3/08/2022

संस्था किसे कहते है? अर्थ, परिभाषा, कार्य एवं विशेषताएं/आवश्यक तत्व

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प्रश्न; संस्था को परिभाषित करते हुए इसके सामाजिक कार्य एवं इसके समाजशास्त्रीय महत्व को बताइये। 
अथवा" संस्था की परिभाषा दीजिए। इसकी विशेषताओं की विवेचना कीजिए। 
अथवा" संस्था से आप क्या समझते हैं? संस्था के मुख्य लक्षण बताइए।
अथवा" संस्था के मुख्य कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर--

संस्था किसे कहते हैं?(sanstha kya hai)

समाज मे दो प्रकार के हित होते हैं-- समान्य हित, और विशिष्ट हित। समान्य हित समान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, जबकि विशिष्ट हित मे किसी विशिष्ट आवश्यकता की पूर्ति की जाती है। इन विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समिति का निर्माण किया जाता है। इन समितियों के द्वारा उद्देश्यों की प्राप्ति तभी सम्भव है, जबकि समिति का संचालन एक व्यवस्था के द्वारा हो, कुछ नियम और कार्यप्रणालियों को अपनाया जाता हैं। समिति की इन्ही कार्य-प्रणालीयों और नियमों को संस्था कहा जा सकता हैं। इस प्रकार परिवार, राज्य, विवाह और सरकार सभी संस्थाएं हैं। जब समिति बनाते हैं, तब ये सामान्य कार्य-व्यापार के संचालन तथा सदस्यों के पस्पर नियमन के लिए नियम और कार्यप्रणालियां भी बनाते हैं। ये नियम ही संस्थाएं हैं।

संस्था का अर्थ (sanstha ka arth)

मानव के कुछ सामान्य हित तथा कुछ विशेष हित होते हैं। सामान्य हितों कि पूर्ति के लिए बनाये गये संगठनों को समुदाय कहते हैं। विशेष हितों की पूर्ति के लिए बनाये गये संगठनों को समिति कहते हैं। इन विशेष उद्देश्यों या हितों को कार्य रूप मे परिणित करने के लिए जो साधन, तौर-तरीकों, विधियां, प्रणालियाँ आदि उपयोग मे लायी जाती हैं, उन्हें संस्थायें कहा जाता हैं।

संस्था की परिभाषा (sanstha ki paribhasha)

बोगार्डस के अनुसार, " एक सामाजिक संस्था समाज का वह ढांचा होता हैं, जो मुख्य रूप से सुव्यवस्थित विधियों के द्वारा व्यक्तियों की जरूरतों की पूर्ति के लिए संगठित किया जाता हैं।"
मैकाइवर और पेज, "संस्था कार्यप्रणालियों के स्थापित स्वरूप या दशा को कहते है जो समूह की सामूहिक क्रियाओं की विशेषता हैं।"
सदरलैण्ड, " एक संस्था अनरीतियों एवं रूढ़ियों का ऐसा समूह है, जो कुछ मानवीय उद्देश्यों की पूर्ति मे केन्द्रीभूत होता हैं।"
बेबलिन, "संस्थाएं सामान्य जनता मे पाई जाने वाली विचार करने की स्थिर आदतें हैं।
गिलिन और गिलन, "एक सामाजिक संस्था सांस्कृतिक प्रतिमानों का वह कार्यत्मक समूह हैं (जिसके अन्तर्गत क्रियायें, विचार, मनोवृत्तियाँ तथा सांस्कृतिक उपकरण भी सम्मिलित हैं) जो बहुत कुछ स्थायी होता है एवं जिसका उद्देश्य अनुभव होने वाली सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता हैं।"
राॅस के अनुसार," सामाजिक संस्थाएं संगठित मानवीय संबंधों की वह व्यवस्था हैं जो सामान्य इच्छा द्वारा स्थापित या स्वीकृत होती हैं।"
मैरिल और एलरिज के अनुसार," सामाजिक संस्थाएं आचरण के वे प्रतिमान हैं, जो मनुष्य को मुख्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निर्मित हुए हैं।"

संस्था के कार्य अथवा महत्व (sanstha ke karya)

संस्था के कार्य एवं महत्व को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है--
1. सामाजिक नियन्त्रणों के साधनों की व्यवस्था
संस्थाएं विधियों एवं कार्यप्रणालियों का समूह होती हैं। ये समाज मे व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित एवं नियन्त्रित करती हैं। संस्था के पीछे समाज की अभिमति होती है और समाज द्वारा ही दिये गये अधिकारों के बल पर संस्था सामाजिक नियन्त्रण का कार्य करती हैं।
2. संस्था व्यक्ति को कार्य एवं पद प्रदान करती हैं
व्यवस्थि कार्य-प्रणाली के रूप मे संस्था व्यक्ति के पद व कार्यों को भी निश्चित करती है। जिससे एक तरफ तो संघर्ष कम हो और दूसरी तरफ विभिन्न स्तरों पर लोगों के प्रयत्नों को संगठित किया जा सके और हितों की प्राप्ति मे सहूलियत हो। उदाहरण के लिए विवाह एक संस्था है जो पति व पत्नी को केवल यौन संबंधों की स्वीकृति ही नही देती, बल्कि पति व पत्नी के रूप मे उन्हें सामाजिक स्थिति भी प्रदान करती हैं। साथ ही समूह की मान्यताओं के अनुसार उनकी अनेक जिम्मेदारियों का भी निर्धारण करती हैं।
3. मानव आवश्यकताओं की पूर्ति
संस्था का सबसे महत्वपूर्ण कार्य मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करना हैं। संस्था का विकास ही किसी न किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए हुआ हैं। जैसे यौन-सम्बधी आवश्यकता की पूर्ति-विवाह की संस्था के द्वारा होती हैं। इसी प्रकार सभी संस्थाओं का जन्म किसी-न-किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए होता हैं।
4. मानव-व्यवहारों की नियंत्रक
संस्था मनुष्य के व्यवहारों को नियंत्रित करती हैं। संस्था के पीछे सामूहिक स्वीकृत होती हैं। अतः व्यक्ति संस्था के निर्देशों का सहसा उल्लंघन नहीं करता। जैसे-- हिन्दुओं में आज भी अन्तर्जातीय विवाह प्रचलित नहीं हैं, क्योंकि हिन्दु धर्म इसे स्वीकार नहीं करता। 
5. व्यवहारों में अनुरूपता 
प्रत्येक संस्था की अपनी निश्चित, लिखित एवं अलिखित परम्परायें होती हैं। अतः व्यक्तियों को अपनी विशिष्ट आवश्यकता की पूर्ति हेतु निश्चित नियम तथा कार्य-प्रणालियों के अनुरूप ही कार्य करना पड़ता हैं। इससे व्यक्तियों के व्यवहार में अनुरूपता या समानता आ जाती हैं। 
6. सामाजिक परिवर्तन में सहायक 
सामाजिक संस्थायें सामाजिक परिवर्तन में भी सहायक होती हैं। जब मनुष्य एक ही कार्य प्रणाली के अनुसार कार्य करते-करते ऊब जाता है तो वह उनमें परिवर्तन करने का प्रयास करता हैं। संस्थाओं मे इस प्रकार के परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन के कारण बन जाते है।
7. संस्था सदस्यों के व्यवहारों मे अनुरूपता लाती हैं
समूह मे सदस्यों के व्यवहारों के अनुरूप लाना भी संस्था का एक महत्वपूर्ण कार्य हैं। संस्था समान हितों पर आधारित होती है। एक संस्कृति मे संस्था लोगों के सामने आदर्श रखने के साथ उन पर नियंत्रण भी रखती है। इन सब बातों के फलस्वरूप संस्थाएं समाज मे व्यक्ति के व्यवहारों के अनुरूप लाने का प्रयास करती हैं। इससे समाज मे एकता का विकास होता है और सामाजिक संगठन को बल मिलता हैं।
8. सामाजिक अनुकूलन में सहायक 
समाज के साथ अनुकूलन करने में संस्थायें हमारी मदद करती हैं। अपनी कार्य-प्रणालियों तथा नियमों के द्वारा जटिल परिस्थितियों में किस प्रकार समाज के साथ तादात्म स्थापित करना चाहिए, यह हमें संस्थायें ही बताती हैं। 
9. व्यक्ति के कार्य को सरल बनाना
समाज मे व्यक्ति के सम्बन्ध संख्या मे बहुत अधिक होते है। इन सम्बन्धों की प्रकृति जटिल और भिन्नता लिए हुए होती है। इस अवस्था मे संस्था उसकी सहायता करती है। संस्था उसे यह बतलाती है कि उसे किस अवसर पर किस प्रकार का आचरण करना चाहिए। इस प्रकार संस्था व्यक्ति के कार्य को सरल बनाती हैं।
10. संस्कृति की वाहक
संस्थाएं संस्कृति की वाहक होती हैं। ये संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करती रहती हैं।
धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक संस्थाएं संस्कृति के विभिन्न भागों की रक्षा करती है और आगे वाली सन्तानों को सौंप देती हैं।
11. संस्थाएं सामूहिक जीवन मे व्यक्ति का मार्गदर्शन करती हैं
संस्थाएं सामूहिक अनुभवों एवं प्रयोगों के फलस्वरूप सामूहिक हितों की प्राप्ति की स्वीकृति एवं स्थापित कार्य प्रणालियाँ हैं। इसलिए समाज मे व्यक्ति को नये सिरे से अपने हितों की प्राप्ति के लिए सोचना नही पड़ता। संस्थाओं के माध्यम से व्यक्ति को एक बनी बनाई व्यवस्था या कार्यप्रणाली मिल जाती है जिससे उसका कार्य बहुत कुछ सरल हो जाता हैं।
प्रस्थिति एवं कार्य का निर्धारण 
संस्थायें व्यक्ति की समूह में प्रस्थिति एवं तदनुसार उसके कार्यों का निर्धारण करने का महत्वपूर्ण कार्य करती हैं, जैसे-- विवाह के द्वारा पुरूष और स्त्री को पत्नी की प्रस्थिति प्राप्त होती है और उसी के अनुसार उनके कार्यों का निर्धारण भी होता हैं। 

संस्था की विशेषताएं/आवश्यक तत्व (sanstha ki visheshta)

संस्था की निम्नलिखित विशेषताएं एवं आवश्यक तत्व हैं--
1. निश्चित उद्देश्य 
प्रत्येक संस्था के कुछ उद्देश्य होते है, उद्देश्य के अभाव मे संस्था का अस्तित्व सम्भव नही हैं।
2. धारणा
धारणा संस्था का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। इस धारणा मे सामाजिक हित तत्व रूप से विद्यमान रहता हैं। संस्था का विकास ही किसी धारणा या विचार से होता है और समूह के अस्तित्व की रक्षा के लिये इसको अपनाया जाता हैं।
3. संस्था सम्पूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था मे एक इकाई के रूप मे कार्य करती है
संस्कृति समूह की आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। संस्था किसी अथवा किन्ही उद्देश्यों की पूर्ति की स्थापित कार्यप्रणाली एवं तत्संबंधी व्यवहार प्रतिमान हैं। संस्कृति मे ज्ञान, विश्वास, प्राथ-परम्परा तथा समूह व्यवहार की आदत या जनरीति का समावेश होता है। संस्था समूह हित से सम्बंधित व्यवस्थित एवं स्थापित रीतियों, प्रथाओं एवं रूढ़ियों तथा कतिपय सांस्कृतिक तत्वों का एक प्रकार्यात्मक संयोग है। संस्था समाज से सम्बंधित हितों की पूर्ति तो करती है किन्तु साधारणतः अन्य संस्थाओं के सापेक्ष मे ही। इसलिए संस्था की क्रियाशीलता को सम्पूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था के सापेक्ष मे ही समझने की बात गिलिन व गिलिन ने कही हैं।
4. संस्था की बहुत विश्चित, लिखित अथवा अलिखित परम्परा होती हैं
संस्था को व्यवस्थित करने व स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से परम्परा का अत्यधिक महत्व होता है। परम्परा किसी संस्था से सम्बंधित प्रतीकों, उपकरणों, सदस्यों के व्यवहार, प्रतिमानों तथा मनोवृत्तियों को परस्पर संयुक्त भी करती है। यह लिखित हो सकती है और अलिखित भी।
5. ढाँचा
बिना उचित ढांचे के कोई भी संस्था विकसित नही हो सकती। ढांचे से तात्पर्य उन नियमों अथवा कार्य प्रणाली से हैं जिनके द्वारा संस्था का कार्य चलता है तथा उद्देश्य प्राप्ति होती हैं।
6. निश्चित नियम
प्रत्येक संस्था कुछ निश्चित नियमों को अपनाती है। सही नियम एक संस्था को दूसरी संस्था से पृथक करते हैं।
7. प्रतीक
प्रत्येक संस्था का कोई न कोई प्रतीक अवश्य होता है। यह प्रतीक भौतिक या अप्रतिक भौतिक दोनों ही प्रकार का हो सकता हैं।
8. स्वीकृति एवं अधिकार
संस्थाएं समूह के द्वारा मान्यता-प्राप्त होती हैं। इनका उल्लंघन नही किया जा सकता हैं। इसके लिये यह आवश्यक है कि समूह इन्हें कुछ अधिकार दे देता है, जिसमे संस्थाएं अपने उद्देश्यों को पूरा करती हैं।
9. संस्था तुलनात्मक रूप से स्थायी होती हैं
संस्था समाज द्वारा स्वीकृत व समाज द्वारा स्थापित होती है। इसमे समूह का विगत अनुभव एवं कल्याण का तत्व निहित होता हैं। इतना ही नही हम सामूहिक जीवन मे संस्थागत व्यवहार के अभ्यस्त हो जाते है। इसलिए संस्था मे आग्रह व स्थायित्व आ जाता है। जैसे कोई व्यक्ति किसी व्यवहार या कार्य को बार-बार करता रहता है तो ऐसी उसकी आदत बन जाती है। आदत न तो जल्दी बनती है और न ही जल्दी टूटती हैं। इसी प्रकार कोई विश्वास या व्यवहार की प्रणाली संस्थागत तभी होती हैं, जबकि वह किसी समूह के सदस्यों द्वारा एक उल्लेखनीय समय तक सामान्य रूप से स्वीकार की गई होती हैं। स्थायित्व का यह अर्थ नही है कि संस्थाएं कभी नष्ट नही होती। आशय सिर्फ इतना है कि इनमें परिवर्तन शीघ्र नही होता।
शायद यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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