3/11/2022

समाजीकरण की प्रक्रिया

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समाजीकरण की प्रक्रिया

Samajikaran ki prakriya ke charan karak;समाजीकरण एक प्रक्रिया है और प्रक्रिया निरन्तर चलने वाली क्रिया है। समाजीकरण की प्रक्रिया भी बाल्यावस्था से आरंभ होकर मृत्यु तक निरन्तर चलने वाली एक घटना हैं। नवजात शिशु को सामाजिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करने के अनेक स्तर होते हैं। ये स्तर विभिन्न आयु खण्डों में विभक्त रहते हैं। 
प्रो. जानसन ने समाजीकरण की प्रक्रिया को चार चरणों (स्तरों) में विभाजित किया हैं। ये चरण निम्नलिखित हैं-- 
1. मौखिक अवस्था 
यह प्रारंभिक अवस्था हैं। यह स्तर सामान्यतया आयु के एक-डेढ़ वर्ष तक ही रहता है। इस समय बच्चे की आवश्यकता जैविकीय एवं मौखिक होती हैं। इस समय बच्चा परिवार मे अपनी माँ के अतिरिक्त और किसी को नही पहचानता। वास्तव में इस समय बच्चे और माँ के कार्यों मे कोई अन्‍तर नही होता। बच्चा माँ के साथ एकरूपता स्थापित करता है और माँ मे ही विलीन हो जाता है। इस अवस्था मे बालक सिर्फ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संकेत देना सीख जाता हैं। 
2. शैशव अवस्था 
इस स्तर का आरंभ सामान्यतया डेढ़ वर्ष की आयु से होता है। इस स्तर में बच्चे से यह अपेक्षा की जाने लगती है कि शौच संबंधी क्रियाओं को सीखकर स्वयं करे। मिट्टी लगने पर हाथ साफ करना, आग से दूर रहना, कपड़े गंदे न करना आदि की भी शिक्षा दी जाने लगती है। इस अवस्था में बच्चा माँ से प्यार की इच्छा को ही नही रखता है बल्कि स्वयं भी माँ को स्नेह देने लगता है। बच्चे को सही व गलत काम के बारे में निर्देश दिया जाता हैं। सही काम के लिए बच्चे को प्यार किया जाता है और गलत काम के लिए डाँट-फटकार की जाती हैं। यहीं से बच्चा अपने परिवार और संस्कृति के समान मूल्यों के अनुसार व्यवहार करना आरंभ कर देता हैं। 
3. अन्तर्निहित अवस्था या तादात्मीकरण 
इस अवस्था का आरंभ तीन-चार वर्ष की अवस्था से होता है और बारह-तेहर वर्ष की अवस्था तक रहता हैं। इस अवस्था में वह पूरे परिवार से सम्बद्ध हो जाता है। इस स्तर पर बच्चे के सामाजिक वातावरण का क्षेत्र अति व्यापक हो जाता है। वह स्वयं चल फिर कर परिवार एवं समाज के अन्य सदस्यों से अपनी मित्रता करने लगता हैं। उसकी शौच आदि की आदतें नियमित एवं नियंत्रित होने लगती हैं। इस अवस्था में बालक यौन व्यवहार से भी थोड़ा-थोड़ा परिचित होने लगता है और उसमें स्वयं मे भी अव्यक्त रूप से यौन भावना का विकास होने लगता है और सम्भवतया इसीलिए इसको अन्तर्निहित अवस्था भी कहा जाता हैं। बच्चा इस स्तर पर अपने लिंग के अनुसार व्यवहार करना  शुरू कर देता हैं और धीरे-धीरे अपने लिंग के बारे में पूर्ण जागरूक हो जाता है और उसी के अनुरूप विभिन्न सामाजिक गुणों को सीखता हैं। इस स्तर पर बालक स्कूल जाना आरंभ कर देता हैं। 
4. किशोरावस्था 
इस स्तर का आरंभ सामान्यतः 12-13 वर्ष की आयु से होता है और 21 वर्ष की उम्र तक रहता हैं। समाजशास्त्रियों तथा मनोवैज्ञानिकों ने इस स्तर को बहुत महत्वपूर्ण माना हैं। इस स्तर मे व्यक्ति मे स्वयं सीखने की जिज्ञासा जागृत हो जाती है। उसके विचारों में कुछ क्रम और तर्क आने लगते हैं तथा वह संवेदनशील हो जाता हैं। मित्रता की भावना इस काल में कुछ दृढ़ हो जाती हैं। इस स्तर में किशोर एक ओर अधिक-से-अधिक स्वतंत्रता चाहता है तो दूसरी ओर परिवार व विभिन्न समूहों द्वारा उसके सभी व्यवहारों पर उचित नियंत्रण रखा जाता हैं। यह स्तर सामाजिक और मानसिक रूप से सबसे अधिक तनावपूर्ण होता हैं। इस अवस्था में अनेक शारीरिक परिवर्तन भी होते हैं और उन परिवर्तनों से अपना अनुकूलन करने के लिए व्यवहारों के नये तरीके भी सीखने पड़ते हैं। यह स्तर विस्तृत जगत के सदस्यों के व्यवहारों से भी प्रभावित होता हैं। परिवार के साथ-साथ शिक्षण संस्था, खेल-कूद के साथी, पड़ौस तथा समाज के नये तथा अपरिचित सदस्यों के संपर्क में आता है तथा समायोजन करता है। 
जानसन के अनुसार किशोरावस्था समाजीकरण का अन्तिम चरण है, परन्तु वास्तविकता यह है कि वयस्क होने के बाद भी मृत्युपर्यन्त समाजीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है। यह अवश्य है कि किशोरावस्था के बाद यह प्रक्रिया उतनी कठिन नहीं रह जाती हैं।

समाजीकरण की प्रक्रिया के कारक

समाजीकरण व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। व्यक्ति उन सभी व्यक्तियों, समूहों तथा संस्थाओं से कुछ न कुछ अनुभव प्राप्त करता हैं, सीखता है जिनके कि वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्पर्क मे आता है। समाजीकरण से व्यक्ति सामाजिक आदर्शों, मूल्यों, मान्यताओं, रूढ़ियों आदि से अपना सामन्जस्य करता हैं और उसी की मर्यादाओं के साथ अपना आत्मसात करते हैं।
समाजीकरण की प्रक्रिया में निम्‍नलिखित कारक निरंतर योगदान देते रहते हैं--
1. पालन-पोषण
पालन-पोषण प्रणाली समाजीकरण की प्रक्रिया का प्रथम चरण हैं। पालन-पोषण प्रणाली बच्चे को अत्यधिक प्रभावित करती है। बच्चे का पालन-पोषण किस ढंग से हो रहा है, उसकी सुख-सुविधाओं के लिए कैसा वातावरण प्रदान किया जाता है इसी के अनुरूप बच्चों मे भावनाओं, रूचियों एवं अनुभूतियों का विकास होता है। अगर माता नियन्त्रत और सामाजिक रूप से बच्चों को दूध पिलाती है, खाना खिलाती है तो बच्चे समय के अनुसार खाने-पीने, पेशाब-पखान करने की आदत पड़ जाती है। यदि प्रारंभ मे बच्चे की देखभाल ठीक ढंग से नही हो पाती तो उसे सदैव अनेक अभावों का सामना करना पड़ता है तो उसमे प्रायः समाज विरोधी भावना विकसित होने की सम्भावना रहती है।
2. सहानुभूति
सहानुभूति से बच्चे मे प्रेम और अपनत्व की भावना का विकास होता है तथा वह अपने पराये को पहचानने मे समर्थ होता है। यदि बालक के साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार नही किया जाता तो उसमे भय और घृणा की भावना का विकास होगा जो उसको विचलनकारी बना सकता है। बच्चा अपने माता-पिता, परिवार, पड़ोसी, दोस्तों से सहानुभूतिपूर्वक बर्ताव के कारण उनमे विश्वास करता है, उनको अपना समझता है और उनके व्यवहारों को अपनाने की कोशिश करता हैं।
3. सामाजिक प्रशिक्षण
बच्चों का समाजीकरण सामाजिक प्रशिक्षण के द्वारा भी होता हैं। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है वह अपने समाज के मूल्यों, आदर्शों, मान्यताओं के अनुरूप व्यवहार करना सीखने लगता है तथा परिस्थितियों के साथ सामन्जस्य करने लगता है।
4. अनुकरण
अनुकरण के द्वारा भी बच्चा सीखता है। बालक के समाजीकरण मे अनुकरण का बहुत अधिक महत्व होता है क्योंकि आरंभ से ही वह दूसरों का अनुकरण करके अनेक बातों को सीखता है। इसलिए अनुकरण को समाजीकरण का महत्वपूर्ण तत्व कहा जाता है। जैसा घर और समाज के लोग बोलते-चलाते और व्यवहार करते है, बच्चे उसी का अनुकरण करते है और फिर वैसा ही व्यवहार करते है।
5. आत्मीकरण
माता-पिता, परिवार और पड़ौस के स्नेह, प्रेम और सुन्दर व्यवहारों के कारण बच्चा उनको अपना रक्षक, शुभ-चिन्तक, हित-चिन्तक समझने लगता है। ऐसा समझकर वह अपने माता-पिता, परिवार और समाज के साथ आत्मीकरण कर लेता है और उनके आदर्शों को सीखता है।
6. परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण
सामाजिक जीवन मे प्रत्येक परिस्थिति मे समान व्यवहार से काम नही चलता। अलग-अलग प्रकार की परिस्थितियों मे भी समय-समय और स्थान-स्थान पर अनेक प्रकार की भूमिकाएं अदा करनी होती है। प्रत्येक परिस्थिति मे एक समान व्यवहारों से लक्ष्यों की पूर्ति नही हो पाती है। ऐसी स्थिति मे मनुष्यों को बहुत कुछ प्रत्यक्ष जीवन मे घटित घटनाओं से सीखना पड़ता है।
7. निर्देश
समाजीकरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया वस्तुतः सहयोग पर आधारित है। समाज व्यक्ति को सामाजिक बनने मे सहयोग देता है। समाज की सहयोगी भावना व्यक्ति को सामाजिक बनने मे सहयोग देती है। व्यक्ति अपने साथ जब अन्य लोगों का सहयोग
8. सहयोग
समाजीकरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया वस्तुतः सहयोग पर आधारित हैं। समाज व्यक्ति को सामाजिक बनने मे सहयोग देता है। समाज की सहयोगी भावना व्यक्ति को सामाजिक बनने मे सहयोग देती हैं। व्यक्ति अपने साथ जब अन्य लोगों का सहयोग पाता है तो वह दूसरे के साथ स्वयं भी सहयोग करने लगता है। फलस्वरूप मनुष्य की सामाजिक प्रवृत्तियां संगठित होती हैं।

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9. पारस्परिक व्यवहार
दूसरों के सम्पर्क मे आने के बाद व्यक्ति उनसे प्रभावित होता है और साथ-साथ अन्य लोगों को प्रभावित भी करता है। अपने प्रति दूसरों के जिस व्यवहार को वह स्वयं पसंद करता है, उसी प्रकार का व्यवहार दूसरों के प्रति भी करता हैं।
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समाजशास्त्र 
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