8/15/2023

सामाजिक उद्विकास के कारण, स्वरूप, स्तर

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प्रश्न; सामाजिक उद्विकास के कारक बताइए तथा सामाजिक उद्विकास के स्तरों का विवेचन कीजिए।

अथवा", सामाजिक उद्विकास के कारण लिखिए। 

अथवा", उद्विकास के स्वरूप बताइए। 

अथवा", सामाजिक के विभिन्न स्तरों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर--

सामाजिक उद्विकास के कारक अथवा कारण (samajik udvikas ke karan)

सामाजिक उद्विकास क्यों होता हैं? ऐसे कौन-से कारक हैं, जिन से सामाजिक उद्विकास होता हैं? ऑगबर्न ने सामाजिक उद्विकास के चार कारण बताये हैं। ऑगबर्न द्वारा बताए गए सामाजिक उद्विकास के यह चार कारक निम्नलिखित हैं-- 

1. आविष्कार 

आविष्कारों के परिणामस्वरूप सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन तीव्र गति से होता है। आविष्कारों का प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्ध उस समाज के व्यक्तियों की योग्यता, साधन तथा अन्य सांस्कृतिक कारको से है। जिस समाज मे यह जितने अधिक होंगे सामाजिक विकास का रूप उसी प्रकार का होगा।

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2. संचय 

संचय का अर्थ हैं इकट्ठा करना अथवा बचाना। सामाजिक उद्विकास के लिए संचय का तत्व सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं संचय के बिना सामाजिक उद्विकास की कल्पना भी नही की जा सकती। पुराने तत्वों के संचय से नए तत्वों का उद्विकास होता हैं। उद्विकास की प्रक्रिया में पहले साइकिल बनी, इसके बाद मोटरसाइकिल फिर कार और फिर हवाईजहाज। उद्विकास में कोई ऐसा समाज नहीं हैं, जहाँ पहले हवाईजहाज का निर्माण हुआ हो और फिर बाद में साइकिल और मोटरसाइकिल आई हो। उद्विकास प्राचीन वस्तु की प्रतिक्रिया या सुधार के परिणामस्वरूप होता हैं। 

3. प्रसार 

प्रसाद का अर्थ हैं फैलाव से हैं। प्रसार किसी चीज़ को फैलाने, उसे एक केंद्रीय बिंदु से बाहर फैलाने की क्रिया है। जब कोई विचार जोर पकड़ता है तो वह एक प्रकार का प्रसार होता है।

जब एक संस्कृति के तत्वों का प्रसार दूसरी संस्कृति में होता है अर्थात् जब संस्कृति के तत्व दूसरी संस्कृति द्वारा ग्रहण किये जाते हैं तो वे उद्विकास की प्रक्रिया को जन्म देते हैं और सामाजिक परिवर्तन में सहायक होते हैं। 

4. सामंजस्य 

सामंजस्य एक मनौवैज्ञानिक प्रक्रिया है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अथवा समूह अपने भौतिक अथवा सामाजिक पर्यावरण के साथ तादात्म्य स्थापित कर स्वस्थ संबंधों का विकास करता है।

दूसरे शब्दों मे हम कह सकते है कि अपने परिवेश व परिस्थितियों के साथ समायोजन कर लेना ही सामंजस्य है। 

विभिन्न समाजों या एक ही समाज के विभिन्न समूहों में जब सामंजस्य बढ़ता है तो वह संपूर्ण समाज को प्रभावित करता है और संपूर्ण समाज में परिवर्तन की लहर-सी आ जाती हैं।

सामाजिक उद्विकास का स्वरूप (samajik udvikas ka swarup)

सामाजिक क्षेत्र में उद्विकास अनेक स्वरूपों में पाया जाता हैं जिनमें से प्रमुख स्वरूप निम्नलिखित हैं-- 

1. समरेखीय उद्विकास  

इस प्रकार उद्विकास एक सीधी रेखा में तथा एक निश्चित दिशा व क्रम में होता हैं। संसार की समस्त संस्कृतियों का विकास समरैखिक उद्विकास के अंतर्गत निश्चित स्तरों में हुआ हैं। विभिन्न स्थानों पर समान रूप से उद्विकास के कारण मानव की मानसिक एकता हैं।

2. बहुरेखीय उद्विकास 

जूलियन स्टीवर्ड ने उद्विकास के समरेखीय सिद्धान्त के स्थान पर बहुरेखीय सिद्धान्त प्रस्तुत किया। उनकी मान्यता है कि विश्व के सभी समाज और संस्कृतियां उद्विकास के समान स्तरों से नहीं गुजरे हैं वरन् भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न क्रम रहा है। स्टीवर्ड ने पेरन, मेसो अमरीका, मेसोपोटामिया, मिस्र और चीन की संस्कृतियों और समाजों का अध्ययन करने पर बताया कि ये सभी विभिन्न क्रमों से उद्विकसित होकर समान अवस्थाओं में पहुंची हैं। बहुरेखीय उद्विकासवादियों का मत है कि उद्विकास का कोई एक ही क्रम न होकर अनेक क्रम हैं। उदाहरण के लिए, एक समाज पहले पशुपालन अवस्था में रहकर फिर शिकारी, कृषि व औद्योगिक अवस्था को प्राप्त कर सकता है। परिवार बहुपति विवाही, बहुपत्नी विवाही, समूह विवाही से एक विवाही की स्थिति में पहुंच सकता है। इस प्रकार बहुरेखीय उद्विकासवाद का जन्म समरेखीय उद्विकासवाद की आलोचना के रूप में हुआ।

3. चक्रीय उद्विकास 

उद्विकास के इस स्वरूप के अंतर्गत उद्विकास एक चक्र के रूप में घड़ी के पैण्डूलम की तरह, कभी इधर, कभी उधर या उतार-चढ़ाव के क्रम में होता हैं। उद्विकास का यह स्वरूप सबसे बाद में मालूम किया गया। इसे नव उद्विकास भी कहते हैं। लेसली-वाइट ने उद्विकास के स्वरूप का समर्थन किया है। उनका मत है कि उद्विकास एक सीधी रेखा में न होकर अनुवृत्त वक्र रेखा के रूप में होता हैं। उदाहरण के लिए फैशन, वस्त्र, विवाह, संपत्ति, अधिकार आदि को देखा जा सकता हैं। इस स्वरूप में कोई भी सामाजिक संस्था एक विशिष्ट रूप में प्रारंभ होती हैं। धीरे-धीरे वह उसके विपरीत दिशा की ओर विकसित होती है और आगे चलकर पुनः अपने मूल रूप की ओर भी मुड़ जाती हैं।

सामाजिक उद्विकास के स्तर (samajik udvikas ke istar)

हटन तथा माॅगर्न आदि सामाजिक विचारकों ने मानव समाज के उद्विकासीय विकास के स्तर तीन बताए हैं। इनमें सामाजिक उद्विकास के प्रत्येक स्तर को निम्न, मध्यम और उच्च स्तरों में बाँटा गया हैं-- 

1. जंगली अवस्था 

(अ) जंगली अवस्था का निम्न स्तर 

जंगली अवस्था के इस स्तर को तीन भागों में बाँटा गया हैं--

इस अवस्था में मानव भोजन एवं आवास के लिए घुमन्तु जीवन व्यतीत करता था एवं परस्पर संबंधों में स्वछन्दता थी। 

(ब) जंगली अवस्था का मध्यस्तर 

इसमें मानव ने सामूहिक जीवन आरंभ किया एवं छोटे-छोटे झुण्ड बनाकर रहने लगा। 

(स) जंगली अवस्था का उच्चस्तर 

इस अवस्था में मानव ने तीर एवं धनुष का अविष्कार किया। इस स्तर पर पारिवारिक जीवन आरंभ हुआ सामूहिक संघर्ष आरंभ हुआ एवं पत्थर के हथियार एवं औजार का निर्माण किया गया। 

2. बर्बर अवस्था 

इसे स्तर को भी तीन भागों में बांट गया हैं--

(अ) बर्बर अवस्था का निम्न स्तर 

इस अवस्था में मानव जीवन पर्याप्त स्थिर व झुण्ड के रूप में रहा। संपत्ति की अवधारणा का जन्म हुआ। दूसरे समूहों से संघर्ष हुआ जो स्त्री एवं शक्ति के स्त्रोत जैसे हथियार प्राप्त करने के लिए था। 

(ब) बर्बर अवस्था का मध्यस्तर 

इस अवस्था में मानव ने पशुपालन एवं कृषि कार्य आरंभ किया एवं स्थिर निवास स्थान चुन कर वह कृषि करने लगा। व्यक्तिगत संपत्ति की धारणा पनपी एवं सामाजिक स्थिति का निर्धारण संपत्ति के आधार पर होने लगा। यौन संबंधों में निश्चितता के कारण परिवार का स्वरूप भी स्पष्ट हुआ। 

(स) बर्बर अवस्था का उच्च स्तर 

इस अवस्था में लोहे के औजार बनने प्रारंभ हो गये। धातुओं के प्रयोग के कारण इस अवस्था को धातुयुग भी कहते हैं। इस युग में सामाजिक संबंधों में स्त्री एवं पुरूषों में श्रम विभाजन अर्थात् कार्य का बँटवारा प्रारंभ हुआ तथा समाज में औपचारिक नियंत्रण के लिये छोटे गणराज्यों की स्थापना भी हुई। 

3. सभ्यता की अवस्था 

सामाजिक उद्विकास के इस स्तर को भी जंगली अवस्था तथा बर्बर अवस्था की तरह ही तीन भागों में बाँटा गया हैं--

(अ) सभ्यता की निम्न अवस्था 

यह अवस्था लेखन कार्य से आरंभ होती हैं। भाषा का प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में होने लगा, जिससे संस्कृति का संचरण आसान होने लगा अथवा पारिवारिक जीवन में स्थिरता, नगरों की बसाहट, नगरीय सभ्यता का जन्म हुआ साथ ही व्यापार एवं वाणिज्य कला व शिल्पकला का भी विस्तार हुआ। 

(ब) सभ्यता अवस्था का मध्यस्तर 

इस युग में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संगठनों में व्यवस्था आई। श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण बढ़ा, राज्य के कार्य क्षेत्रों का तथा सरकार व कानून का विस्तार हुआ तथा मानव जीवन में सुरक्षा बढ़ी। 

(स) सभ्यता का उच्चस्तर 

माॅगर्न के अनुसार, इस स्तर का प्रारंभ 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ। जब औद्योगिकीकरण के कारण आधुनिक एवं जटिल नगरीय सभ्यता का जन्म हुआ। संपत्ति का संचय, श्रम विभाजन एवं विशेषीकरण का विस्तार हुआ। पूँजीवाद व्यवस्था का जन्म हुआ परिणामस्वरूप संघर्ष ने जन्म लिया। साम्यवादी विचारधारा भी पनपी जिसने सम्पत्ति के समान वितरण को जोर दिया। प्रजातंत्रात्मक शासन व्यवस्था व्यापक रूप से स्वीकार्य हुई जिसमें राज्य को कल्याणकारी संस्था के रूप में स्वीकार किया गया। कला, धर्म दर्शन, ज्ञान-विज्ञान की प्रगति हुई।

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