विकास का अर्थ (vikas kise kahte hai)
हर वस्तु या प्राणी मे कुछ न कुछ मूल या गुण विशेष रूप से होते है पर आरंभ मे ये छिपे रहते है। अवसर व आयु के अनुसार इन गुणों को बाहर दिखलाई देने का अवसर मिलता है। ये धीरे-धीरे बाहर आ जाते है तथा बढने लगते है। आंतरिक गुणों का बाहरी रूप मे बढ़ना ही विकास कहलाता है। इस तरह विकास बालक तथा समाज दोनों मे ही होता है। बालक के विकास का एक निश्चित क्रम होता है और सभी स्थानों पर समान रूप से होता है किन्तु समाज को विकास का कोई भी निश्चित व सार्वभौमिक क्रम नही है और यह विकास सभी स्थानों पर सभी समाजों पर एक साथ या समान रूप से होता है।
सामाजिक उद् विकास की प्रकृति उद् विकास से मौलिक रूप से भिन्न है। इसलिए आधुनिक समाजशास्त्रीय साहित्य मे उद् विकास के स्थान पर विकास शब्द का प्रयोग अधिकांशतया किया जाता है। समाजशास्त्रीय साहित्य मे विकास शब्द की लोकप्रियता का श्रेय हाब हाउस को जाता है। हाब हाउस ने हाॅलांकी स्पेंसर के उद् विकासीय सिद्धांत के कतिपय पहलुओं की आलोचना की किन्तु उसने सामाजिक विकास के जो आधार निश्चित किए वे बहुत कुछ जैविक उद् विकास के आधारों से मिलते-जुलते है। वास्तव मे दोनो अवधारणाओं मे बहुत समानता है अन्तर मुख्यतया यह है कि उद् विकास की व्याख्या करते समय परिवर्तन के जैविक पक्ष पर जोर दिया जाता है, जबकि विकास की व्याख्या मे ऐतिहासिक पक्ष पर बल दिया जाता है। दूसरे शब्दों मे, सामाजिक विकास समाज मे ऐतिहासिक परिवर्तन को दर्शाता है।
सामाजिक दृष्टि से विकास सामाजिक संस्थाओं की वृध्दि को कहा जा सकता है। विकास एक प्रकार से ऐसी आंतरिक शक्ति है जो किसी प्राणी या समाज को उन्नति की ओर ले जाता है। विकास उस स्थिति का नाम है जिससे प्राणी मे कार्य क्षमता बढती हैं। विकास को एक तरह से अभिवृद्धि भी कहा जा सकता है।
फ्रांसिस एफ. पावर्स " सामाजिक दाय को ध्यान मे रखकर व्यक्ति के सत् कार्यों, उत्तरोत्तर विकास और उन सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप व्यवस्थित चरित्र का निर्माण ही सामाजिक अभिवृद्धि है।
सामाजिक उद् विकास की प्रकृति उद् विकास से मौलिक रूप से भिन्न है। इसलिए आधुनिक समाजशास्त्रीय साहित्य मे उद् विकास के स्थान पर विकास शब्द का प्रयोग अधिकांशतया किया जाता है। समाजशास्त्रीय साहित्य मे विकास शब्द की लोकप्रियता का श्रेय हाब हाउस को जाता है। हाब हाउस ने हाॅलांकी स्पेंसर के उद् विकासीय सिद्धांत के कतिपय पहलुओं की आलोचना की किन्तु उसने सामाजिक विकास के जो आधार निश्चित किए वे बहुत कुछ जैविक उद् विकास के आधारों से मिलते-जुलते है। वास्तव मे दोनो अवधारणाओं मे बहुत समानता है अन्तर मुख्यतया यह है कि उद् विकास की व्याख्या करते समय परिवर्तन के जैविक पक्ष पर जोर दिया जाता है, जबकि विकास की व्याख्या मे ऐतिहासिक पक्ष पर बल दिया जाता है। दूसरे शब्दों मे, सामाजिक विकास समाज मे ऐतिहासिक परिवर्तन को दर्शाता है।
सामाजिक दृष्टि से विकास सामाजिक संस्थाओं की वृध्दि को कहा जा सकता है। विकास एक प्रकार से ऐसी आंतरिक शक्ति है जो किसी प्राणी या समाज को उन्नति की ओर ले जाता है। विकास उस स्थिति का नाम है जिससे प्राणी मे कार्य क्षमता बढती हैं। विकास को एक तरह से अभिवृद्धि भी कहा जा सकता है।
विकास की परिभाषा (vikas ki paribhasha)
अतएव सोरेन्सर " सामाजिक अभिवृद्धि व विकास का तात्पर्य है अपनी दूसरो की उन्नति के लिए योग्यता वृद्धि है।फ्रांसिस एफ. पावर्स " सामाजिक दाय को ध्यान मे रखकर व्यक्ति के सत् कार्यों, उत्तरोत्तर विकास और उन सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप व्यवस्थित चरित्र का निर्माण ही सामाजिक अभिवृद्धि है।
इरा. जी. गोर्डन के अनुसार," विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति के जन्म से लेकर उस समय तक चलती रहती है जब तक कि वह पूर्ण विकास को प्राप्त नही कर लेता हैं।"
स्किनर के अनुसार," विकास जीव और उसके वातावरण की अंत:क्रिया का प्रतिफल हैं।"
हरलाॅक के अनुसार," विकास, अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं हैं। इसके बजाय इसमें परिपक्वावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता हैं। विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और नवीन योग्यताएँ प्रकट होती हैं।"
लालबार्बा के अनुसार," विकास का अर्थ परिपक्वता से संबंधित परिवर्तनों से हैं जो मानव के जीवन में समय के साथ घटित होते रहते हैं।"
सोरेन्सन के अनुसार," विकास का अर्थ परिपक्वता और कार्यपरक सुधार की व्यवस्था से है जिसका संबंध गुणात्मक एवं परिमाणात्मक परिवर्तनों से हैं।"
विकास की विशेषताएं (vikas ki visheshta)
विकास की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--
1. निरन्तर प्रक्रिया
विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। विकास का यह क्रम मानव के गर्भावस्था से लेकर मृत्यु तक चलता रहता है। विकास की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती हैं कभक रूकती नही।
2. सहज क्रिया अभिगमन
वाटसन का कहना है कि सभी बालक जन्म के समय समान होते है। उनकी निश्चित शारीरिक रचना होती है, उनमे कुछ सहज क्रियायें होती है एवं तीन संवेग होते हैं-- प्रेम, भय और क्रोभ। इनके अतिरिक्त कुछ अधिग्रहणात्मक प्रवृत्तियाँ होती हैं। वातावरण के अनुसार बालक इनका प्रयोग करता है और यही उनकी अनुक्रिया होती है। यह सहज क्रिया ही बालक के विकास की ओर संकेत करती है।
3. व्यापक अर्थ
वृद्धि की तुलना मे विकास अधिक व्यापक है। क्योंकि यह कुछ समय के लिए नही होता है अपितु जीवन के प्रत्येक मोड़ पर मानव विकास संभव है। इसलिए इसे बहुत व्यापक रूप में स्वीकारा गया हैं।
4. आंतरिक प्रक्रिया
मानव विकास शरीर की आंतरिक प्रक्रिया है यह दिखता नही है इसका मापन करना भी मुश्किल है। जैसे-- बालक की वृद्धि के कारण उसका जो आंतरिक विकास होता है उसे देखा नही जा सकता।
5. निश्चित क्रम
विकास की एक निश्चित दिशा होती होती तथा एक निश्चित क्रम होता है। इसे हम विकास की अवस्थाएँ भी कहते हैं। शौशावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था मानव विकास की क्रमिक अवस्थाएँ होती हैं।
6. मात्रात्मक एवं गुणात्मक
बालक के शारिरिक विकास के साथ ही साथ उसका मानसिक विकास भी होता है। उदाहरण के लिए बालक की आयु में वृद्धि के साथ-साथ उसकी मानसिकता और भावुकता के गुण भी जन्म लेते हैं और बढ़ते है। अतः विकास मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों प्रकार का होता है।
7. पूर्व सूचीयन
विकास एक निरंतर प्रक्रिया है। विकास की प्रत्येक अवस्था अगली अवस्था को प्रभावित करती है। अतः पूर्व अवस्था के द्वारा आगामी अवस्था का अनुमान लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए मन्दबुध्दि और तीव्र बुद्धि छात्रों का अनुमान बाल्यावस्था से ही लग जाता है।
8. विकास मे विशिष्टता पाई जाती है
विकास की प्रत्येक अवस्था मे कुछ संकुलों का विकास होता है। फील्डमैने के अनुसार," मानव जीवन अनेक अवस्थाओं मे गुजरता है, मानव जीवन गर्भीय-अवस्था से किसी भी अवस्था मे कम नही है। प्रत्येक अवस्था मे प्रभावशाली विशेषताएं उभरती हैं, उनमे विशिष्टतायें होती हैं। इसमें एकता तथा वैशिष्ट्य पाया जाता है।
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सामाजिक उद्विकास एवं सामाजिक विकास मे अन्तर
सामाजिक उद् विकास व सामाजिक विकास की अवधारणाओं मे समानता व असमानता दोनों है। सामाजिक उद्विकास की भांति सामाजिक विकास भी संरचनात्मक विभेदीकरण को दर्शाने वाली प्रक्रिया है। इसकी प्रगति गुणात्मक होती है अर्थात् इसमे वस्तु मे संरचनात्मक या गुणात्मक भिन्नता का उत्पन्न होना जरूरी होता है भले ही वस्तु की मात्रा या आकार मे परिवर्तन न हो।उक्त समानताओं के बावजूद उद्विकास और सामाजिक विकास मे अन्तर भी है। सामाजिक उद्विकास तथा सामाजिक विकास की अवधारणाओं मे पाए जाने वाले अंतर निम्नलिखित है---
1. उद्विकास जहाँ मात्र आन्तरिक कारणों से प्रेरित होता है वही विकास मे आन्तरिक कारणों के साथ-साथ बाहरी या नियोजित कारण भी प्रभावशाली हो सकते है।
2. उद्विकास की धारणा की मूल पृष्ठभूमि जैविक होने के कारण उसकी व्याख्या मे ऐतिहासिक पक्ष उल्लेखनीय नही होता, किन्तु विकास का मूल आधार समाज के कारण उसकी विवेचना मे ऐतिहासिक सन्दर्भ अर्थपूर्ण हो जाता है।
3. सामान्यतः सामाजिक आर्थिक संस्थाओं या समाज के उद्विकास को विभिन्न स्तरों के आधार पर स्पष्ट किया जाता है, जबकि सामाजिक विकास साधारणतया दो, परम्परागत एवं आधुनिक (अथवा कृषक, औधोगिक) या तीन, परम्परात्मक, संक्रमणकालीन एवं आधुनिक स्तरों के आधार पर स्पष्ट किया जाता है।
यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी
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927303696623
जवाब देंहटाएंIt's wrong
जवाब देंहटाएंArthshastra ki Vikas sambandhi paribhasha ki visheshta bataiye
जवाब देंहटाएंVikas ko samjha ye
जवाब देंहटाएंVikas
हटाएंVikas Karti Hai Kya Hota Hai
जवाब देंहटाएंRashtriya vikash kise kahte hai simple definition
जवाब देंहटाएंRashtriya vikash kise kahte hai
जवाब देंहटाएंVikas ki paribhaasha
जवाब देंहटाएंHlo sir / madam please mujhe
जवाब देंहटाएं1-Vikas aur iske parinaam ( sociology subject)
2-Vikas ke liye sanskritik badhaen ( sociology subject)
3-Vikas mein buddhijiviyon ki bhumika (subject sociology)
Aapke doyara bheji gai post bahut Jayda usage full rehti hai.
Please mujhe in 3 Topic per urgent post send kr dijiye.
Aapke aabari rahenge