8/12/2023

सामाजिक परिवर्तन के कारण/कारक एवं प्रकार

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प्रश्न; सामाजिक परिवर्तन के प्रकार बताइए। 

अथवा", सामाजिक परिवर्तन के कारक लिखिए।

अथवा", सामाजिक परिवर्तन के कारण बताइए। 

अथवा", सामाजिक परिवर्तन के घटक लिखिए।

उत्तर--

सामाजिक परिवर्तन के कारक अथवा कारण (samajik parivartan ke karak)

samajik parivartan ke karan;समाज मे परिवर्तन क्यों होता है? यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर विद्वान युगों से विचार करते आए है। आज भी अनेक समाज वैज्ञानिक अध्ययन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन के कारण के अध्ययन से ही सम्बंधित है।

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सामाजिक जीवन अनेक छोटे-मोटे कारणों से प्रभावित होता है। यदि हम उनकी सूची बनाएं तो शायद वे अनगिनत होगे। अध्ययन की सहूलियत की दृष्टि से एक प्रकार के समस्त कारणों को एक श्रेणी या वर्ग मे रख लिया जाता हैं, जिसे कारक कहते है। सामाजिक परिवर्तन के प्रमुख कारक अथवा कारण इस प्रकार हैं---

1.  भौगोलिक कारक

इन्हें प्राकृतिक कारक भी कहा जाता हैं। भौगोलिक परिवर्तन भी सामाजिक परिवर्तन लाते हैं। दुनिया भर में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जब भौगोलिक परिवर्तन के कारण सामाजिक संरचना व लोगों के स्वभावों में सामाजिक परिवर्तन आए। ज्वालामुखी फटने से पौम्पी में संपूर्ण विनाश हो गया। 1840 में आलू-अकाल के कारण आयरलैंड के निवासियों को भागकर अमेरिका में शरण लेनी पड़ी। प्राकृतिक आपदायें पर्यावरण में भी बदलाव लाती हैं और सामाजिक संरचना में भी कभी-कभी प्राकृतिक आपदाओं के शिकार लोग अपने रिश्तेदारों तथा दोस्तों को खो बैठते हैं, उनके संसाधन नष्ट हो जाते हैं और वे मानसिक आघात के कारण भीषण पीडा झेलने पर विवश हो जाते हैं। वे अपने समाज से कट जाते हैं और उन्हें फिर से नए समाज का निर्माण करना पड़ता है। पारिस्थितिकी में आया परिवर्तन भी आधुनिक काल में सामाजिक परिवर्तन का बड़ा कारण है। अनेक पारिस्थितिक परिवर्तनों का जनक स्वयं मनुष्य ही है। किसी क्षेत्र विशेष में जनसंख्या का घनत्व बढ़ना प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, सामाजिक एवं राजनैतिक टकराव, जंगलों का कटना, बड़े-बड़े बांधों का निर्माण आदि सब आज की दुनिया में बड़े सामाजिक बदलाव के कारण बने हुए हैं। ये परिवर्तन आबादी के स्थानांतरण तथा प्राकृतिक विनाशों से भी अधिक प्रभावकारी हैं।

2. आर्थिक कारक

समाज के शिकारी अवस्था से कृषि अवस्था कृषि अवस्था से औधोगिक अवस्था मे आने से सामाजिक जीवन मे महत्वपूर्ण परिवर्तन होते है। इस परिवर्तन से सामाजिक संस्थाओं, परम्पराओं, रीति-रिवाज, आदि मे परिवर्तन आते है। भारत मे आज इस प्रकार के परिवर्तन दिख रहे है, क्योंकि एक कृषि प्रधान देश औधोगिक समाज मे परिवर्तित हो रहा है।

3. तकनीकी कारक

प्रौद्योगिकी सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। आज की दुनिया में यह बहुत बड़ा सच है। प्रागैतिहासिक युग में परिवर्तन बहुत धीमी गति से होता था। तब हमारे पूर्वज पत्थरों के औजारों से दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति किया करते थे। प्रौद्योगिकी के विकास के कारण हमारे युग में परिवर्तन की गति बहुत तेज हो गई है। आधुनिक तकनीकी आविष्कारों ने उत्पादन के तरीकों तथा उत्पादन के संदर्भों को तेजी से बदल डाला है, और पुराने पारंपरिक सामाजिक ढांचे, विचार व परंपराएं विश्वास व धारणायें आदि काफी बदल चुके हैं। प्रौद्योगिकी मौलिक पर्यावरण को बदल डालती है, और मनुष्य समाज उसे स्वीकार करने पर विवश होते हैं। एक ओर प्रौद्योगिकी मनुष्य समाज के लिए एक वरदान साबित हुई है, दूसरी ओर उसके कुछ नकारात्मक पहलू भी हैं प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल संतुलन व संयम के साथ जरूरी जानकारी के साथ न किये जाये तो वह भारी विनाश का कारण बन जाती है। समाज पर प्रौद्योगिकी के गलत इस्तेमाल के दुष्परिणाम सामाजिक संस्थानों व सामाजिक ढांचों पर स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। सामुदायिक जीवन का विघटन एक बड़ा नकारात्मक परिणाम है। इसके कारण लोग अकेले पड़ते जा रहे हैं। सामाजिक समरसता एवं सरोकारों को इससे भारी क्षति हो रही है।

4. सांस्कृतिक कारक

मनुष्य का सामाजिक जीवन विश्वास, धर्म, आदर्श, प्रथाएं, रूढिया आदि पर निर्भर होता है। सत्य सनातन धर्म (हिन्दु) मे विवाह एक आर्दश धर्म था।

विवाह ईश्वर स्वयं निश्चित करता है तथा विवाह की क्रिया ईश्वर को साक्षी रखकर सम्पन्न होती थी अतः ऐसे विवाह को तोड़ने की कल्पना नही होती थी। अतः विवाह-विच्छेद को हिन्दू विवाह मे कोई स्थान नही था पर अब यह आधार बदल गया है। अब लोग व्यक्तिगत सुख तथा यौन संतुष्टि के लिए विवाह करते है। अतः पारिवारिक स्थिरता कम हो गई है। विवाह-विच्छेद अब अधिक संख्या मे होने लगे है।

5. जनसंख्यात्मक कारक

जनसंख्या मे परिवर्तन, जन्मदर तथा मृत्यु दर घटने-बढ़ने व देशान्तरण की प्रकृति के कारण होते है। जन्मदर बढ़ती है और मृत्युदर घटती है तो जनसंख्या मे वृद्धि होती है। भारत मे आज यही स्थिति है। माल्थस के शब्दों मे " यह स्थिति समाज मे भुखमरी, महामारी, बेरोजगारी आदि को उत्पन्न करती है। इस प्रकार जन्मदर घट जाए और मृत्यु दर बढ़ जाए तो समाज मे कार्यशील जनसँख्या मे कमी हो जाती है। इससे प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण दोहन नही हो पाता और आर्थिक स्थिति कमजोर हो जाती है।

6. प्रौद्योगिकी कारक

नए मशीन या यंत्र का अविष्कार सामाजिक जीवन को प्रभावित करता है। मशीनों के अविष्कार से बड़े पैमाने पर उत्पादन संभव हुआ। श्रम विभाजन, विशेषीकरण हुआ। जीवन स्तर उच्च हुआ तथा जीवन शैली मे परिवर्तन आया। गंदी बस्तियों का विकास हुआ। संघर्ष और प्रतिस्पर्धा मे वृद्धि हुई। धर्म का प्रभाव कम हुआ तथा जीवन प्रकृति से दूर हुआ।

7. प्राणिशास्त्रीय कारक

यदि  किसी समाज मे स्वास्थ्य का स्तर नीचा है तो उसका प्रभाव सामाजिक जीवन पर दिखाई देता है। ऐसे समाज मे जन्मदर और मृत्युदर ज्यादा रहती है। बच्चों की मृत्युदर ज्यादा होने से जीवन-अविधि भी कम  होती है। जहां अनुभवी लोग कम होते है वहां आविष्कारों की सम्भावनाएं कम होती है।

8. राजनैतिक कारक 

ये सभी सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है-- द्वितीय महायुद्ध, हिटलर के अधिनायकवाद, बंग्लादेश की समस्या, भारत का विभाजन, कश्मीर समस्या आदि ने विभिन्न सामाजिक परिवर्तनों को जन्म दिया।

9. वैधानिक कारक 

समाज में वांछित परिवर्तन लाने में कानून का महत्वपूर्ण योगदान होता हैं। कानून के पीछे राज्य की संस्थात्मक शक्ति निहित होती है अतः हम समाज में कठोरतापूर्वक कानूनों को लागू कर परिवर्तन ला सकते हैं। भारतीय समाज में संविधान निर्माण के पश्चात समाज के प्रत्येक वर्ग से जुड़े लोगों के लिए समानता व न्यायपूर्ण वातावरण प्राप्त करने हेतु कानून की दरकार थी, हुआ भी यही, कमजोर वर्गों के उत्थान के लिए कानून जातिगत भेदभाव मिटाने, स्त्रियों की प्रस्थिति में परिवर्तन लाने जैसे कई कानून सामाजिक न्याय को प्राप्त करने के लिए वांछित परिवर्तन लाने के लिए बनाए गए। जहाँ कानूनों को प्रभावी बनाया गया वहाँ परिवर्तन को देखा जा सकता हैं।

सामाजिक परिवर्तन के प्रकार (samajik parivartan ke prakar)

सामाजिक परिवर्तन के प्रकारों या ढंगों की विवेचना विभिन्न समाजशास्त्रीय अवधारणाओं द्वारा पेश की गयी हैं। सामाजिक परिवर्तन के निम्नलिखित प्रकार हैं--

1. प्रक्रिया  

प्रक्रिया से तात्पर्य परिवर्तन की निरन्तरता से है। प्रक्रिया प्रत्यक्ष और परोक्ष उत्थान और पतन किसी भी ओर हो सकती है। यह तो परिवर्तन का एक निश्चित क्रम होता है जिसके द्वारा एक अवस्था दूसरी में बदल जाती है। मैकाइवर ने प्रक्रिया को वर्तमान शक्तियों की क्रियाशीलता द्वारा एक निश्चित रूप में निरन्तर परिवर्तन कहा है; उदाहरणार्थ- जब हम कहते हैं कि आज समाज आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में है तो हमारा आशय है कि प्राचीन मूल्य, परम्पराएँ आदि निरन्तर परिवर्तित हो रही हैं और प्राचीन मूल्य परम्पराएँ आधुनिकीकरण में विलीन हो रहे हैं।

2. उद्विकास 

 उद्विकास सामाजिक परिवर्तन का एक प्रकार हैं। परिवर्तन के परिणामस्वरूप जो विभिन्न स्थितियाँ पैदा होती हैं उनमें उद्विकास भी एक हैं। 

उद्विकास उस स्थिति को कह सकते हैं जब परिवर्तन एक निश्चित दिशा में निरन्तर हो तथा रचना एवं गुणों में भी परिवर्तन हो। उद्विकास में किसी वस्तु के आन्तरिक गुणों में परिवर्तन होता है। उद्विकास का अर्थ है एक सीधी तथा सरल वस्तु का जटिल अवस्था में बदल जाना।

3. प्रगति 

प्रगति का अर्थ एक इच्छित दिशा में होने वाला परिवर्तन हैं। सामाजिक प्रगति प्रायः नियोजित होती हैं। जिसे हम अपने लिए ठीक समझते हैं, उसी के लिए प्रयत्नशील भी रहते है तथा वही हमारे लिए प्रगति हैं अर्थात् प्रगति में मूल्य निर्णय होता है, यह सापेक्षिक हैं। यह हो सकता है कि जो हमारे लिए प्रगति है वह किसी अन्य समाज के लिए अवनति हो। प्रगति में हमेशा परिवर्तन का विचार निहित रहता हैं।

4. विकास  

विकास से तात्पर्य किसी वस्तु में होने वाले परिवर्तन से है जो श्रेष्ठता की ओर होता है। बालक भी जब शिशु से युवावस्था को प्राप्त करता है तो उसमें शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, सामाजिक, नैतिक सभी प्रकार का परिवर्तन होता है तभी वह समायोजित व्यक्तित्व को प्राप्त करता है। इसी प्रकार कोई समाज भी जब आर्थिक, सामाजिक, नैतिक सभी रूपों में परिवर्तित होता है तभी उसको विकसित समाज कहा जायेगा। इस प्रकार का विकास इस प्रकार के परिवर्तन का सूचक है जो श्रेष्ठता की ओर अग्रसर होता है- भारत की तुलना में पश्चिमी समाज इसीलिए विकसित माने जाते हैं क्योंकि वे आर्थिक, तकनीकी, शिक्षा आदि के सभी क्षेत्रों में परिवर्तित हो गए हैं। विकास समाज की प्रगति के लिए आवश्यक हैं- विकास के लिए जानबूझकर प्रयास किए जाते हैं।

5. अनुकूलन 

अनुकूलन भी परिवर्तन की एक प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अथवा परिस्थिति से अपना समायोजन करने का प्रयत्न करता है। अनुकूलन की प्रक्रिया में दो बातें विशेष हैं- 

(1) व्यक्ति अपने को परिस्थिति के अनुसार बना ले अथवा 

(2) परिस्थितियों को अपनी आवश्यकता के अनुरूप बना ले। समाज के स्तर पर भी अनुकूलन होता है- अनुकूलन के लिए समायोजन (Adjustment), अभियोजन (Accommodation), सात्मीकरण (Assimilation) तथा एकीकरण (Integration) आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो बताते हैं कि अनुकूलन किस सीमा तक होता है। इस प्रकार अनुकूलन भी परिवर्तन का ही प्रकार है।

6. क्रान्ति  

जब समाज में शोषण, अत्याचार, तनाव व असन्तोष अत्यधिक बढ़ जाता है तो राजनैतिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है और सामाजिक नैतिक मूल्यों में भी गिरावट आ जाती है। समाज में तीव्रता से परिवर्तन आ जाता है ऐसी स्थिति क्रान्ति कहलाती है- क्रान्ति प्रायः आर्थिक व राजनैतिक क्षेत्रों में तीव्रता से आती है। 

हापर ने क्रान्ति की अवधारणा को इस प्रकार व्यक्त किया है “सामाजिक क्रान्ति वह तीव्र परिवर्तन है जिसमें व्यक्तियों को एक-दूसरे से सम्बन्धित रखने वाली राजनैतिक व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है- सरकार कार्यशील सत्ता के रूप में नहीं रह पाती- इस स्थिति में समाज की मौलिक एकता समाप्त हो जाती है एवं सामाजिक व नैतिक मूल्य समाप्त होने लगते हैं। यदि क्रान्ति में अधिक तीव्रता आती है तो सभी प्रमुख संस्थाएँ काफी परिवर्तित हो जाती हैं। इस प्रकार राज्य, धर्म, परिवार व शिक्षा अपने मूल रूप से काफी बदल जाते हैं।" इस प्रकार क्रान्ति सामाजिक परिवर्तन का महत्त्वपूर्ण माध्यम है।

7. वृद्धि  

वृद्धि भी परिवर्तन का एक प्रकार है जो वस्तु में परिणात्मक परिवर्तन को बताती है। प्रायः वृद्धि आकार में हाने वाले परिवर्तन को कहा जाता है इसकी एक सीमा होती है, उस सीमा के बाद वृद्धि नहीं होती या रुक जाती है साथ ही किसी एक दिशा में या क्षेत्र में हुए परिवर्तन को बताती है। इस प्रकार वृद्धि परिवर्तन का एक प्रकार है जो मात्रात्मक होती है, उदाहरण के लिए समाज में जन्मदर एवं मृत्युदर में हुई वृद्धि को मापा जा सकता है।

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