ब्रिटिश दल प्रणाली
ब्रिटिश दल प्रणाली दीर्घकालीन विकास का परिणाम है। अपने लम्बे विकास क्रम मे यह विभिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरी है। ब्रिटेन मे दल व्यवस्था की अपनी कुछ विशेषताएं हैं।
ब्रिटिश दलीय प्रणाली की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता इसकी द्विदलीय पद्धति है। ब्रिटेन मे प्रारंभ से ही दो दलों की प्रथा रही है। चार्ल्स प्रथम के समय कैलेवियर्स और राउण्डहैडस नामक दो दल रहे। तो चार्ल्स द्वितीय के काल मे टोरी और हिग नामक दो दलों का बोलबाला रहा। 19 वीं शताब्दी मे उदार दल व अनुदार दल प्रमुख दल बनकर उभरे। शनैः-शनै: उदारदल का स्थान श्रमिक दल ने ले लिया और वर्तमान मे ब्रिटेन मे इन्ही दो दलों की प्रधानता है-- अनुदार दल व श्रमिक दल। ब्रिटिश नागरिकों का मानना है कि द्वितीयक प्रणाली से मन्त्रिमण्डल मे स्थिरता, स्फूर्ति व सतर्कता का संचार होता है। इनसे व्यक्तियों की स्वतंत्रता व अधिकारों को सुरक्षा की प्राप्ति होती है और दोनों एक-दूसरे की शक्ति के नियंत्रण कर्ता है।
2. केन्द्रकरण
आबादी की एकरूपता व लघु भौगोलिक आकार के परिणामस्वरूप ब्रिटिश दलों की प्रवृत्ति केन्द्रीयकरण की रही है। यहां राजनीतिक दलों का संगठन अत्यंत सुदृढ़ है। प्रमुख दलों के आधार को व्यापक बनाने के लिए विभिन्न दलों मे, विभिन्न स्तरों पर इकाइयों का निर्माण किया गया है। सभी इकाइयों मे पूर्ण सामंजस्य है। दल की वास्तविक शक्ति दल के शीर्ष पर स्थिर है और वह समूचे दल पर नियंत्रण स्थापित करता है।
3. कठोर अनुशासन
ब्रिटेन मे सुदृढ व केन्द्रीयकृत राजनीतिक दल का स्वाभाविक परिणाम दलीय अनुशासन है। कार्टर के अनुसार " ब्रिटिश दल पद्धति की सरलता तथा अनुशासन अमरीकावासियों के लिए प्रशंसा तथा ईर्ष्या का विषय है। संसदीय शासन पद्धति होने के कारण सरकार का भविष्य लोकसदन के प्रांगण मे निश्चित होता है इसलिए ब्रिटेन मे दलीय अनुशासन का कठोर होना आवश्यक है। यहाँ पर लोकसदन मे दलीय सचेतकों की व्यवस्था की गई है। जो दलीय नेता के सम्पर्क मे रहते है। जो भी निर्देश इन्हें दलीय नेता के द्वारा प्राप्त होते है। संचेतक उन्हें सदस्यों तक पहुंचा देते है। सदस्यों के लिए इन निर्देशों का पालन करना अनिवार्य होता है अन्यथा उनके विरूद्ध कार्यवाही की जा सकती है। कठोर दलीय अनुशासन के कारण ही ब्रिटेन मे क्रास वोटिंग तथा दल-बदल जैसी राजनीतिक बुराइयां बहुत कम पायी जाती है।
4. दलीय नेतृत्व का वर्चस्व
ब्रिटेन मे दल का नेता, दल का केन्द्र स्थल है। उसका अपने समूचे पर पूर्ण वर्चस्व होता है। ब्रिटेन मे संसदीय शासन व्यवस्था है जिसके तहत लोकसदन मे बहुमत दल का नेता ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार होता है। ऐसी स्थिति मे दल के नेता की स्थिति और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। इसलिए आम चुनावों मे दलीय नीतियों के साथ ही दल के नेता को ध्यान मे रख जनता अपना मतदान करती है। 19 वीं सदी के उत्तरार्ध मे ग्लैस्टन व डिजरैली के बीच प्रतिद्वंद्विता प्रारंभ होकर चर्चिल व एटली, जान मेजर व नील किनाॅक तथा जाॅन मेजर व टोनी ब्लेयर के बीच तक चलती रही। इस दौरान जन-सामान्य ने दलों को नही बल्कि दलीय नेताओं के आधार पर मत दिया।
5. दलों की वर्गीय प्रकृति
ब्रिटेन के दोनों प्रमुख राजनीतिक दल ब्रिटिश समाज के दो वर्गों का प्रतिनिधित्व करते है अर्थात् अनुदार दल उच्च वर्ग व मध्य वर्ग का तो श्रमिक दल निम्न वर्ग व श्रमिकों के वर्ग का प्रतिनिधित्व करते है। इससे इन राजनीतिक दलों का वर्गीय चरित्र प्रकट होता है। तदुपरांत सत्ता प्राप्ति के लिए प्रत्येक दल को अपने जनाधार को निरंतर विकसित करते रहना होता है। इसलिए अब अनुदार दल उच्च वर्ग की छवि से बाहर निकलकर समाज के निचले तबकों के मध्य भी विश्वास हासिल करने का प्रयत्न करता है और श्रमिक दल समाजवादी छवि से विपरीत बाजारोन्मुखी आर्थिक नीतियों को अपनाकर समाज के उच्च वर्ग मे भी जनाधार प्राप्त करने की कोशिश करता है।
6. निरन्तर सक्रियता
चूंकि ब्रिटेन मे संसदीय प्रणाली है जिसमे सत्ता प्राप्ति का आधार संसद मे किसी दल को प्राप्त बहुमत होता है। इसलिए यहाँ राजनीति दल निरन्तर सक्रिय रहते है। चुनावों के पूर्व इन दलों की सक्रियता लोकसदन मे अधिकाधिक सीटें प्राप्त करने के लिए होती है और चुनाव के पश्चात पराजित दल अगले आम चुनाव मे विजय हासिल करने के लिए जनता को प्रभावित करने हेतु निरन्तर सक्रिय रहता है। अतः विजयी दल को भी लोकसदन मे अपना बहुमत तथा सामान्य जनता मे अपनी छवि बरकरार रखने के लिए सक्रिय रहना पड़ता है। समय-समय पर होने वाले उप-चुनावों मे भी दल सक्रिय रहते है क्योंकि इन्ही उप-चुनावों पर सत्ता रूढ़ का भविष्य निर्भर होता है। इसलिए ब्रिटेन मे राजनीतिक दल जनमत को प्रभावित करने के लिए जन सभाओं का आयोजन, विभिन्न सामाजिक कार्यक्रमों का संचालन, प्रचार प्रसार, व स्थानीय चुनावों मे अपनी सक्रियता दर्ज कराते रहते है।
7. संयम व समझौते की प्रवृत्ति
ब्रिटिश राजनीतिक दलों मे संयम व समझने की प्रवृत्ति पायी जाती है यद्यपि सिद्धांतों व नीतियों के आधार पर उनमे मतभेद होता है लेकिन आवश्यकतानुसार वे व्यावहारिक मुद्दों पर समझौते करने के लिए भी तैयार रहते है। इसी वजह से ब्रिटेन मे राष्ट्रीय संकट के समय मिली-जुली सरकार बनने मे देर नही लगती। समस्त राजनीतिक दलों को संवैधानिक साधनों मे पूर्ण भरोसा है और वे एक-दूसरे की नीतियों की आलोचना के अधिकार को मान्यता देते है। ब्रिटेन मे विपक्ष को सम्मान मिलता है। संसदीय शासन की सफलता का कारण राजनीतिक दलों की समझौतावादी प्रवृत्ति व सहिष्णुता भी है।
8. लूट प्रथा का अभाव
अमरीका के अध्यक्षात्मक शासन मे चुनाव होते ही बड़ी संख्या मे स्थायी पदाधिकारियों को बदला जाता है। उन सभी व्यक्तियों को बड़े-बड़े ओहदों से नवाजा जाता है जिन्होंने राष्ट्रपति को विजयी बनाने मे योग दिया था। इसे ही लूट की पद्धति कहा जाता है। ब्रिटेन मे ऐसी किसी पद्धति का अस्तित्व नही है। यहाँ चाहे किसी भी दल की सरकार बने, प्रशासनिक पदाधिकारी अपने पदों पर बने रहते हैं।
स्त्रोत; मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी
ब्रिटिश दल प्रणाली दीर्घकालीन विकास का परिणाम है। अपने लम्बे विकास क्रम मे यह विभिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरी है। ब्रिटेन मे दल व्यवस्था की अपनी कुछ विशेषताएं हैं।
ब्रिटिश दलीय व्यवस्था की विशेषताएं (british daliye vyavastha ki visheshta)
1. द्विदल पद्धतिब्रिटिश दलीय प्रणाली की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता इसकी द्विदलीय पद्धति है। ब्रिटेन मे प्रारंभ से ही दो दलों की प्रथा रही है। चार्ल्स प्रथम के समय कैलेवियर्स और राउण्डहैडस नामक दो दल रहे। तो चार्ल्स द्वितीय के काल मे टोरी और हिग नामक दो दलों का बोलबाला रहा। 19 वीं शताब्दी मे उदार दल व अनुदार दल प्रमुख दल बनकर उभरे। शनैः-शनै: उदारदल का स्थान श्रमिक दल ने ले लिया और वर्तमान मे ब्रिटेन मे इन्ही दो दलों की प्रधानता है-- अनुदार दल व श्रमिक दल। ब्रिटिश नागरिकों का मानना है कि द्वितीयक प्रणाली से मन्त्रिमण्डल मे स्थिरता, स्फूर्ति व सतर्कता का संचार होता है। इनसे व्यक्तियों की स्वतंत्रता व अधिकारों को सुरक्षा की प्राप्ति होती है और दोनों एक-दूसरे की शक्ति के नियंत्रण कर्ता है।
2. केन्द्रकरण
आबादी की एकरूपता व लघु भौगोलिक आकार के परिणामस्वरूप ब्रिटिश दलों की प्रवृत्ति केन्द्रीयकरण की रही है। यहां राजनीतिक दलों का संगठन अत्यंत सुदृढ़ है। प्रमुख दलों के आधार को व्यापक बनाने के लिए विभिन्न दलों मे, विभिन्न स्तरों पर इकाइयों का निर्माण किया गया है। सभी इकाइयों मे पूर्ण सामंजस्य है। दल की वास्तविक शक्ति दल के शीर्ष पर स्थिर है और वह समूचे दल पर नियंत्रण स्थापित करता है।
3. कठोर अनुशासन
ब्रिटेन मे सुदृढ व केन्द्रीयकृत राजनीतिक दल का स्वाभाविक परिणाम दलीय अनुशासन है। कार्टर के अनुसार " ब्रिटिश दल पद्धति की सरलता तथा अनुशासन अमरीकावासियों के लिए प्रशंसा तथा ईर्ष्या का विषय है। संसदीय शासन पद्धति होने के कारण सरकार का भविष्य लोकसदन के प्रांगण मे निश्चित होता है इसलिए ब्रिटेन मे दलीय अनुशासन का कठोर होना आवश्यक है। यहाँ पर लोकसदन मे दलीय सचेतकों की व्यवस्था की गई है। जो दलीय नेता के सम्पर्क मे रहते है। जो भी निर्देश इन्हें दलीय नेता के द्वारा प्राप्त होते है। संचेतक उन्हें सदस्यों तक पहुंचा देते है। सदस्यों के लिए इन निर्देशों का पालन करना अनिवार्य होता है अन्यथा उनके विरूद्ध कार्यवाही की जा सकती है। कठोर दलीय अनुशासन के कारण ही ब्रिटेन मे क्रास वोटिंग तथा दल-बदल जैसी राजनीतिक बुराइयां बहुत कम पायी जाती है।
4. दलीय नेतृत्व का वर्चस्व
ब्रिटेन मे दल का नेता, दल का केन्द्र स्थल है। उसका अपने समूचे पर पूर्ण वर्चस्व होता है। ब्रिटेन मे संसदीय शासन व्यवस्था है जिसके तहत लोकसदन मे बहुमत दल का नेता ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार होता है। ऐसी स्थिति मे दल के नेता की स्थिति और अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। इसलिए आम चुनावों मे दलीय नीतियों के साथ ही दल के नेता को ध्यान मे रख जनता अपना मतदान करती है। 19 वीं सदी के उत्तरार्ध मे ग्लैस्टन व डिजरैली के बीच प्रतिद्वंद्विता प्रारंभ होकर चर्चिल व एटली, जान मेजर व नील किनाॅक तथा जाॅन मेजर व टोनी ब्लेयर के बीच तक चलती रही। इस दौरान जन-सामान्य ने दलों को नही बल्कि दलीय नेताओं के आधार पर मत दिया।
5. दलों की वर्गीय प्रकृति
ब्रिटेन के दोनों प्रमुख राजनीतिक दल ब्रिटिश समाज के दो वर्गों का प्रतिनिधित्व करते है अर्थात् अनुदार दल उच्च वर्ग व मध्य वर्ग का तो श्रमिक दल निम्न वर्ग व श्रमिकों के वर्ग का प्रतिनिधित्व करते है। इससे इन राजनीतिक दलों का वर्गीय चरित्र प्रकट होता है। तदुपरांत सत्ता प्राप्ति के लिए प्रत्येक दल को अपने जनाधार को निरंतर विकसित करते रहना होता है। इसलिए अब अनुदार दल उच्च वर्ग की छवि से बाहर निकलकर समाज के निचले तबकों के मध्य भी विश्वास हासिल करने का प्रयत्न करता है और श्रमिक दल समाजवादी छवि से विपरीत बाजारोन्मुखी आर्थिक नीतियों को अपनाकर समाज के उच्च वर्ग मे भी जनाधार प्राप्त करने की कोशिश करता है।
6. निरन्तर सक्रियता
चूंकि ब्रिटेन मे संसदीय प्रणाली है जिसमे सत्ता प्राप्ति का आधार संसद मे किसी दल को प्राप्त बहुमत होता है। इसलिए यहाँ राजनीति दल निरन्तर सक्रिय रहते है। चुनावों के पूर्व इन दलों की सक्रियता लोकसदन मे अधिकाधिक सीटें प्राप्त करने के लिए होती है और चुनाव के पश्चात पराजित दल अगले आम चुनाव मे विजय हासिल करने के लिए जनता को प्रभावित करने हेतु निरन्तर सक्रिय रहता है। अतः विजयी दल को भी लोकसदन मे अपना बहुमत तथा सामान्य जनता मे अपनी छवि बरकरार रखने के लिए सक्रिय रहना पड़ता है। समय-समय पर होने वाले उप-चुनावों मे भी दल सक्रिय रहते है क्योंकि इन्ही उप-चुनावों पर सत्ता रूढ़ का भविष्य निर्भर होता है। इसलिए ब्रिटेन मे राजनीतिक दल जनमत को प्रभावित करने के लिए जन सभाओं का आयोजन, विभिन्न सामाजिक कार्यक्रमों का संचालन, प्रचार प्रसार, व स्थानीय चुनावों मे अपनी सक्रियता दर्ज कराते रहते है।
7. संयम व समझौते की प्रवृत्ति
ब्रिटिश राजनीतिक दलों मे संयम व समझने की प्रवृत्ति पायी जाती है यद्यपि सिद्धांतों व नीतियों के आधार पर उनमे मतभेद होता है लेकिन आवश्यकतानुसार वे व्यावहारिक मुद्दों पर समझौते करने के लिए भी तैयार रहते है। इसी वजह से ब्रिटेन मे राष्ट्रीय संकट के समय मिली-जुली सरकार बनने मे देर नही लगती। समस्त राजनीतिक दलों को संवैधानिक साधनों मे पूर्ण भरोसा है और वे एक-दूसरे की नीतियों की आलोचना के अधिकार को मान्यता देते है। ब्रिटेन मे विपक्ष को सम्मान मिलता है। संसदीय शासन की सफलता का कारण राजनीतिक दलों की समझौतावादी प्रवृत्ति व सहिष्णुता भी है।
8. लूट प्रथा का अभाव
अमरीका के अध्यक्षात्मक शासन मे चुनाव होते ही बड़ी संख्या मे स्थायी पदाधिकारियों को बदला जाता है। उन सभी व्यक्तियों को बड़े-बड़े ओहदों से नवाजा जाता है जिन्होंने राष्ट्रपति को विजयी बनाने मे योग दिया था। इसे ही लूट की पद्धति कहा जाता है। ब्रिटेन मे ऐसी किसी पद्धति का अस्तित्व नही है। यहाँ चाहे किसी भी दल की सरकार बने, प्रशासनिक पदाधिकारी अपने पदों पर बने रहते हैं।
स्त्रोत; मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी
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