विकास की अवस्थाएं
vikas ki avasthaye;लाॅबटन ने विकास की अवस्थाओं की की चर्चा करते हुए कहा हैं," हमारे जीवन का विस्तार अनेक अंशो मे विभक्त है और प्रत्येक अंश की समायोजन की समस्या है। आयु एवं काल का संबंध आरंभिक कक्षाओं से नही है। यह तो समस्या को हल करने की एक प्रणाली है। जीवन भर व्यक्ति अपनी समस्याओं को हल करने की विधि तथा प्रविधि का अविष्कार करता है। इसमे कुछ विधियाँ उपयोगी होती हैं तो कुछ अनुपयोगी। ये एक अंश से दूसरे अंश पर आरोपित भी की जा सकती है और नही भी की जा सकती।"
इस कथन से यह स्पष्ट है कि विकास की प्रक्रिया तो एक है किन्तु उसका विभाजन अनेक अवस्थाओं में हैं। व्यक्ति का विकास अनेक सोपानों मे पूरा होता है।
विकास की निम्नलिखित अवस्थाएं हैं--
1. गर्भाधान काल
कारमाइकेल के अनुसार," गर्भाधान के व्यवहार के ज्ञान ने मनौवैज्ञानिक समस्याओं पर पारस्परिक प्रकाश डाला है। उदाहरणार्थ-- वंशक्रम तथा वातावरण द्वारा व्यस्क व्यक्ति के कारण मानसिक विकास के निर्धारण के सापेक्षिक परम्परागत प्रश्न का उत्तर इस अध्ययन ने प्रदान किया है। अनुभवाश्रित तथा जन्मश्रित प्रतिबोध के मतों में संघर्ष रहा है। विकास अनवरत है या रूक-रूक कर होने वाली क्रिया है, व्यवहार पहले सामान्रू है और बाद में विशिष्ट अथवा पहले विशिष्ट है और बाद मे सामान्य, जो आधारभूत रूप से मानव की अधिगम की प्रकृति हैं, ये सभी गर्भाधान काल के व्यवहार के अध्ययन से अभिव्यक्त हुये हैं।
गर्भकाल में गर्भ स्थिति से लेकर शिशु के जन्म तक की प्रक्रिया तीच चरणों में पूर्ण होती है। पहले भ्रूणीय स्थिति से जीव की रचना होती है। इस का अस्तित्व पितृ-सूत्र तथा मातृ-सूत्र के संयोग से होता है। भ्रूणीय स्थिति में पहले सिर एवं बाद में अंगो के अंकुर निकलते हैं दूसरी स्थिति भ्रूणिक है। इसमें 2 सप्ताह से 10 सप्ताह तक शरीर के विभिन्न अंगों का विकास होता है। तीसरी स्थिति भ्रूण है। इसमें बालक के अंगों का संचालन तथा गति का अनुभव माता को होता है। यह स्थिति बालक के जन्म तक रहती हैं।
2. शैशावस्था
जन्म से 5 वर्ष की अवस्था को शैशावस्था कहते है। इस अवस्था में ग्रहनशीलता और विकास की गति तेज होती है। बालक में पैरों की कौशल संबंधी विकास 18 महीने से आरंभ हो जाता हैं। बालक का शारीरिक विकास भी तेजी से होता हैं। शैशावस्था मे जो भी कुछ सिखाया जाता है उसका प्रभाव तत्काल देखने को मिलता है। इसलिए शैशावस्था को सबसे महत्वपूर्ण काल माना जाता है। शैशावस्था द्वारा जीवन का पूरा क्रम निश्चित होता है। 20 वीं शताब्दी में मनौवैज्ञानिकों ने बालक और उसके विकास की अवस्थाओं का विस्तृत और गंभीर अध्ययन किया है। वास्तविकता यह है कि शैशावस्था में बालक के भावी जीवन का निर्माण होता हैं।
इस अवस्था मे शिशु का विकास भागों के रूप मे होता है। जैसे-- आकार के रूप में भार के रूप में, मांसपेशियों के रूप में, हड्डियों के रूप में, दाँत के रूप में, सर के रूप में, मस्तिष्क के रूप में, आंतरिक अंगों के रूप में इत्यादि के रूप में इसका विकास होता हैं।
3. बाल्यावस्था
विद्वानों ने बाल्यावस्था को 6 से 12 वर्ष तक माना है। बाल्यावस्था को जीवन का अनोखा काल कहा जाता है। इस काल मे बालक का शारीरिक विकास होता रहता है। शारीरिक विकास के साथ-साथ उसका सामाजिक, सांस्कृतिक एवं संवेगात्मक विकास भी होता है। इस अवस्था में बालक मे कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं। जिन्हें बालक के माता-पिता और अध्यापक आसानी से समझ नही पाते हैं। 'शैशावस्था' में बालक का शरीर और मन दोनों अविकसित दशा मे होते है, वह प्रत्येक बात के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है, लेकिन बाल्यवस्था में प्रवेश करने के बाद बालक आत्मनिर्भर होने लगता है।
इस अवस्था मे भी विभिन्न अंगो का विकास होता है, जैसे-- भार का विकास, आकार का विकास, सिर का विकास, मस्तिष्क का विकास, मांसपेशियों का विकास, हड्डियों का विकास, दांतों का विकास, शरीर का विकास इत्यादि इस अवस्था में इनका विकास होता हैं।
3. किशोरावस्था
विद्वानों ने 13 वर्ष से 18 वर्ष की आयु को किशोरावस्था माना हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने इसे 'टीन एज' भी कहा हैं। यह अवस्था विकास की सबसे जटिल स्थिति मानी जाती है। किशोरावस्था को जीवन का बसन्त काल भी कहा जाता है। यह अवस्था तूफान और झंझावत की अवस्था होती है।
किशोरावस्था जन्म के समय 'शैशावस्था' और बाल्यावस्था के बाद मानव विकास की तीसरी अवस्था है। जो कि बाल्यावस्था की समाप्ति के बाद आरंभ होती है और प्रौढ़ावस्था के पहले समाप्त हो जाती हैं।
किशोरावस्था में बालक और बालिकाओं का बहुत ही तेजी से विकास होता है। इस अवस्था मे भी विभिन्न प्रकार के अंगो का विकास होता है। जैसे-- मस्तिष्क का विकास, हड्डियों का विकास, लंबाई का विकास, मोटाई का विकास, आवाज में परिवर्तन, आंतरिक अंगों का विकास एवं अन्य अंगों का विकास आदि इस अवस्था मे भी होता है।
5. युवावस्था
विद्वानों ने 18 वर्ष से 25 वर्ष तक अवस्था को युवावस्था माना है। युवावस्था शारीरिक परिवर्तनों की प्रक्रिया है जिसके द्वारा बच्चे का शरीर प्रजनन क्षमता से युक्त वयसक के शरीर मे बदल जाता है। युवावस्था मस्तिष्क द्वारा यौन अंगों को हार्मोन संकेत भेजे जाने से शुरू होती है। जवाब में यौन अंग विभिन्न तरह के हार्मोन उत्पन्न करते हैं जो मस्तिष्क, हड्डियाँ, मांस पेशियाँ, त्वचा, स्तन, तथा प्रजनन अंगों के विकास की गति को तेज करता हैं।
युवावस्था किशोर के मनोसामाजिक और सांस्कृतिक पहलू के विकास की बजाय यौन परिपक्वता के शारीरिक परिवर्तनों से संबंधित है। किशोरावस्था बचपन और वयस्कता के बीच मनोसामाजिक और सामाजिक परिवर्तनों की अवधि है। किशोराशस्था काफी हद तक युवावस्था की अवधि में व्याप्त रहती है, किन्तु इसकी सीमाएँ ठीक से परिभाषित नही की गयी है और यह युवावस्था के शारीरिक परिवर्तनों की बजाय किशोरावस्था के वर्षों के मनोसामाजिक तथा सांस्कृतिक विशेषताओं के विकास से अधिक संबंधित है।
6. प्रौढ़ावस्था
युवावस्था के बाद प्रौढ़ावस्था का आगमन हो जाता है। विद्वानों ने 25 से 60 वर्ष की अवस्था को प्रौढ़ावस्था माना है। प्रौढ़ावस्था मे व्यक्ति पूरी तरह से परिपक्व हो जाता है। इस अवस्था मे व्यक्ति सभी प्रकार से विकसित हो जाते है। इस अवस्था में बालक अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से समझने लगते हैं और उनका बहुत ही अच्छे ढंग से निर्वाह करते हैं। इस अवस्था के समाप्त होते समय अपने रचनात्मक कार्यों को भी निभाने लगते हैं।
प्रौढ़ावस्था मे सभी अंगो जैसे-- सिर, मस्तिष्क, नाक, कान, हड्डी, आकार, भार, मांसपेशियों एवं अन्य अंग इत्यादि सभी अंगों का विकास हो चुका होता हैं।
7. वृद्धावस्था
विद्वान 60 वर्ष की आयु से लेकर मृत्यु तक की अवस्था को वृद्धावस्था मानते है। वृद्धावस्था एक धीरे-धीरे आने वाली अवस्था है जो कि स्वाभाविक एवं प्राकृतिक घटना है। वृद्धावस्था जीवन प्रक्रिया का अंतिम चरण है। यह शारीरिक एवं सामाजिक दृष्टि से ह्रास का दौर है जिसमे व्यक्ति न केवल शारीरिक व मानसिक दृष्टि से कमजोर होता जाता है अपितु सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से शक्ति हीन व संदर्भ हीन भी होता जाता है।
वृद्धावस्था जीवन का अंतिम अध्याय होता है यह अवस्था जीवन की संध्या कहलाती है इस अवस्था तक आते-आते मानव शरीर थकने लगता है, शारीरिक क्रियाएं उम्र के साथ-साथ शरीर को शिथिल करने लगती है और अनेक बीमारियों का प्रवेश हो जाता है। इस अवस्था मे मानव विकास की गति अत्यंत धीमी हो जाती है, बल्कि विकास की गति का ह्रास होने लगता है।
जो व्यक्ति युवावस्था में अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहते आए हैं, आवश्यकता अनुरूप, खानपान एवं बीमारियों से बचाव करते रहते है, उनकी वृद्धावस्था अपेक्षाकृत सुखमय व्यतीत होती है। वृद्धावस्था मे शरीर की प्राथमिकताएँ बदल जाती है। कुछ विशेष सावधानियों को ध्यान में रखकर चलना पड़ता है।
इससे यह स्पष्ट होता है शरीर के सभी अंगों का विकास सभी अवस्थाओं में होता है अपितु किसी अवस्था में अधिक किसी में कम होता है। जीवन भर विकास का क्रम किसी न किसी प्रकार से चलता रहता हैं।
Bachpna awstha
जवाब देंहटाएं