2/21/2023

सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक विचार

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प्रश्न; सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक विचारों का मूल्यांकन कीजिए। 

अथवा" सुभाष चन्द्र बोस के राजनीतिक विचार बताइए। 
अथवा" सुभाष के राजनीतिक विचारों की समीक्षा कीजिए।
उत्तर--

सुभाष चंद्र बोस के राजनीतिक विचार

subhash chandra bose ke rajnitik vichar;सुभाष चंद्र बोस असल में कोई राजनीतिक दार्शनिक नही थे, वे तो एक कर्मठ व्यक्ति थे। अपने विद्यार्थी जीवन में वे वेदांत दर्शन की श्रेष्ठता स्वीकार करते थे लेकिन उनका शंकर के "मायावाद" में विश्वास न था तथा वे विश्वास को एक यथार्थ तथा कर्म भूमि समझते थे। लेकिन बाद में वे एक यथार्थवादी हो गये थे। उन्हें स्वामी विवेकानन्द एवं अरविंद घोष के विचारों से बड़ी प्रेरणा मिली थी। भारत के पतन के कारणों का विश्लेषण करते हुए वे कहते थे, "आखिरकार भारत के भौतिक तथा राजनीतिक अधःपतन का कारण क्या है? यह उसका भाग्य में एवं दैवी शक्ति में असीम विश्वास है-- आधुनिक विज्ञान के प्रति उपेक्षा, उसका आधुनिक युद्ध कला में पिछड़ापन, शांतिपूर्ण संतोष तथा अहिंसा का अविवेकमयी सीमा तक दृढ़ता के साथ पालन भारत के पतन के कारण रहे हैं।" 
सुभाष जी उग्र नीतियों के समर्थक थे। इसका प्रमुख कारण यह था कि उस समय बंगाल उग्र राष्ट्रवादियों का गढ़ रहा था। बंगाल विभाजन के बाद वहाँ चारों ओर अशांति फैली हुई थी। जनता बंगाल विभाजन का प्रतिरोध लेने हेतु लालायित थी। ऐसी प्रभावपूर्ण परिस्थिति में सुभाष जी राजनीति में अवतरित हुए। 
सुभाष जी कट्टर देशभक्त थे। अपने देश की महानता के ऊपर उन्हें महान गर्व था। वे बंगाल को भारत के अन्य प्रांतों की अपेक्षा ज्यादा श्रेष्ठ समझते थे। बंगालियों की बुद्धि पर भी उन्हें बड़ा अभिमान था। वे बंगाल की महानता के तीन कारण बताते थे-- बंगाल में आर्य जाति के आदर्श तथा धर्म, द्रविड़ों के कला-कौशल और मंगोलों की बुद्धि का अद्भुत समन्वय हुआ हैं। इससे बंगाल में निवास करने वाली जाति में विशेष गुण आ गये हैं, जो अन्यत्र नहीं मिलते हैं। बंगाल में ही सर्वप्रथम पुनर्जागरण आया है एवं इस प्रांत ने कई महान नेताओं को जन्म दिया है। बंगाल में तीन धाराओं का मिलन हुआ हैं--- 
(अ) तांत्रिकवाद, 
(ब) वैष्णववाद, 
(स) नवीन न्यायदर्शन एवं रघुनंदन की स्मृति। 
सुभाष एक उच्चकोटि के देशभक्त थे। प्रारंभ में उनका झुकाव अध्यात्मवाद की तरफ था लेकिन बाद में वे एक यथार्थवादी बन गये। कालांतर में कांग्रेस के वृद्ध नेताओं से उनका मतभेद हो गया तथा वे भारत के राजनीतिक मंच पर अधिक समय तक न ठहर सके। हालाँकि उन्होंने भारतीय राजनीतिक विचारधारा को कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं दिया तथापि हम उनके राजनीतिक विचारों की समीक्षा इस तरह से कर सकते हैं--
1. नेता जी अहिंसावाद के विरोधी 
सुभाष भारत की स्वतंत्रता के अग्रदूत थे। हालाँकि वे कोई दार्शनिक नही थे लेकिन वे एक कर्मठ राजनीतिज्ञ अवश्य थे। हालाँकि उन्होंने असहयोग आंदोलन का समर्थन किया था लेकिन वे गाँधी जी की नीतियों के समर्थक नहीं थे। जिस समय गाँधी जी ने चोरा-चोरी कांड से दुःखी होकर असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया, उस समय नेता जी ने उनके इस कार्य का तीव्र विरोध किया। उन्होंने गाँधीजी की नीतियों की आलोचना करते हुए कहा कि," महात्मा गाँधी का तर्क जाॅन बुल को संतुष्ट नही कर सकता हैं। वे असफल हो गये है, क्योंकि मेज पर अपने सब यंत्रों को खोलकर रख देने की नीति असफल हुई हैं। राजनीतिक संघर्ष में राजनीतिक कला को नही नहीं भुलाया जा सकता है। गाँधी जी असफल हो गये हैं, क्योंकि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय शस्त्र का प्रयोग नहीं किया है। अगर हम अहिंसा से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते हैं तो उसके लिए राजनीतिक तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रचार जरूरी हैं।" 
सुभाष जी ने गाँधी जी की औपनिवेशिक स्वराज्य की धारणा की भी आलोचना की। नेहरू रिपोर्ट को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। गाँधी-इरविन समझौते की उन्होंने कटु आलोचना की तथा गाँधी जी को उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित कर देने हेतु उत्तरदायी ठहराया। 
जब प्रथम गोलमेज सम्मेलन में गाँधी जी को असफलता हाथ लगी तो नेता जी ने उन्हें कोरा महात्मा कह कर पुकारा तथा कहा कि वे अध्यात्मवाद के आदर्श को राजनीति में खोज रहे हैं। सुभाष जी का राजनीतिक सौदेबाजी में विश्वास नहीं था। उनका मत था कि, "राजनीतिक सौदेबाजी का रहस्य यह है कि असल में तुम जितने शक्तिशाली हो उससे कहीं ज्यादा दिखाई दो।" 
गाँधी जी की गोलमेज सम्मेलन में असफलता का कारण बताते हुए सुभाष जी ने कहा कि," इसके विपरीत अगर महात्मा गाँधी तानाशाह स्टालिन की भाषा बोलते, डयूस मूसोलिनी अथवा फ्यूहर हिटलर की भाषा का प्रयोग करते तो वह (अंग्रेज) उनकी बात सुनता तथा आदर से उनके सामने सर झुका देता।" 
सुभाष जी अहिंसा को ही भारत के पतन का कारण समझते थे। वे कहते थे कि, आखिरकार भारत के भौतिक तथा राजनीतिक अध:पतन का कारण क्या हैं? नियति पर विश्वास एवं दैवी शक्ति पर आस्था, आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति के प्रति उपेक्षा, आधुनिक युद्ध कौशल में भारत का पिछड़ापन, शांतिपूर्ण संतोष, अहिंसा पालन आदि ने भारत के पतन में योग दिया हैं।"
2. कुछ विषयों पर गाँधी जी के प्रशंसक
हालाँकि सुभाष गाँधी जी के आलोचक थे लेकिन कुछ विषयों में वे गाँधी जी की प्रशंसा करते थे। उनका कथन था कि," गाँधी जी महान विभेति हैं।" सुभाष जी गाँधी जी के दृढ़चरित्र की प्रशंसा करते थे। वे उन्हें राष्ट्रीयता के नाम से पुकारते थे। वे उनके सामने उनके अथक परिश्रम, ह्रदय की भक्ति एवं दृढ़ शक्ति के लिए सर झुकाते थे, वे उनके मानवता संबंधी दृष्टिकोण एवं घृणा से मुक्ति की बड़ी प्रशंसा करते थे। 
हालाँकि सुभाष जी गाँधी जी के वर्ण समन्वय एवं ट्रस्टीशिप के सिद्धांत के विरोधी थे लेकिन वे उन्हें देश के लिए जरूरी समझते थे। उनका कथन था कि," भारत उन्हें खोना नहीं चाहता तथा विशेषकर इस समय उनकी जरूरत है जिससे हमारा संघर्ष घृणा एवं द्वेष से मुक्त रहे। हम स्वतंत्रता के लिए उनकी आवश्यकता अनुभव करते है। इससे और अधिक क्या कहें, हमें उनकी आवश्यकता मानवता की रक्षा के लिए हैं।" 
3. राष्ट्रीय आंदोलन में कष्ट एवं बलिदान की आवश्यकता 
नेता जी कहते थे कि राष्ट्रीय सेवा फूलों की सेवा नहीं है। उन्होंने घोषणा की थी कि राष्ट्र का निर्माण "फिलासफी ऑफ एक्सपिडियेन्सी" के आधार पर नहीं किया जा सकता। एडमण्ड बर्क तथा सर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इसी नीति पर बल दिया था। सुभाष जी का मत था कि राष्ट्र के निर्माण हेतु सच्चे, ह्रदय से प्रयत्न किया जाना चाहिए एवं इसके लिए "हैम्पडन" एवं क्रामवेल के "दृढ़ आदर्शवाद" की जरूरत हैं। स्वामी विवेकानंद के अनुसार नेता जी बार-बार यही कहा करते थे कि राजनीतिक स्वतंत्रता त्याग, तपस्या, बलिदान तथा कष्ट सहन करने से प्राप्त होती है। सुभाष जी का विश्वास था कि स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु महान् नैतिक तैयारी की जरूरत हैं। अतः उन्होंने राष्ट्र सेवा के लिए देशवासियों को कष्ट तथा बलिदान सहने के लिए प्रेरित किया।
4. राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ सामाजिक स्वतंत्रता पर भी बल 
सुभाष जी राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ भारत के लिए सामाजिक स्वतंत्रता भी प्राप्त करना चाहते थे। वे समाज में मौजूद "पूँजीपतियों एवं श्रमिक" जमींदार एवं कृषक तथा धनी तथा निर्धर केे बीच संघर्ष को खत्म करना चाहते थे। वे जमींदारों एवं पूँजीपतियों को ब्रिटिश सरकार का समर्थक समझते थे, अतः वे उनकी सत्ता को मिटाना चाहते थे। नेता जी का मत था कि," इतिहास का तर्क अपने परिवर्तन मार्ग पर चलेगा।
राजनीतिक संघर्ष तथा सामाजिक संघर्ष दोनों को साथ-साथ ही चलना है। वह दल जो भारत के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करेगा, उसे जनता के लिए सामाजिक तथा आर्थिक स्वतन्त्रता भी प्राप्त करनी पड़ेगी।" नेता जी "औपनिवेशिक स्वराज्य" की धारणा से संतुष्ट नहीं थे। 1920 के कांग्रेस के प्रस्ताव का उन्होंने जबरदस्त विरोध किया था। 1930 में उनकी इच्छा के अनुसार कांग्रेस ने अपना कार्यक्रम पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करने का रखा था। कतिपय विचारकों की दृष्टि से नेता जी साम्यवादी थे। वे वर्ग संघर्ष द्वारा पूँजीवाद का अंत करना चाहते थे लेकिन नेता जी कभी भी साम्यवादी नहीं रहे। वे तो आर्थिक स्वतन्त्रता के पक्षपाती थे।
5. सुभाष जी के समाजवादी विचार 
सुभाष जी समाजवादी विचारधारा से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। अतः वे दरिद्रता, अशिक्षा तथा गरीबी को खत्म कर देना चाहते थे। उन्होंने अपने भाषण में कहा था," इस संबंध में मेरे मस्तिष्क में बिल्कुल संदेश नहीं हैं कि हमारी गरीबी, अशिक्षा, बीमारी, वैज्ञानिक उत्पादन तथा वितरण से संबंधित समस्याओं को सिर्फ समाजवादी रास्ते पर चलकर ही प्रभावपूर्ण तरीके से सुलझाया जा सकता हैं।" 
नेता जी समाज में धनी तथा निर्धन के भेद-भाव को मिटाना चाहते थे। वे राज्य के नियंत्रण में कृषि एवं उद्योगों के विकास के पक्षपाती थे। हरिपुर कांग्रेस में उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि," राज्य को एक योजना आयोग की सलाह पर उत्पादन एवं स्वायत्तीकरण के क्षेत्र में, हमारी संपूर्ण कृषि तथा औद्योगिक व्यवस्था का धीरे-धीरे समाजीकरण करने की व्यापक योजना का अनुसरण करना पड़ेगा।" 
सुभाष जी स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद ही देश में समाजवाद लाना चाहते थे। उनका मत था कि," जब देश की स्वतन्त्रता मिल जाती हैं, तो समाजवाद हेतु देश को तैयार करने के लिए समाजवादी प्रचार की जरूरत हैं।" 
6. सुभाष साम्यवाद के आलोचक
क्या नेता जी सुभाष एक साम्यवादी थे? इस प्रश्न का उत्तर देना भी अत्यंत जरूरी है क्योंकि कतिपय विचारक उनके समाजवादी विचारों को देखकर उन्हें साम्यवादी समझ बैठते हैं। ये विचारक उनकी वामपंथी विचारधार की व्याख्या का उदाहरण देते हैं जो कि सुभाष जी ने 1940 में रामगढ़ के अध्यक्षीय भाषणों में कही थी। सुभाष जी के शब्द इस तरह थे," हम वामपंथ का क्या अर्थ लगाते हैं, इसके लिए भी एक शब्द बताना जरूरी हैं। वर्तमान युग साम्राज्यवादी विरोधी युग है। हमारा ध्येय इस युग में यह है कि हम साम्राज्यवाद का अंत कर दें तथा राष्ट्रीय स्वतन्त्रता को भारतीयों के लिए प्राप्त कर लें। वामपंथी वे लोग होंगे जो साम्राज्यवाद के विरुद्ध घोर युद्ध करेंगे। जो इस युद्ध में हिले-डुलेंगे, ढिलमिल हो जायेंगे अथवा मेल कर लेंगे, वे किसी अर्थ में वामपंथी न कहलायेंगे।" 
सुभाष जी साम्राज्यवाद एवं पूँजीवाद के घोर शत्रु थे। वे साम्राज्यवादी एवं पूँजीवादी देश ब्रिटेन से घृणा करते थे। उनका मत था कि साम्राज्यवाद के विरोधी एवं वामपंथी एक शब्द के पर्यायवाची हैं। वे गरीबी को समूल नष्ट करना चाहते थे। उनके यही विचार उन्हें साम्यवादी बना देते हैं। 
परन्तु असल में सुभाष जी साम्यवादी न होकर साम्यवाद के विरोधी थे। वे घोषणा करते थे कि राष्ट्रवाद तथा साम्यवाद में कभी मेल नही हो सकता है। साम्यवाद राष्ट्रवाद का विरोधी है। उनका विचार था कि अध्यात्मवादी भारत कभी भी मार्क्स की द्वंद्ववादी भौतिक विचारधारा को स्वीकार नहीं कर सकता। साम्यवादी राष्ट्रवादियों को बुर्जुआ एवं पूँजीपतियों का अनुकरणकर्ता समझते हैं। अतः राष्ट्र, धर्म विरोधी तथा नास्तिकता का प्रचारक साम्यवाद कभी भी भारतीयों को प्रिय नहीं हो सकता।
भारत एवं रूस की राजनीतिक परिस्थितियों में काफी अंतर है और रूस का साम्यवाद भारत में नही पनप सकता। सुभाष जी का मत था कि," जो लोग साम्यवाद के आर्थिक विचारों को ग्रहण कर लेते हैं, वे ऐतिहासिक भौतिकवाद के दर्शन के प्रति उदासीन दृष्टिकोण रखते हैं।" 
सुभाष जी साम्यवाद का विरोध इसलिए भी करते थे कि यह आर्थिक पहलू पर विशेष जोर देता हैं। सुभाष जी यह भी कहते थे कि साम्यवाद ने धन संबंधी सिद्धान्त हेतु योगदान नहीं दिया वरन् इसने सिर्फ परंपरागत अर्थशास्त्र का ही अनुसरण किया है। सुभाष जी का विचार था कि स्वतंत्र भारत में राज्य जनता की संस्था के रूप में कार्य करेगा। अस्तु, रूस में घटित हुई वर्ग संघर्ष की घटना भारत में पुनरावृत्ति नहीं होगी। सुभाष जी का कथन था," रूस में श्रमिक वर्ग की समस्या का बल दिया गया है लेकिन भारत की परिस्थति दूसरी है क्योंकि यहाँ कृषक वर्ग की अधिकता है अस्तु, कृषकों की समस्याएं मजदूरों से भिन्न होंगी।" 
इस तरह सुभाष जी भारत के लिए साम्यवाद को अनुपयोगी समझते थे। 
7. क्या सुभाष फासिस्टवादी थे
सुभाष का "राजनीतिक यथार्थवाद" में विश्वास था। वे भारत की स्वतंत्रता के लिए विदेशों में प्रचार करना अत्यंत जरूरी समझते थे जिससे कि विश्व जनमत का भारत को समर्थन मिल सके। वे विदेशी मित्रों को भारत के लिए जरूरी समझते थे। 
सुभाष के विरोधी उन्हें एक फासिस्टवादी कहते है। उनका मत है कि सुभाष जी हिटलर तथा मुसोलिनी की नीतियों के समर्थक थे। यह बात तो सत्य है कि सुभाष जी फासिस्टवादी नीतियों में विश्वास करते थे उन्होंने अपनी पुस्तक "भारतीय संघर्ष" में लिखा भी था कि," मुसोलिनी वह व्यक्ति है जो आधुनिक यूरोप की राजनीति में वास्तव में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।" इसके अलावा सुभाष जी ने गाँधी जी की इटली यात्रा तथा गाँधी जी एवं मुसोलिनि की भेंट को बड़ा महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने लिखा है कि," गाँधी जी ने इटली की यात्रा करके जनता की बड़ी सेवा की हैं। दुःख सिर्फ इतना ही है कि वे वहाँ अधिक दिनों तक नहीं ठहरे तथा ज्यादा व्यक्तिगत संबंध स्थापित नहीं कर सके।" 
एक अन्य कारण से भी लोग उन्हें फासिस्टवादी कहते हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक में फासिस्टवादी नेताओं के विरुद्ध एक भी शब्द नहीं लिखा तथा साथ ही उन्होंने फासिस्टवाद तथा साम्यवाद को मिलाने का विचार व्यक्त किया है। उन्होंने अपनी पुस्तक "दी इंडियन स्ट्रगिल" के "ए ग्लिम्पसिस ऑफ फ्यूचर" नामक अध्याय में लिखा है कि," साम्यवाद तथा फासिस्टवाद में विरोध के बावजूद भी समान लक्षण हैं। दोनों साम्यवाद तथा फासिस्टवाद व्यक्ति के ऊपर राज्य की सर्वोच्चता में विश्वास रखते हैं। दोनों, ही संसदात्मक प्रजातंत्र की निंदा करते हैं। दोनों दल के शासन में विश्वास करते हैं। दोनों दल की तानाशाही में एवं विरोधी मत के दमन में विश्वास करते हैं। दोनों ही देशों के नियोजित औद्योगिक पुनर्गठन में विश्वास करते हैं। ये सामान्य लक्षण नवीन समन्वय के आधार का निर्माण करेंगे। यही समन्वय "साम्यवाद" है जो कि भारतीय शब्द है एवं जिसका शाब्दिक अर्थ "समन्वय तथा समानता" का सिद्धान्त है। इस समन्वय को कार्य रूप में परिणित करना भारत का कार्य होगा।" 
सुभाष जी के विचारों में हमें एक विरोधाभास दिखाई देता है। शुरू में वे एक वेदांतवादी थे, बाद में एक साम्यवादी बन गये। फिर भी सुभाष जी को एक फासिस्टवादी मानना उचित नहीं हैं। वास्तव में वे पक्के राष्ट्रवादी थे। उन्होंने जो कुछ भी किया देश की स्वतंत्रता के लिए किया। वे अहिंसावादी नहीं थे तथा हिंसात्मक साधनों में उनका विश्वास था। वे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए विदेशी मदद प्राप्त करने के लिए भी तत्पर हो जाते थे। अपने लक्ष्य की पूर्ति हेतु वे सभी साधनों के प्रयोग में आस्था रखते थे।

सारांश 

सुभाषचंद्र बोस ने भारतीय राष्ट्रवाद के उद्भव एवं विकास के एक नए दृष्टिकोण को प्रतिपादित किया। देश तथा देश के बाहर अपने समस्त क्रिया-कलाप में बोस ने निर्भीकता के साथ राष्ट्रवाद का समर्थन किया, जिसमें किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता की गुंजाइश नहीं थी। भारतीय राजनीतिक सिद्धांत के क्षेत्र में बोस का उल्लेखनीय मौलिक योगदान नहीं हैं किंतु उनका महत्त्व इसमें है कि गांधी जी व अन्य वामपंथियों की भांति उन्होंने भी गंभीर आर्थिक समस्याओं के तत्काल हल किए जाने पर जोर दिया है। अपनी पुस्तक 'भारतीय संघर्ष' के साम्यवाद तथा फांसीवाद के समन्वय की योजना कल्पित की है। वह भारतीय जनता के दृष्टिकोण में अत्याधिक विकृत और कुत्सित विचारधारा सिद्ध होती है।
सुभाषचंद्र बोस की महत्त भारतीय इतिहास में स्थायी रूप से प्रतिष्ठित रहेगी। बोस को उनकी ज्वलंत देशभक्ति, देश को ब्रिटिश साम्राज्यवाद की श्रृंखलाओं से मुक्त कराने का आदर्श के प्रति उनकी लगभग उन्मादपूर्ण निष्ठा तथा राष्ट्र के लिए उन्होंने जो घोर कष्ट सहे उनके कारण उन्हे सदैव प्रथम श्रेणी के राष्ट्रीय वीर और दुर्गांत सेनानी के रूप मे अभिनन्दित किया जाएगा किन्तु राजनीतिशास्त्र के शुद्ध शास्त्रीय सैद्धांतिक अन्वेषण के क्षेत्र में उनका योगदान न विशेष महत्त्वपूर्ण है और न मौलिक।
यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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