3/09/2022

भूमिका का अर्थ, विशेषताएं

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भूमिखका या कार्य का अर्थ, भूमिका या कार्य किसे कहते है? (bhumika ka arth)

प्रत्येक समाज जो वह आदिम हो अथवा आधुनिक, उसका निर्माण अनेक संस्थाओं और समूहों मे होता हैं। इन संस्थाओं और समूहों की एक निश्चित संरचना होती है। प्रत्येक व्यक्ति समाज की संरचना मे पदों और कार्यों की अन्त: सम्बन्धित पर आधारित होता है। व्यक्ति अपने पद के अनुरूप जिन कार्यों का सम्पादन करता है, उसे ही उसकी भूमिका के नाम से जाना जाता हैं।
दूसरे शब्दों में प्रत्येक स्थिति के साथ कुछ कार्य भी सम्बध्द रहते है। सामान्य रूप से अपेक्षा की जाती है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी स्थिति के अनुकूल कार्य करना चाहिये। किसी भी स्थिति मे सम्बद्ध दायित्वों को ही समाजशास्त्र मे कार्य या भूमिका कहा जाता है।
इस लेख मे हम भूमिका या कार्य की परिभाषा, विशेषताएं और भूमिका के निर्धारक तत्व जानेंगे।
वास्तव मे किसी भी स्थिति की सार्थकता उससे सम्बद्ध कार्यों या भूमिका से ही सिद्ध होती है। हम संक्षेप मे कह सकते है कि समाजशास्त्रीय भाषा मे भूमिका या कार्यों से तात्पर्य उन सभी कार्यों से है, जिनकी उपेक्षा समाज किसी व्यक्ति से उसकी विशिष्ट स्थिति सन्दर्भ मे करता है। इसी प्रकार प्रत्येक सामाजिक पद या स्थिति से सम्बध्द कुछ कार्य होते हैं। इस कार्य अथवा भूमिका का निर्माण दो प्रमुख तत्वों द्वारा होता हैं। ये तत्व हैं---
(a) समाज की प्रत्याशायें
(b) इन प्रत्याशाओं अनुरूप बाहरी क्रियाओं का करना।
भूमिका या कार्य की परिभाषा
फिचर के अनुसार " जब बहुत से अतः सम्बंधित व्यवहार प्रतिमान एक सामाजिक प्रकार्य के चारों और एकत्रित हो जाते है तो उसी सम्मिलन को हम सामाजिक कार्य कहते हैं।
इलियट तथा मेरिल के अनुसार " भूमिका वह कार्य है जिसे वह (व्यक्ति) प्रत्येक स्थिति के लिए करता हैं।
सार्जेण्ट अनुसार " किसी व्यक्ति का कार्य सामाजिक व्यवहार का वह प्रतिमान अथवा प्रारूप है, जो कि उसे एक परिस्थिति विशेष मे अपने समूह के सदस्यों की मांगों व प्रत्याशाओं के अनुरूप प्रतीत होता हैं।

भूमिका या कार्य की विशेषताएं (bhumika ki visheshta)

भूमिका की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--
1. सामाजिक स्वीकृति
भूमिका का सम्पादन व्यक्ति विशेष की इच्छा पर आधारित नही हैं, अपितु इसका निर्धारण सम्पूर्ण समाज की स्वीकृति पर आधारित होता है। इसका कारण यह है कि भूमिका का निर्धारण एक विशेष संस्कृति के नियमों के द्वारा होता हैं।
2. भूमिकाओं की विविधता
भूमिकाओं मे विविधता पायी जाती है। एक ही क्षेत्र मे निवास करने वाले व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमिकाओं का का सम्पादन करना पड़ता है। एक व्यक्ति को अनेक व्यक्तियों के साथ तथा अनेक संस्थाओं मे अलग-अलग प्रकार की भूमिकाओं का निर्वाह करना हैं। जैसे परिवार, काॅलेज, क्लब, आर्थिक संगठन आदि मे व्यक्ति की भूमिकाओं मे भिन्नताएं।
3. भूमिका निश्चित
प्रत्येक सामाजिक स्थिति से सम्बध्द कार्य निश्चित होते हैं। अतः विशिष्ट स्थिति पर आसानी व्यक्ति से समाज उन्ही कार्यों की प्रत्याशा रखता है जो उसके लिये अभीष्ट होते हैं।
4. भूमिका के स्वरूप का निर्धारण सांस्कृतिक मान्यताओं द्वारा होता हैं
कार्य अथवा भूमिका के स्वरूप या प्रतिमान का निर्धारण सामाजिक सांस्कृतिक मान्यताओं द्वारा होता है। कोई व्यक्ति इच्छा से अपने निर्धारित कार्यों मे परिवर्तन नही कर सकता।
5. सामाजिक व्यवहार की सीमायें निर्धारित
सामाजिक संगठन एवं सामाजिक जीवन के लिये कार्य या भूमिका का विशेष महत्व है। इसी के द्वारा व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार की सीमायें निर्धारित होती है तथा सम्पूर्ण समाज व्यवस्थित रूप से चलता रहता हैं।
6. गतिशील अवधारणा
सामाजिक भूमिका की अवधारणा स्थिर न होकर गतिशील है। गतिशीलता के कारण ही इसमे समय-समय पर परिवर्तन होते रहते है। सामाजिक परिवर्तन की स्थिति मे व्यक्ति जैसे-ही-जैसे अपने समाज और संस्कृति का अनुकूलन करता जाता है, उसमे परिपक्वता आती जाती हैं।
7. व्यक्तिगत रूचि का महत्व 
एक व्यक्ति को अनेक प्रकार की भूमिकाओं का निर्वाह करना पड़ता है, किन्तु वह सभी भूमिकाओं को समान रूचि से नही करता है। किसी भूमिका को वह रूचि से सम्पादित करता है, जबकि अन्य को अरूचि से। इसका कारण यह है कि व्यक्ति की योग्यता, रूचि और मनोवृत्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध होता हैं।
8. एक ही व्यक्ति भिन्न भूमिका निभाता हैं
एक ही व्यक्ति क्षेत्रों मे भिन्न-भिन्न कार्य या भूमिका निभाता हैं। उदाहरण के लिए एक ही व्यक्ति घर पर पति, पिता अथवा पुत्र के कार्य पूरे करता है तथा अपने व्यवसाय मे वह कर्मचारी, अफसर, अथवा व्यापारी के कार्य करता हैं।
9. भूमिकाओं का महत्व
व्यक्ति द्वारा सम्पादित भूमिकाओं का समाज मे महत्व होता है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नही है कि व्यक्ति द्वारा सम्पादित सभी भूमिकाएं समान महत्व की हों। इस दृष्टि से भूमिकाएं दो प्रकार की होती हैं--- (a) प्रमुख भूमिकाएं 
(b) सामान्य भूमिकाएं

प्रस्थिति एवँ भूमिका 

स्पष्टतः किसी भी समाज में सामाजिक संबंध अनंत प्रकार के होते हैं मातृ-पितृत्वता वैवाहिकता, मित्रता, पड़ौसीपन और इसी तरह के अनेक संबंध सामाजिक संबंधों के व्यापक रूप को दर्शाते हैं। इन्ही संबंधों का समाजशास्त्री अध्ययन करते हैं तथा इस अध्ययन के आधार पर वे समाज के स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं। विवेचना तथा विश्लेषण के लिए हर सामाजिक संबंध दो आयामों में देखा जाता है। एक है 'प्रस्थिति' तथा दूसरा है 'भूमिका'। 
समाज में होने वाले पारस्परिक संबंधों के संगठन में हर व्यक्ति की एक निश्चित जगह होती है, उसे ही प्रस्थिति कहा जाता है। प्रत्येक पारस्परिक संबंध में यह हो ही नहीं सकता कि हर व्यक्ति की सुपरिभाषित जगह न हो। कोई भी व्यक्ति एक दूसरे को प्रभावित नहीं कर सकता। यदि दी गई परिस्थिति में उसकी प्रस्थिति के साथ-साथ दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों की प्रस्थिति मालूम न हो। 
इस प्रकार परिवार में पारस्परिक संबंधों में कोई परेशानी नहीं होती क्योंकि प्रत्येक सदस्य को अपनी एवं दूसरों की प्रस्थिति की जानकारी होती है। इस जानकारी से पारस्परिक संबंध निरंतर बना रहता है और उसका पूर्वानुमान भी रहता है। परन्तु जब हम किसी अजनबी से मिलते हैं तो हम सबसे पहले उसकी प्रस्थिति जानना चाहते हैं। जब तक हमें उसकी प्रस्थिति का पता नहीं चलता तब तक हमें यह स्पष्ट नहीं होता कि हम उसके साथ कैसा व्यवहार करें। अतः प्रस्थिति एवँ उसकी जानकारी से ही पारस्परिक संबंधों का ढांचा तैयार होता है।
शायद यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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