8/18/2023

प्रगति की सहायक की दिशाएं, मापदंड, प्रकार

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प्रश्न; सामाजिक प्रगति की सहायक दिशाओं का विवेचन कीजिए। 

अथवा", प्रगति की दशाओं को स्पष्ट कीजिए

अथवा", सामाजिक प्रगति के मापदंड लिखिए।

अथवा", प्रगति के प्रकार बताइए। 

उत्तर--

प्रगति की सहायक दशाएं

प्रत्येक देश और काल का पर्यावरण एक-जैसा नही होता। पर्यावरण के आधार पर ही संस्कृतियों का निर्माण होता है और संस्कृति के द्वारा सामाजिक मूल्यों का निर्धारण होता है। प्रत्येक देश में प्रगति के लिये सहायक दशाएँ भिन्न-भिन्न होती है, क्योंकि प्रत्येक देश का पर्यावरण भिन्न-भिन्न होता है। जैसे अर्द्धविकसित और अविकसित देशों में पौष्टिक भोजन, स्वास्थ्य, सुरक्षा और शिक्षा प्रगति की सहायक दशाएँ हो सकती हैं, किन्तु जो देश पूर्ण विकसित हो चुके हैं, वहाँ मानसिक और यौन संबंधी व्याधियों की समाप्ति को ही प्रगति कहेंगे। इसी प्रकार समय के साथ ही प्रगति का भी निर्धारण होता हैं। जिन वस्तुओं को 18 वी शताब्दी में प्रगति कहा जाता रहा होगा आवश्यक नहीं है कि 20 वीं शताब्दी में भी उन्हें प्रगति ही कहा जाये। इस प्रकार देश और काल के अनुसार प्रगति की धारणा में परिवर्तन होता रहता हैं। जब प्रगति की धारणा में परिवर्तन होगा तो उसकी सहायक दशाओं की धारणा में भी परिवर्तन हो जायेगा। फिर भी कुछ दशाएँ प्रगति में सहायक है। प्रगति की सहायक दशाएं निम्नलिखित हैं-- 

1. शिक्षा का उच्च स्तर  

शिक्षा शारीरिक व्यक्तित्व और मानसिक शक्ति के साथ-साथ हमारी जीवन शैली को बेहतर बनाती है। शिक्षा के द्वारा ही मानव को नयी वस्तुओं तथा स्थितियों की जानकारी प्राप्त होती है। शिक्षा के अभाव में न तो आविष्कार हो सकते है और न ही प्रगति। शिक्षा ही वैचारिक विकास के लिए उत्तरदायी है और वहीं लोगों में प्रगति के प्रति चेतना उत्पन्न करती है।

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2. नवीन आविष्कार  

आविष्कारों ने मनुष्य के जीवन को आरामदायी व बनाने का काम किया है, आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है। आदी काल से ही मनुष्य को जिन-जिन चीजों या वस्तुओं की आवश्यकता होती गई है उन्हें पाने के लिए वह खोज करता रहा। नवीन आविष्कार के सहारे मानवीय समस्याओं का समाधान किया होता है और मानवीय सुख-सुविधाओं में वृद्धि की होती है। इस प्रकार आविष्कार प्रगति की सम्भावनाओं में वृद्धि करते हैं।

3. शांति और सुरक्षा 

प्रगति की कसौटी आन्तरिक शांति और बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा है। प्रगति की वास्तविक कसौटी तो सामाजिक सुरक्षा है। लोगों का राज्य की ओर से जीवन बीमा, दुर्घटना, बीमारी और मृत्यु से उत्पन्न संकट और सुरक्षा, पारिवारिक पेंशन, वृद्धावस्था मे सहायता आदि की व्यवस्था की जानी चाहिए। जब तक लोगों को इस प्रकार की सुरक्षा नहीं मिलेगी, तो इसे प्रगति नहीं कहा जायेगा।

4. न्यूनतम जीवन स्तर की व्यवस्था 

रोटी, कपड़ा और मकान मानव की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। इनके बिना मानव जीवन संभव-सा हैं। अतः इनकी पूर्ति होना बहुत जरूरी हैं। प्रत्येक राज्य का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह अपने नागरिकों के लिए भोजन, वस्त्र और निवास की व्यवस्था करे। ऐसा न करने से असुरक्षा की भावना का विकास होगा, यह भोजन, वस्त्र और निवास इन मिलने पर नागरिक अपने उत्तरदायित्वों को निभाने में असमर्थ रहेंगे, ऐसी स्थिति में प्रगति की कल्पना भी नही की जा सकती।

5. आदर्श जनसंख्या और स्वास्थ्य

कोई भी समाज ऐसी स्थिति में प्रगति नही कर सकता जहाँ पर अधिक जनसंख्या, बेकारी, गरीबी, भुखमरी, अकाल, महामारी एवं प्राकृतिक विपदाएं हो। ऐसी स्थिति में सामाजिक प्रगति की आशा धूमिल पड़ जाती है। इसी प्रकार से यदि लोगों का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और लोग शारीरिक और मानसिक दृष्टि से कमजोर हैं तो वे लोग काम नहीं कर पायेंगे और सामाजिक प्रगति में अपना कोई योगदान नहीं दे पायेंगे। कोई भी समाज ऐसी स्थिति में ही प्रगति कर सकता है जब उसके सदस्यों की संख्या आदर्श हो तथा वे शारीरिक और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ हों। 

6. अनुकूल भौगोलिक पर्यावरण  

सामाजिक प्रगति के लिए अनुकूल भौगोलिक पर्यावरण भी बहुत जरूरी है। जिस देश में प्राकृतिक स्रोतों, खनिज पदार्थों, लोहा, चांदी, सोना, कोयला, यूरेनियम, पेट्रोलियम, आदि की बहुलता होती है वह अधिक प्रगति कर सकता है। इसी प्रकार से जिन स्थानों का भौगोलिक पर्यावरण अनुकूल होता है वहां के समाज ही प्रगति कर पाते हैं। रेगिस्तानी, पहाड़ी, दलदली एवं बर्फीले स्थान के वासियों को प्रगति के लिए अधिक संघर्ष करना होता है। इसी प्रकार से जहां अत्यधिक गर्मी और अत्यधिक सर्दी पड़ती है वहां पर भी सामाजिक प्रगति के अवसर कम होते हैं। अतः सामाजिक प्रगति के लिए आदर्श भौगोलिक परिस्थितियां होना बहुत आवश्यक हैं।

7. आत्म-विश्वास  

सामाजिक प्रगति के लिए समाज के लोगों में आत्म-विश्वास होना आवश्यक है बहुत जरूरी हैं। आत्मविश्वास से ही विचारों की स्वाधीनता प्राप्त होती है और इसके कारण ही महान कार्यों के सम्पादन में सरलता और सफलता मिलती है। आत्म-विश्वास के अभाव में कोई भी समाज प्रगति नहीं कर सकता।

8. प्रौद्योगिकीय प्रगति 

सामाजिक प्रगति के लिए प्रौद्योगिकीय प्रगति आवश्यक हैं। प्रौद्योगिकीय प्रगति से आशय नवीन आविष्कार और नवीन मशीनों के ज्ञान से हैं। बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना, व्यापार और वाणिज्य की उन्नति, आवागमन और संदेशवाहन के साधनों की उन्नत अवस्था, कृषि की नवीन प्रविधियाँ आदि प्रगति के लक्षण हैं।

9. स्वतन्त्रता एवं समानता  

इसमें कोई संदेह नही है की स्वतन्त्र देश गुलाम देश की अपेक्षा अधिक प्रगति कर सकता है क्योंकि स्वतन्त्रता लोगों में उत्तरदायित्व की भावना पैदा करती है, उनमें आत्मविश्वास और सम्मान के विचार जाग्रत करती है। इसी प्रकार से अवसर की समानता भी लोगों में आशा और विश्वास को उत्पन्न करती है।

11. कुशल नेतृत्व 

प्रगति के लिए कुशल नेतृत्व भी अनिवार्य हैं। यदि देश में योग्य नेता होंगे तभी देश की प्रगति संभव है। चाहे देश कितना ही धन-धान्य से पूर्ण क्यों न हो, लोग परिश्रमी क्यों न हों, किन्तु इनका नेतृत्व अगर भ्रष्ट व्यक्तियों के हाथ में है, तब भी उसे प्रगति नहीं कहा जायेगा, क्योंकि भ्रष्ट नेता अपने स्वार्थों की पूर्ति में ही लगे रहेंगे, देश और जनता की भलाई की ओर ध्यान नहीं देंगे जिससे राष्ट्र पतन के गर्त में गिर जायेगा।

प्रगति के मापदंड 

प्रत्येक समाज में प्रगति के मूल्यों में अंतर पाया जाता है जो देशकाल एवं वातावरण के द्वारा निश्चित एवं निर्धारित होते हैं। अलग-अलग समाजों में मापदण्ड का आधार व मूल्यों की प्राथमिकताएँ भिन्न हो सकती हैं। अतः कोई समाज कितना प्रगतिशील है या निर्धारित लक्ष्यों के अनुरूप प्रगति हुई है अथवा नहीं। इसका मापन करने के लिए कतिपय विद्वानों के कुछ मापदंड निर्धारित किए है। यहाँ हम समाजशास्त्री बोगार्डस के द्वारा बतलाये सामाजिक प्रगति के मापदण्डों का उल्लेख कर रहे हैं। 

बोगार्डस ने सामाजिक प्रगति के 14 मापदंड बतलाये हैं जो निम्नलिखित हैं-- 

1. प्राकृतिक संसाधनों का जनहित में प्रयोग। 

2. अधिकाधिक व्यक्तियों का शरीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का होना। 

3. स्वास्थ्यप्रद वातावरण एवं स्वच्छता में वृद्धि। 

4. मनोरंजन के उपयुक्त एवं पर्याप्त साधन। 

5. पारिवारिक संगठन में वृद्धि। 

6. रचनात्मक कार्यों के लिए व्यक्तियों को अधिक से अधिक अवसर प्रदान करना। 

7. व्यापार एवं उद्योग में जनता के अधिकारों की वृद्धि। 

8. दुर्घटना, बीमारी, बेकारी, मृत्यु, बुढ़ापा के विरुद्ध सामाजिक बीमा की व्यवस्था करना। 

9. समाज के अधिकांश व्यक्तियों के जीवन स्तर में विकास।

10. सरकार एवं जनता के बीच पारस्परिक सहयोग की मात्रा में वृद्धि। 

11. विविध कलाओं का अधिकाधिक प्रसार। 

12. धार्मिक तथा आध्यात्मिक जीवन विकास। 

13. व्यावसायिक, बौद्धिक एवं कल्याणकारी शिक्षा का विस्तार। 

14. सामुदायिक और सहयोगी जीवन में वृद्धि।

प्रगति के प्रकार

उपर्युक्त परिभाषाओं में स्पष्ट किया गया है कि प्रगति वह परिवर्तन है जिससे इच्छित उद्देश्य की प्राप्ति सम्भव हो पाती है। क्या यह इच्छित उद्देश्य कोई ऐसी स्थिति या वस्तु होती जिसका अनुभव समाज के लोगो ने पहले कभी नहीं किया? अथवा यह अच्छी कही जाने वाली परम्परागत स्थितियों तथा वस्तुओं की प्राप्तिमान है ? इन दाकाओं के समाधान के लिए हम प्रगति के प्रकार पर विचार करते है। लेमली लिखा है, 'प्रगति स्थायी अथवा अस्थायी वह स्थिति है जहाँ सामाजिक क्रिया न्यूनाधिक अंशों मे मानवीय समस्याओं का समाधान करने में समर्थ होती है।" मानवीय समस्याओं का समाधान या तो उस अवस्था की कमियों को दूर करने से होगा जिसके कारण समस्या अवतरित हुई है अथवा किसी ऐसी परिस्थिति को जन्म देने से जो वर्तमान परिस्थिति से बहुत श्रेष्ठ हो ।

प्रगति जो समाज के लिए सदैव उचित बतलायी जाती है-उसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है---

1. नवीनीकृत प्रगति  

इसके अन्तर्गत प्रगति के उन तत्त्वों को सम्मिलित किया जाता है जो समाज के लिए नये हैं। साधारणतया विकसित राष्ट्र ऐसे ही तत्त्वों के माध्यम से अपने समाज में प्रगति करते हैं। इस प्रकार की प्रगति से तात्पर्य समाज में उन नये विचारों, प्रक्रियाओं तथा वस्तुओ के प्रतिस्थापन से है जिसका समाज पर अधिकतम प्रभाव पड़ रहा हो। साधारणतया ये विचार, प्रक्रियाएं तथा वस्तुएं ऐसी होती है जिनकी जानकारी समाज को इसके पहले नहीं रहती है। इसलिए कुछ विचारको ने इसे 'खोज' या 'ईजाद' से भी संम्बोधित किया। अब 'स्थिर' तथा 'परम्परागत' देश भी इस प्रकार से प्रगति के लिए प्रयत्नशील है। भारतवर्ष में नियोजन के माध्यम से जिस प्रगति की कल्पना की जा रही है उसे इसी प्रकार में रखा जा सकता है। क्योंकि नियोजन उन तत्वों के माध्यम इच्छित परिवर्तन कर रहा है जिसे पहले यहाँ या तो जाना नहीं जाता या उसे लोग स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते थे।

2. व्यवहारगत प्रगति 

प्रगति के इस प्रकार के अंतर्गत साधारणतया उन तत्त्वो को सम्मिलित किया जाता है जिसे लोग पहले से जानते हैं और जिसका मानव समाज पर प्रभावकारी प्रभाव पड़ रहा हो। साधारणतया परम्परागत तथा स्थिर समाजों में जो प्रगति के कार्यक्रम पलते हैं उन्हें इसी प्रकार के अंतर्गत रखा जाता है। व्यहारगत प्रगति उस प्रगति को कहते है जो वर्तमान वस्तुओं, विचारों अथवा प्रतिक्रियाओं के प्रभाव के कारण प्राप्त होता है। विचार तथा प्रतिक्रियाएं पद्यपि पुरानी होती है फिर भी उनका प्रभाव समाज पर पड़ता है। कभी-कभी ऐसा देखने को मिलता है कि जिस उद्देश्य की पूर्ति नवीनीकृत प्रगति से नहीं हो पाती उसे भी इसी प्रकार की प्रगति के तत्वों से प्राप्त किया जाता है।

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