5/07/2022

अरविंद घोष के राजनीतिक विचार

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प्रश्न; श्री अरविंद घोष के राजनीतिक विचारों का विवेचन कीजिए। 

अथवा" अरविंद घोष कौन थे? महर्षि अरविन्द घोष के राजनीतिक विचारों को समझाइए। 

अथवा" अरविंद एक महान् राजनीतिक विचारक थे। व्याख्या कीजिए।

उत्तर-- 

arvind ghosh ke rajnitik vichar;सुप्रसिद्ध इतिहासकार डा. आर. सी. मजूमदार ने महर्षि अरविन्द घोष के विस्मयकारी जीवन का सार इस प्रकार प्रस्तुत किया है," भारत में एक बालक के रूप में, इंग्लैण्ड में एक युवक के रूप में, बड़ौदा में एक विद्वान व अध्यापक के रूप में, भारतीय स्वतंत्रता के सेनानी के रूप में चिन्तक, कवि, योगी व ऋषि श्री अरविन्द में एक लोकोत्तर आभा थी , वे एक अतुलनीय व्यक्ति थे।" 

('As a child in India a youth in England, a scholar and professor in Baroda, a fighter for his country's freedom, a thinker. poet, yogi and Rishi, Sri Aurobindo was a transcendent splendour, an incomparable phenomenon') 

निःसन्देह अरविन्द घोष एक प्रकाश पुंज की भाँति पहले भारत के राजनीतिक व कालान्तर में आध्यात्मिक क्षितिज को आलोकित करते रहे। भारतीय राजनीति में अपनी सक्रियता के 4-5 वर्षों में ही उन्होंने अपनी प्रखर देश भक्ति व दूरदर्शिता से नई पीढ़ी को उत्साह व कर्मठता से भर दिया। राजनीतिक जीवन का परित्याग करने के बाद उन्होंने अपनी योग-साधना के बल पर भारत की आध्यात्मिक व सांस्कृतिक सम्पदा से विश्व को परिचित कराया। 

अरविंद घोष यद्यि प्रारंभ में 1909 तक विशुद्ध राजनीतिज्ञ तथा राष्ट्रीय आंदोलन में एक उग्र राष्ट्रवादी चिन्तक थे। उन्होंने अपने लेखों में भारत में ब्रिटिश शासन पर तीखे प्रहार किये। परन्तु 1909 के बाद उनका जीवन तथा विचारधारा बदल गई इसके बाद वे एक महान अध्यात्मवादी संत बन गये। यद्यपि संत के रूप में भी उनका लक्ष्य भारत को आध्यात्मिक शक्ति (आत्म-शक्ति) भारतीय लोगों में विकसित कर भारत को चालाक ब्रिटिश जाति के साम्राज्यवाद से मुक्त कराना था। भारत से राष्ट्रीय आंदोलन में ऐसे लोगों का बहुमत था जो ब्रिटिश भक्त थे तथा ब्रिटेन से प्रभावित थे। अरविंद ब्रिटिश जाति के विरोधी थे। वास्तव में वे संत शैली के राजनीतिज्ञ थे। अरविंद का राष्ट्रवाद बहुत महत्वपूर्ण और आध्यात्मिक राष्ट्रवाद था जिस पर मैजिनी और आयरलैंड के राष्ट्रवाद का प्रभाव था। वे राष्ट्रवाद को एक दैवी इच्छा मानते थे। उनका मत था, कि जिस तरह आत्म स्वतंत्रता चाहती है उसी प्रकार राष्ट्र की आत्मा भी स्वतंत्रता चाहती हैं।

अरविंद घोष के राजनीतिक विचार 

लोकतंत्र संबंधी विचार 

श्री अरविन्द ने लोकतंत्र की धारणा को आर्थिक एवं राजनीतिक व्यक्तिवाद का प्रतिफल माना है व्यक्ति के आर्थिक एवं राजनीतिक हितों की सुरक्षा लोकतंत्र का उद्देश्य रहा है। किन्तु लोकतांत्रिक धारणा ने असमानता, सम्भ्रांत वर्ग का शासन, वर्ग भेद तथा शोषण को जन्म दिया। श्री अरविन्द ने लोकतंत्र को सूक्ष्म दृष्टि से देखा है। वे लोकतंत्र को व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का पोषक नहीं मानते। व्यक्ति का समष्टिकरण उसके व्यक्तित्व को दबा देता है। जनता के शासन के नाम पर कतिपय धनी एवं कुलीन लोगों का ही शासन स्थापित हुआ है। प्राकृतिक स्वतन्त्रता एवं समानता केवल नारेबाजी तक ही सीमित रह गयी है। लोकतांत्रिक संरचना के पार्श्व में एक शक्तिशाली अल्संख्यक नेतृत्व पनपा है जो पूरे शासन पर छाया रहता है। आधुनिक प्रतिनिधि मूलक लोकतंत्र एक मिथ्या है विधायकों या सांसदों द्वारा जनप्रतिनिधित्व का आदर्श भरना दंभपूर्ण है जनप्रतिनिधित्व के स्थान पर कुछ व्यावसायिक हित बन कर रह गया हैं बहुसंख्यक दल का शासन व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा न कर उसे स्वार्थपूर्ति का साधन बनाता रहा है। वे लोकतंत्र के इन दोषों के निवारण के लिए पूर्ण सामूहिक जीवन को जागृत करना चाहते हैं उन्हें आधुनिक लोकतंत्र की केन्द्रीकरण की प्रवृति दोषयुक्त लगती है उनके अनुसार राजनीतिक शक्ति का विकेन्द्रीकरण की स्थापना कर लोकतंत्र के दोषों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है।

समाजवादी संबंधी विचार 

श्री अरविन्द समाजवाद को व्यक्तिवाद राष्ट्रवाद तथा विश्व बन्धुत्व का प्रतीक मानते हैं। शोषित श्रमिकों को नवजीवन प्रदान करने में समाजवाद का जो महत्व रहा है उसे श्री अरविन्द ने सराहा है लेकिन वे समाजवादी विचारधारा के प्रमुख सिद्धान्त राजनीतिक शक्ति के केन्द्रीकरण के पक्ष में नहीं थे। वे समाजवाद के सामाजिक एवं आर्थिक पक्ष के समर्थक थे। वे सामाजिक एवं राजनीतिक क्रियाकलापों को पृथक-पृथक रखने के पक्षपाती है। 

राष्ट्रीय आत्म 

निर्णय के सिद्धान्त का समर्थन साम्राज्यवाद के प्रबल विरोधी होने के कारण श्री अरविन्द ने प्रथम विश्व युद्ध के समय प्रचारित राष्ट्रीय आत्म-निर्णय के सिद्धान्त को पूर्ण समर्थन प्रदान किया। उनके अनुसार राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का नियम स्वतन्त्रता एवं कानून का नया कीर्तिमान स्थापित करता है। यह एक उच्चादर्श का प्रतीक है। इस विचार से प्ररेणा प्राप्त कर अन्तरराष्ट्रीय एकता की स्थापना बलवती हो सकती है, किन्तु श्री अरविन्द ने आत्म-निर्णय के सिद्धान्त को युद्ध एवं क्रांति का पूर्ण शमनकर्ता नहीं माना। 

आध्यात्मिक स्वतंत्रता 

स्वतंत्रता की मानव जीवन में महत्ता को अरविंद ने स्वीकार किया है। भारतीय परम्परा का पालन करते हुए अरविंद ने आध्यात्मिक स्वतंत्रता को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार आध्यात्मिक रूप से स्वतंत्र व्यक्ति ही वास्तविक रूप से स्वतंत्र है। मनुष्य प्रकृति की यांत्रिक आवश्यकता से तभी मुक्ति पा सकता है। जब तक वह अपने को मानसातीत आध्यात्मिक शक्ति का अभिकर्ता मात्र मानकर कार्य करने लगे। हालांकि अरविंद ने राजनैतिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता की महत्ता को भी स्वीकार किया है किंतु उनका मानना था कि आध्यात्मिक स्वतंत्रता के बिना यह दोनों प्रकार की स्वतंत्रता मूल्यहीन है। रविंद्रनाथ टैगोर तथा अरविंद दोनों का ही मानना था कि यदि मनुष्य आध्यात्मिक स्वतंत्रता को प्राप्त कर लेता है तो उसे सामाजिक एवं सामाजिक स्वतंत्रता स्वतः उपलब्ध होती है। अरविंद के अनुसार अपने जीवन के नियमों का पालन करना ही स्वतंत्रता है और चूंकि मनुष्य का वास्तविक आत्म उसका बाह्य व्यक्ति नहीं बल्कि स्वंय परमात्मा है इसलिए ईश्वरीय नियमों का पालन तथा अपने जीवन के नियमों का पालन एक ही बात है। स्वतंत्रता की इस धारणा में रूसों और भगवाद्गीता के विचारों का समन्वय देखने को मिलता है।

अरविंद घोष जी का मानना था कि वर्तमान समाज में अत्याधिक गिरावट आई है, जिसके कारण राजनीतिक तथा सामाजिक अराजकता उत्पन्न कर रखी है और उसका निवारण तभी हो सकता है, जब व्यक्तियों में श्रेष्ठ मानवीय गुणों को आरोपित किया जाए। एक उत्कृष्ट समाज की स्थापना उच्च आध्यात्मिक गुणों वाले व्यक्तियों पर होगा। अतः अरविंद का बल व्यक्तियों में उच्च नैतिक गुणों का आरोपण पर अधिक था। उनका कहना था कि अध्यात्मीकृत समाज का शासन आध्यात्मिकता पर आधारित होगा और ऐसे समाज में सबको समृद्ध तथा सुंदर जीवन बिताने का अवसर मिल सकेगा । उनका कहना था कि सामाजिक एवं राजनीतिक कलह, टकराव, अन्तर्विरोध तथा संघर्ष तभी समाप्त हो सकते हैं जब आत्मा में एकात्म की चेतना जाग्रत हो; ऐसी चेतना पारस्परिक सहयोग सामंजस्य तथा एकता का संवर्धन करेंगी।

विश्व संगठन की स्थापना की आवश्यकता पर बल 

राज्यों की पारस्परिक कलह एवं नियन्त्रण प्राप्त करने की नीति के कारण युद्ध एवं साम्राज्यवाद को निर्मूल नहीं किया जा सकता। इसका अन्त करने के लिए विश्व-संगठन की स्थापना आवश्यक है। दो स्तरों पर विश्व-संगठन की स्थापना सम्भव है। पहले स्तर पर स्वतन्त्र राष्ट्रों को स्वयं संगठित होने की आवश्यकता है। इसके पश्चात् संगठित राष्ट्रों को पास्परिक मतभेद व स्वार्थ मिटाकर अन्तरराष्ट्रीय एकता का आदर्श स्थापित करना है। इन दोनों स्तरों को पार करके ही एक सच्चा सार्वभौम धर्म स्थापित हो सकता है, जिससे जो मानवीय एकता का आदर्श स्थापित किया जा सके। राष्ट्रवाद मानवीय एकता की एक माध्यमिक इकाई है। राष्ट्रवाद से ही विश्व-एकता की ओर अग्रसर होता है। केवल राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक संगठनों की स्थापना मात्र से विश्व एकता अनुभूत नहीं होती। राष्ट्र संघ और संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना मात्र से मानवीय धर्म विकसित नहीं होगा।

राज्य सम्बन्धी विचार 

अरविन्द के अनुसार, बाध्य जीवन की आवश्यकताएं एवं आत्मिक नैतिक खोज मनुष्य को समूहों में रहने के लिए प्रेरित करती है। सामूहिक जीवन की प्रथम अभिव्यक्तियाँ परिवार कुल एवं ग्राम हैं। कालान्तर में छोटे एवं बड़े राज्यों व साम्राज्यों का भी उदय होता हैं जिनके द्वारा मनुष्य आत्म निर्भर एवं परिपूर्ण जीवन की ओर उन्मुख होता है। 

राज्य जीवन, विकास और आत्म-कल्याण का साधन है। परन्तु व्यक्ति व राज्य के परस्पर विरोधी दावे संघर्ष को भी जन्म देते हैं। व्यक्ति में स्वतंत्रता की स्वाभाविक इच्छा होती है जबकि राज्य विधियों से नियंत्रित व्यवस्था होती है। पर यदि व्यक्ति व राज्य धर्म की मर्यादा में रहें तो उनके हितों व कार्यों में कोई विरोध उत्पन्न नहीं हो सकता। अरविन्द के अनुसार राज्य आवश्यक है पर वह साध्य नहीं है। मानव के कतिपय उद्देश्यों व लक्ष्यों की पूर्ति में वह सहायक हो सकता है पर अन्ततः व्यक्ति को अपने विभिन्न लक्ष्यों को अपनी आत्मिक मानसिक शक्तियों को विकसित करके ही प्राप्त करना होता है। 

अरविन्द राज्य के बढ़ते हस्तक्षेप के विरोधी थे। ये प्राचीन भारतीय राज्य की अवधारणा के प्रशंसक थे जिसमें राज्य को धर्म रक्षक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सभी संस्थाएं परिवार, जाति, आर्थिक संघ ग्राम नगर आदि अपने धर्म में बंधे थे और धर्म की इस मर्यादा को स्वतः स्फूर्त तरीके से निभाते थे। इससे राज्य को अनावश्यक हस्तक्षेप करने का अवसर ही नहीं मिलता था। राज्य का दायित्व स्व-धर्म पालन की बाह्य परिस्थितियों की व्यवस्था करना मात्र था अथवा जब कोई स्वधर्म से विरत होता था तो उसे रोकना व दण्डित करना इसका दायित्व था इस प्रकार एक श्रेष्ठ राज्य सीमित व मर्यादित राज्य है, इसमें मनुष्य स्वधर्म पालन के द्वारा आत्मोन्नयन की ओर प्रवृत्त होता है। 

अरविन्द विश्व राज्य (world - state) के प्रतिपादक थे। विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों व भाषाओं पर आधारित राष्ट्र यदि अपने अहं को नियंत्रित कर लें, अपनी शक्ति व क्षमताओं का सृजनात्मक प्रयोग प्रारंभ कर दें और भौतिकवादी व अर्थवादी जीवन-दृष्टि का परित्याग कर दे, तो उनके बीच सामंजस्य व शान्ति असंभव नहीं है, और इस स्थिति में विश्व राज्य का उदय हो सकता है।

अरविंद के निष्क्रिय प्रतिरोध पर विचार 

वास्तव में अरविंद एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। वे उदारवादी अथवा चापलूसी नीति के सख्त विरोधी थे। उनका मत था, कि संवैधानिक साधनों द्वारा उसी देश को स्वतंत्रता मिल सकती है जिसकी सरकार संवैधानिक हैं, जिसके शासक शासित एक ही जाति के हो। भारत में शासक शासित में धर्म, जाति तथा संस्कृति का बहुत अंतर हैं, इसलिए यहां प्रतिरोध के बिना स्वतंत्रता नहीं मिलेगी। 

उनका मत था कि प्रतिरोध दो प्रकार का होता हैं-- 

(अ) आक्रमक 

(ब) निष्क्रिय। 

आक्रमक का अर्थ हैं, शासन को हानि पहुँचाने के लिए प्रत्यक्ष कार्य नहीं करना। निष्क्रिय प्रतिरोध की व्याख्या करते हुये, उन्होंने वन्दे मातरम् में लिखा था, इसमें स्वदेशी का शक्तिशाली हथियार अपनाया जाना चाहिए तथा सविनय अवज्ञा का सहारा लेना चाहिए। उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध की व्याख्या करते हुये लिखा हैं," निष्क्रिय प्रतिरोध का प्रथम सिद्धांत यह हैं कि जब तक जनता की इच्छानुसार स्थितियों में परिवर्तन न हो जाये तब तक ब्रिटिश व्यापार तथा ब्रिटिश शासन को सहायता पहुँचाने वाले प्रत्येक कार्य को करने से इंकार करके वर्तमान परिस्थितियों में शासन को चलाना असंभव बना दिया जायें।"

मूल्‍यांकन 

अरविंद राजनीति के क्षेत्र में बहुत अल्प समय ही रहे थे, इस अल्प समय में ही उन्होंने अपने राजनीतिक विचारों की बहुत गहरी छाप विश्व पटल पर छोड़ी। उनके विचारों का मूल्‍यांकन करते हुए स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर स्पीलबर्ग ने कहा कि," हमारे सामने अफतातून, स्पिनोजा, कांट तथा हीगल आते हैं.... परन्तु उनमें किसी भी दार्शनिक प्रणाली उतनी सर्वांगीण नहीं हैं। किसी की भी वैसी दृष्टि नहीं हैं।" निःसंदेह अरविंद जी के विचार बड़े ही उत्तम एवं सारगर्भित हैं।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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