10/02/2021

व्यक्तित्व के विकास मे विद्यालय की भूमिका

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व्यक्तित्व के विकास मे विद्यालय की भूमिका

vyaktitva ke vikas me vidyalay ki bhumika;विद्यालय का कार्य बालक के व्यक्तित्व का समन्वित विकास करना है। बालक के ऊपर विद्यालय का बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ता ह । बालक अपना अधिकतर समय विद्यालय में ही व्यतीत करते हैं। अत : यह स्वाभाविक है कि बालक के व्यक्तित्व विकास में विद्यालय का प्रभाव पड़े। उदाहरणार्थ-- 

(अ) मित्रता तथा संबंध जो बालक आपस में बनाते हैं, बालक के व्यक्तित्व को एक बड़ी सीमा तक प्रभावित करते हैं। 

(ब) विद्यालय एवं पाठ्यक्रम भी बालकों के आदत संबंधी प्रत्युत्तरों पर प्रभाव डालते हैं। यदि हम लिखना-पढ़ना, चित्रांकन आदि न सीखें तो हमारा व्यक्तित्व भिन्न हो जाएगा। 

(स) इसलिए बालक की रुचि, क्षमता, कौशल, संज्ञानात्मक विकास परिपक्वता आदि को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम तथा विद्यालीय योजना बनाई जाती है। 

(द) बहुधा परीक्षा लेने का ढंग भी बालकों के अंदर ऐसी आदतें पैदा कर देता है जो बुरी होती हैं। बालक परीक्षा से डरते हैं और उनके अंदर संवेगात्मक विचार पैदा हो जाते हैं। इस ढंग में सुधार की अधिक आवश्यकता है। 

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अतः शिक्षक को इस बात की पूरी कोशिश करनी चाहिए कि बालक के शारीरिक, मानसिक, सांवेगिक शक्तियों का संतुलित विकास हो सके। शिक्षा की प्रचलित व्यवस्था में बालकों के व्यक्तित्व का विकास एकपक्षीय होता है, उनकी सिर्फ मानसिक शक्तियाँ ही विकसित हो पाती हैं। अतः स्कूलों में व्यक्तित्व का निर्माण शिक्षण की प्रचलित रीतियों से नहीं हो सकता। इसके लिए स्कूल के संगठन को बदलना होगा तथा शिक्षण की सभी विधियों का व्यवहार करना होगा। इस संबंध में निम्न सुझाव उपयोगी होंगे--

1. स्कूल का संगठन समुदाय के रूप में किया जाये, बालक सामाजिक जीवन के रूप में अनुभव प्राप्त करें। सामुदायिक रहन-सहन की क्रियाओं से ही उनके व्यक्तित्व में सामाजिक संतुलन स्थापित हो सकेगा। 

2. स्कूल में सामाजिक जीवन के दोनों पक्षों का क्रियात्मक अनुभव छात्रों को होना चाहिए। ये अनुभव प्रतियोगात्मक एवं सहयोगी दोनों ही तरह के होने चाहिए। इन अनुभवों की प्राप्ति के लिए विद्यालय में ऐसे क्रियाशीलनों का आयोजन होना चाहिए जो बच्चों को समूह में एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर कार्य करने के अवसर दे सकें। बौद्धिक एवं शारीरिक कार्यों, उद्योग, खेल आदि में से कुछ ऐसे क्रियाशीलन भी चुने जायें, जो छात्रों में स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना भर सके। 

3. छात्रों को उत्तरदायित्व निभाने के कार्य सौंपे जाने चाहिए। इसके लिए वर्ग-पंचायत एवं स्कूल पंचायत, छात्र-संसद आदि का संगठन होना चाहिए। 

4. शिक्षक को बालकों के साथ सहानुभूति रखनी चाहिए तथा उनके साथ स्नेह का व्यवहार करना चाहिए। बालक की त्रुटियों के लिए डाँटने के कारण को समझने तथा उन्हें दूर करने के उपाय ढूंढ़ने चाहिए। सहानुभूति तथा स्नेह नहीं मिलने से बालक भयभीत रहा करते हैं एवं वे बड़े होने पर दब्बू तथा डरपोक बन जाते हैं । होते हैं। 

5. शिक्षक का व्यक्तित्व ऊंचा होना चाहिए। बालक के लिए शिक्षक अनुकरणीय होते हैं।

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