिक आंदोलन के कारण बताइए।

अथवा", सामाजिक आंदोलन के कारकों का वर्णन कीजिए।

अथवा", सामाजिक आंदोलन के स्तर बताइए। 

अथवा", सामाजिक आंदोलन के महत्व को स्पष्ट कीजिए। 

अथवा", सामाजिक आंदोलन के कार्य बताइए। 

उत्तर--

सामाजिक आंदोलन के कारण (samajik andolan ke karak)

विभिन्न समाजशास्त्रीयों ने सामाजिक आंदोलन के विभिन्न कारकों का उल्लेख किया है। सामाजिक आंदोलन के लिए कोई एक कारक उत्तरदायी नहीं होता। सामाजिक आंदोलन के लिए उत्तरदायी कारणों को निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता हैं-- 

1. शिक्षा का प्रसार 

आंदोलन का श्रीगणेश शिक्षित वर्ग द्धारा ही किया जाता है। आन्दोलन की गति उन्हीं स्थानों पर तीव्र होती है जिन स्थानों पर शिक्षित समाज अधिक होता है। शिक्षित वर्ग ही समाज में जागृति ला सकता है, क्योंकि वे स्वयं भी जागृत होते है अतएव शिक्षा द्वारा भौतिकवाद का प्रसार सामाजिक आंदोलन का वास्तविक कारक है। अर्थात् यदि शिक्षित व्यक्ति बेरोजगार है अथवा किसी सरकारी नीति के विरोध में उठ खड़े हुए है तो ऐसी स्थिति में आंदोलन काफी भयावह हो सकता हैं। 

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2. सामाजिक वर्गों में असन्तोष 

सामाजिक वर्गों में असंतोष भी सामाजिक आंदोलन का कारण है। समाज में विभिन्न वर्ग पाये जाते है। इन वर्गों को आयु, स्थिति, लिंग, धर्म, शिक्षा आदि के आधार पर विभाजित किया जाता है। सभी आधारों पर निर्मित वर्गों में असन्तोष की भावना पनपने लगती हैं। स्त्रियों को पुरूष आगे नहीं बढ़ने देते, नवयुवकों को वयोवृद्धों द्वारा रोका जाता है, धनी निर्धन को सताता है। इस प्रकार सामाजिक वर्गों में असंतोष  बढ़ता जाता है। इस असन्तोष से आंदोलन को प्रोत्साहन मिलता हैं। 

3. प्राचीन रीति-रिवाज 

प्राचीन रीति-रिवाज भी आंदोलन एक कारण है। प्रत्येक समाज की अपनी प्रथाएं तथा परम्पराएं होती है। प्रथाएं तथा परम्पराएं स्थिति प्रकृति की होती है उनमे गतिशीलता नहीं पाई जाती है। यदि प्रथाओं, रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं में समाज की अनुरूपता के अनुसार गतिशीलता नहीं पाई जाती है तो वे समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ रहती है ऐसी परिस्थिति में समाज का कोई न कोई वर्ग उनके विरूद्ध आंदोलन करने का प्रयास करता है ताकि उन प्रथाओं और परम्पराओं को परिवर्तित करके समाज के अनुकूल बनाया जा सके और समाज गतिशील बने।

4. स्थिति व कार्य में असन्तुलन 

प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार ही समाज में अपना स्थान चाहता है और उसी के अनुरूप अपना कार्य करता है, किन्तु जब पद तथा स्थिति (या कार्य) में असन्तुलन पैदा हो जाता है तो समाज में असन्तोष की भावना की उत्पत्ति होती है और उसका परिणाम सामाजिक आंदोलन होता हैं। 

5. सांस्कृतिक पिछड़ा वर्ग 

संपूर्ण संस्कृति को आगबर्ग ने भौतिक एवं अभौतिक दो भागों में विभाजित किया है। भौतिक संस्कृति से हमारे भौतिक उपकरण आदि और अभौतिक संस्कृति में हमारे विधान, मूल्य, मनोधारणायें, दर्शन, संगीत, कला, साहित्य, नृत्य, कथायें, रीतियाँ एवं रूढ़ियाँ एवं प्रथा और परम्परा आदि आते है। भौतिक उपकरण अर्थात् रेफ्रिजरेटर, टेलीविजन, रेडियों, स्कूटर, कार एवं चश्मा आदि मूर्त आकार वाली वस्तुएं होती है किन्तु अभौतिक संस्कृति के अंग कला, साहित्य एवं संगीत आदि अमूर्त अवधारणाएं ही होती हैं।

6. आर्थिक असमानता 

मार्क्स के अनुसार मानव समाज में जब कुछ लोग उत्पादन के प्रमुख साधनों पर अपना निजी स्वामित्व स्थापित कर लेते है तो वे लोग ही समाज मे शक्तिशाली, प्रभावशील तथा शासक बनकर अपना एक शक्तिशाली उच्चवर्ग स्थापित कर लेते हैं। शेष सारा समाज जो अपनी जीविकोपार्जन के लिए संपत्तिशाली लोगों पर निर्भर हो जाता है, वह मानव-समूह निम्न वर्ग का मान लिया जाता है इस प्रकार सम्पत्ति के अधिकार के आधार पर समाज में उच्च वर्ग और निम्न वर्ग बन जाया करते है और यही वर्ग संरचना सामाजिक स्तरीकरण का स्वरूप धारणा कर लेती हैं। 

7. सामाजिक संस्थाओं के कार्यों में परिवर्तन 

सामाजिक संस्थाओं के कार्य निर्धारित होते है किन्तु जब इन संस्थाओं के कार्यों में परिवर्तन होता है और उनके कार्यों को दूसरी संस्थाएं ग्रहण कर लेती हैं तो सामाजिक आंदोलन की स्थिति उत्पन्न हो जाती हैं। 

8. सामाजिक मूल्यों का विघटन 

कई सामाजिक मूल्यों में विघटन की स्थिति पैदा होती है तो उसका प्रभाव व्यक्ति और समाज पर भी पड़ता हैं। इलियट और मैरिल का कथन हैं कि," सामाजिक मूल्यों के बिना न तो सामाजिक संगठन और न सामाजिक विघटन का जन्म होगा।" सोरोकिन के अनुसार भी मूल्यों के क्षेत्र में सांस्कृतिक अपकर्ष विघटन का जन्मदाता माना जा सकता हैं। जब-जब परम्पराओं, प्रथाओं, नियमों, रीति-रिवाजों, संस्थाओं, समितियों आदि में विचलन की स्थिति पैदा होती है, यह स्थिति ही सामाजिक आंदोलन को जन्म देती हैं। 

9. विभिन्न संस्कृतियों से संपर्क 

जब एक संस्कृति के लोग दूसरी संस्कृति के लोगों से संपर्क करते है, तो दोनों संस्कृति के आदान-प्रदान की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है। सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कारण नये विचारों का जन्म होता है। नये विचार सामाजिक आंदोलनों को जन्म देते है। अधिकांशतया प्रबल संस्कृति कमजोर संस्कृति को अधिक प्रभावित करती है, जबकि स्वयम् उससे कम प्रभावित होती हैं।

सामाजिक आन्दोलन के स्तर (samajik andolan ke istar)

'विभिन्न विचारकों ने सामाजिक आन्दोलन के विभिन्न स्तरों का उल्लेख किया है।

बाउन तथा गेटीस ने सामाजिक आन्दोलन के निम्नलिखित चार स्तरों उल्लेख किया है--

1. सामाजिक अशान्ति का स्तर (Social unrest)

सामाजिक अशांति के स्तर में सामाजिक अशान्ति के कारण लोग यह निश्चित नहीं कर पाते कि उन्हें वास्तव में क्या करना चाहिए। अधिकांश लोग अनिश्चित तथा सामान सामाजिक सांस्कृतिक पर्यावरण को पाकर बेचैनी तथा घुटन का अनुभव करते हैं! ये उस परिस्थिति में किसी भी सुझाव तथा आग्रह को मानने के लिए तैयार नहीं होते। यही कारण है कि सामाजिक आन्दोलन के प्रथम चरण में आन्दोलनकर्ता किसी भी प्रकार का व्यवहार कर बैठता है।

2. मान्य धारणा का स्तर (Popular excitement)

सामाजिक आन्दोलन के द्वितीय स्तर का स्वरुप कुछ स्पष्ट हो जाता है। यहाँ लोगों का व्यवहार अधिकांशतया किन्ही उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए होता है, भले ही इसमें उद्देश्य अधिक स्पष्ट न हों लेकिन इस स्तर पर लोग यह तय कर पाते हैं कि सामाजिक परिवर्तन की दिशा क्या हो? तथा उसके लिए किन कारकों का प्रयोग किया जाए। इस प्रकार इस स्तर पर आते-आते आन्दोलन का उद्देश्य न्यूनाधिक अंशों में स्पष्ट हो जाता है। इस स्तर की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यहाँ सामाजिक आन्दोलन का नेता, देवदूत अथवा सामाजिक सुधारक के रूप में जाना जाता है। 

3. औपचारीकरण स्तर (Stage of formalisation)

तीसरे स्तर पर आन्दोलन के नियम अधिक व्यवस्थित तथा औपचारिक रूप धारण कर लेते है। यहां नेता राष्ट्रनायक का रूप धारण कर लेता है, जिसका प्रत्येक व्यवहार सामाजिक नीति तथा राष्ट्रीय कूटनीति पर आधारित होता है। 

4. सांस्थानिक स्तर (Institutionalisation stage) 

सामाजिक आन्दोलन के चौथे और अन्तिम स्तर पर इसका एक निश्चित ढांचा तय हो जाता है, आन्दोलन का उद्देश्य सर्वाधिक स्पष्ट होता है। कुछ निश्चित लोग नियमों के आधार पर उद्देश्य पूर्ति के लिए तत्पर रहते हैं और इस स्तर पर नेता एक प्रशासक के रूप में कार्य करता है।

सामाजिक आंदोलन के कार्य व महत्व 

निस्संदेह सामाजिक आंदोलन सामाजिक परिवर्तन के लिये आयोजित होते है। आयोजित परिवर्तन सामान्य रूप से समाज के सुधार के लिये होते है तथा उनका उद्देश्य एवं लक्ष्य समाज को उत्तम बनाना होता है। सामाजिक आंदोलनों द्वारा भी महत्वपूर्ण कार्य किये जाते है अर्थात् सामाजिक परिवर्तन एवं सुधार के क्षेत्र में सामाजिक आंदोलनों द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती है। सामाजिक आंदोलनों के महत्व एवं मुख्य कार्यों को निम्नलिखित रूप में वर्णित किया जा सकता हैं-- 

1. अंधविश्वासों को दूर करना 

सामाजिक आंदोलनों का एक कार्य समाज में व्याप्त अन्धविश्वासों को दूर करना भी होता है। वास्तव में जब तक लोगों में अन्धविश्वास प्रबल रहते है तब तक सामाजिक आंदोलन को सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। 

2. जागरूकता उत्पन्न करना 

सामाजिक आंदोलनों का प्रथम कार्य संबंधित समाज में आवश्यक जागरूकता उत्पन्न करना होता है। समाज के सदस्यों को समाज की यथार्थ स्थिति की समुचित जानकारी प्रदान की जाती है। यह कार्य तटस्थ दृष्टिकोण तथा तार्किक आधार पर किया जाता हैं।,

3. राष्ट्रीय भावना जागृत करना 

हमारे देश में आयोजित होने वाले विभिन्न सामाजिक आंदोलनों का एक कार्य जनता में राष्ट्रीय भावना जागृत करना भी था। यह कार्य हमारे देश की परिस्थितियों के कारण अनिवार्य था। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में सुधार आंदोलनों के कारण भारतीय नागरिकों के मन में सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक सुधार के लिये एक विशेष उत्साह उत्पन्न हुआ। 

4. शिक्षा का प्रसार एवं प्रसार 

सामाजिक आंदोलनों का एक कार्य शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार भी रहा है। हमारे देश में स्त्री-शिक्षा को भी विशेष महत्व दिया गया है। रामकृष्ण मिशन तथा आर्य-समाज द्वारा स्थापित संस्थाओं तथा विशेष रूप से कन्या-पाठशालाओं ने विशेष भूमिका निभायी हैं। 

5. सामाजिक कुप्रथाओं को समाप्त करना 

सामाजिक आंदोलनों का एक मुख्य कार्य समाज में व्याप्त सामाजिक कुप्रथाओं को समाप्त करना भी होता है। हमारे देश में आयोजित होने वाले सामाजिक आंदोलनों के परिणामस्वरूप अनेक सामाजिक कुप्रथाएं या तो समाप्त हो गयीं या प्रभावहीन हो रही हैं।

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