9/10/2021

विकास के सिद्धांत

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विकास के सिद्धांत 

vikas ke siddhant;विकास एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है जो गर्भाधारण से लेकर जीवन पर्यन्त चलती रहती है। यह प्रक्रिया नियमित रूप से धीर-धीर क्रमबद्ध व निश्चित समय पर होती है। धीर-धीर बालक की क्रियात्मक क्रियाएँ प्रत्यक्षीकरण सामाजिक समायोजन आदि विकास होता है। शिक्षक को समान आयु के सामान्य बालकों के शारिरिक, मानसिक, सामाजिक व संवेगात्मक परिपक्वता स्तर का ज्ञान होना चाहिए जिससे की वह बालकों को सही दिशा प्रदान कर सके। 

विकास के सिद्धांतों के विषय में विद्वानों के पृथक-पृथक मत है लेकिन कुछ सर्वमान्य सिद्धांत हैं जो सभी क्षेत्रों पर लागू होते हैं। वे विकास के सिद्धांत निम्नलिखित हैं-- 

1. निरन्तरता का सिद्धांत 

विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। विकास की प्रक्रिया गर्भाधारण से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है। बालक का जन्म दो कोषों (Cells) यानि शुष्क (Sperm) और अड़ (ovum) के निषेचन से होता है और कई परिवर्तनों का अनुभव करते हुए यह निषेचित अड़ मानव बनकर विकास के कई पक्षों की ओर बढ़ती हैं। इस तरह विकास की क्रिया धीरे-धीरे परन्तु निरन्तर चलती है। 

2. परिपक्वता का सिद्धांत 

जब व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्तियों एवं वातावरण के प्रति कुशलतापूर्वक प्रतिक्रिया करता है, तब हम यह मान लेते है कि वह किन्ही विशिष्ट क्रियाओं को करने मे सक्षम अथवा परिपक्व हो गया है। परिपक्वता में सामान्यतः स्थायित्व आ जाता है। यह स्थायित्व कद, व्यक्तित्व निष्पत्ति आदि में होता है जिसका प्रभाव अन्ततः बालक के सीखने की क्षमता पर पड़ता है। परिपक्वता एवं सीखना या अधिगम, विकास के दो पहलू हैं। ये एक-दूसरे से इतने जुड़े हैं कि इनको अलग नही किया जा सकता। परिपक्वता की क्षमता पर वंशक्रम तथा वातावरण का भी प्रभाव पड़ता हैं। 

3. मूर्त से अमूर्त का सिद्धांत 

मानसिक विकास के आरंभ मे भौतिक रूप से उपस्थित वस्तुओं के बारे मे चिंतन करके होती है। जो वस्तुओं को देखने के सिद्धांत का अनुसरण करता है। जो विषय अमूर्त रूप में होते है धीरे-धीरे बालक इसके प्रभाव व कारण को समझने का प्रयास करता है। 

4. मस्तकोषमुखी सिद्धांत 

इस सिद्धांत के अनुयायियों का कहना है कि विकास की क्रिया का आरंभ सिर से होता है। भ्रूणावस्था मे भी पहले सिर का विकास होता है। सिर के बाद धड़ एवं फिर टाँगों आदि का विकास होता है। जन्म के बाद भी पहले बालक अपने सिर को इधर-उधर घुमाता है तथा उसे ऊपर उठाने का प्रयास करता हैं। बैठने तथा चलने की प्रक्रिया वह बाद में करता है। यह सिद्धांत शारीरिक विकास की प्रक्रिया पर आधारित हैं। 

5. निकट-दूर का सिद्धांत 

इस सिद्धांत को मानने वालों का कथन है कि विकास का केन्द्र-बिन्दु स्नायुमण्डल होता है। पहले स्नायुमण्डल का विकास होता है, इसके बाद स्नायुमण्डल के निकट के भागों का विकास होता है जैसे-- ह्रदय, छाती, कुहनी आदि। इसके बाद उंगलियों आदि का विकास होता है। 

6. सामान्य से विशिष्ट की ओर का सिद्धांत 

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सामान्य परिस्थित से होता है। धीरे-धीरे यह विकास विशिष्ट स्थिति की ओर होता है। आरंभ मे बालक पूरे हाथ का संचालन करता है। धीरे-धीरे वह उंगुलियों पर भी नियंत्रण कर लेता है। इसी प्रकार संबंधों का विकास होता है। आरंभ मे वह केवल उत्तेजना अनुभव करता हैं। कालान्तर मे वह संवेगों की अभिव्यक्ति करना भी सीख लेता है। भाषा का विकास भी क्रन्दन से आरंभ होता है। निरर्थक सार्थक शब्दों के माध्यम से वह वाक्यों के विकास तक पहुँचता हैं। 

7. विकास की भविष्यवाणी का सिद्धांत 

उपरोक्त सिद्धांतों का अध्ययन करने के बाद यह स्पष्ट है कि विकास की भविष्यवाणी की जा सकती है। विकास की गति क्या हैं? इनका स्वरूप क्या होगा? इन सब की भविष्यवाणी संभव है। बालक की कलाई के एक्सरे चित्र द्वारा उसके भावी आकार की घोषणा की जा सकती है। 

8. भिन्नता का सिद्धांत 

विकास की गति समान नही होती है यह गति जीवन भर चलती रहती है परन्तु इसके स्वरूप भिन्न-भिन्न होते हैं। विकास की गति शैशव में तीव्र होती है। बाल्यावस्था मे गति धीमी होती है और किशोरावस्था मे यह तीव्र होती हुई पूर्णता प्राप्त करती है। लड़को तथा लड़कियों का विकास भी समान ढंग से नही होता उसमें भी भिन्नता पाई जाती है। 

9. वातावरण और वंशानुक्रम के परिणाम का सिद्धांत

वंशानुक्रम को बच्चे के व्यक्तित्व की नींव माना जाता है और वंशानुक्रम व वातावरण के प्रभाव को विकास के सिद्धांत से अलग नही किया जा सकता है। बच्चे की वृद्धि और विकास वंशानुक्रम व वातावरण दिनों का संयुक्त परिणाम होता है। 

10. संपूर्ण विकास का सिद्धांत 

शिक्षा-मनोविज्ञान मे बालक के सर्वांगीण विकास पर बल दिया जाता है। जिसमे बालक का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक व मनोगात्यात्मक विकास के सभी पक्ष सम्मिलित कर लिए जाते हैं। अतः शिक्षक बालक के संपूर्ण विकास के लिए प्रयासरत् होता हैं। 

11. बाहरी नियंत्रण के आंतरिक नियंत्रण का सिद्धांत 

छोटे बच्चे मूल्यों व सिद्धांतों के लिए दूसरों पर निर्भर करते हैं। जैसे-जैसे बच्चा बढ़ा होने लगता है तो उसका स्वयं का सिद्धांत, मूल्य प्रणाली, स्वयं की आत्मा व स्वयं का आंतरिक नियंत्रण विकसित होने लगता है। 

12. विकास की दिशा का सिद्धांत 

बच्चे के विकास की शुरुआत सिर से होती है इसके बाद धड़ और फिर टाँगे सबसे बाद में तैयार होती है। विकास की दिशा के सिद्धांत को भ्रूण (Embryo) के सिद्धांत के आधार पर तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हैं-- 

(अ) सिर से पाँव की ओर 

(ब) रीढ़ की हड्डी से बाहर की ओर 

(स) स्वरूप के बाद क्रियाएँ। 

13. एकीकरण का सिद्धांत 

बालक पहले संपूर्ण अंग को और उसके बाद उसके विशिष्ट भागों को चलाना व प्रयोग करना सीखता है और बाद में उन भागों का एकीकरण करना सीखता है इसे एकीकरण का सिद्धांत कहते हैं। जैसे-- बच्चा पहले पूरे हाथ को बाद में उसकी उंगलियों को हिलाने का प्रयास करता हैं।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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