5/06/2022

जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक विचार

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प्रश्न; जय प्रकाश नारायण के राजनीतिक विचारों की संक्षेप में आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
अथवा" जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक विचारों की विवेचना कीजिए।

उत्तर-- 

जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक विचार 

jai prakash narayan ke rajnitik vichar;जयप्रकाश नारायण भारतीय राजनीतिक चिंतन के एक महान प्रकाश पुँज हैं, क्योंकि 1974 में समग्र क्रांति के विचार देकर भारत में श्रीमति इन्दिरा गाँधी की राजनीति को एक सशक्त चुनौती देकर 1977 में मत-पत्र क्रांति की थी और भारत में 1967 से शुरू हुये गैर-कांग्रेसवाद को चरम तक पहुंचा कर भारतीय जनमानस को काफी प्रभावित किया था। पंडित जवाहर लाल नेहरू के काल में भी उनका नाम नेहरू के बाद कौन से विकल्प के रूप में काफी वजनदारी से विचारित किया जाता था। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी उन्हें अपने दल सहित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में वापिसी के लिये आमंत्रित किया था। वे एक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, समाजवादी आंदोलन के सूत्रधार, उसके बाद सर्वोदय आंदोलन के गान्धीवादी नेता तथा अंत में भारत के समग्र क्रांति के लिये चलाये गये सशक्त आंदोलन के प्रेरणास्रोत, मशालवाहक के रूप में विख्यात मनीषी, विचारक एवं राजनीतिज्ञ (राजनीति शास्त्री) के रूप में प्रख्यात हैं। उनके राजनीतिक चिंतन प्रवाह का जानना विशेषतया भारतीय राजनीतिक वैचारिक जगत में उनका मूल्यांकन करना भारतीय राजनीति के विद्यार्थी के लिये अत्यंत आवश्यक हैं।

जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक विचारों का निम्‍नलिखित शीर्षकों द्वारा नीचे विवेचन किया जा रहा हैं--

लोकतंत्र का प्रबल समर्थन 

जयप्रकाश नारायण लोकतंत्र के प्रबल समर्थक थे। यह उन्ही के अथक प्रयासों का फल था कि कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा इकट्ठा करके उन्होंने एक बार तो ऐसी एक पार्टी खड़ी कर दी, जिसने देश के शासन पर एकाधिकार प्राप्त कांग्रेस को परास्त करके भारत के तथा विश्व के लोकतांत्रिक इतिहास में एक अभूतपूर्व कार्य कर दिखाया, भले ही उस पार्टी में एकाध बुद्धिमान और ईमानदार सदस्य के अतिरिक्‍त प्रायः ऐसे थे, जो अपनी-अपनी ढपली लिए हुए थे और एकाध तो ऐसे प्रसिद्ध घमंडी, महत्वाकांक्षी थे, जिन्होंने सदैव जहाँ रहे- प्रांतीय सरकार मे या पार्टी में-स्वयं को सर्वोच्च आसन पर बैठाने के लिए तोड़-फोड़ की। उन्होंने ही जयप्रकाश नारायण के लगाये इस पौधे को अतिशीघ्र उखाड़ फेंका। अमेरिका जैसे देश ने भी जयप्रकाश को 'लोकतंत्र के देवदूत' की संज्ञा दी। ये उनके निम्नलिखित लोकतांत्रिक विचार ही थे, जिन्होंने उनको विश्व प्रसिद्ध दिलायी-- 

1. आधुनिक लोकतंत्र की सफलता नैतिक साधनों से ही संभव हो सकती हैं। 

2. जब तक जनता में आध्यात्मिक गुणों का विकास नहीं होगा, तब तक इसमें संदेह ही रहेगा कि लोकतंत्र शासन सफल हो सकता हैं। 

3. लोकतंत्र के ये आधार है-- सत्य, प्रेम, सहयोग, अहिंसा, कर्तव्य परायणता, उत्तरदायित्व एवं सह-अस्तित्व की भावना। 

4. लोकतंत्र तभी सफल हो सकता हैं, जब स्थानीय संस्थाओं, जनता के विचारों, इच्छाओं और आवश्यकताओं के अनुकूल हो।

5. सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए नागरिकों के हितों में समानता होनी आवश्यक है। हितों की समानता के आधार पर ही राज्य विहीन तथा वर्ग विहीन समाज की स्थापना संभव हैं।

6. हम वास्‍तविक लोकतंत्र शासन पद्धित का अनुभव तभी कर सकते हैं, जब विश्व-बंधुत्व की भावना का विकास हो जाए।

7. दल विहीन लोकतंत्र की स्थापना होनी चाहिए, क्योंकि राजनीतिक दलों के कारण लोकतंत्र भ्रष्ट हो चुका हैं और उसका विकास अवरुद्ध हो गया हैं। 

8. वयस्क मताधिकार लोकतंत्र के लिए उपयुक्त नहीं हैं। भारतीय लोकतंत्र ग्राम समाज की राजनीतिक इकाइयों पर आधारित होना चाहिए। 

9. जयप्रकाश नारायण आधुनिक लोकतंत्र की नौकरशाही को ब्रिटिश कालीन राजतंत्र के अनुरूप समझते थे।

समाजवाद 

जयप्रकाश अपने बौद्धिक बचपन से जीवन के अंतिम क्षणों तक एक विशुद्ध भारतीय समाजवादी थे। इसलिए संयुक्त राज्य अमेरिका में मार्क्सवादियों के संपर्क में रहने पर भी उन्होंने मार्क्सवाद की हिंसा को कभी पसंद नहीं किया। उन्होंने सही अर्थों में समाजवाद को पहिचाना था कि यह शोषण का अंत करने वाला दर्शन हैं। कुछ लोग शोषण के अंत के लिये हिंसा का सहारा लेते हैं जो उनके अनुसार अनावश्यक था। वर्ग-संघर्ष की मार्क्सवादी धारणा से भी वे पूर्णतया सहमत नहीं थे। वे गाँधी की पूर्ण अहिंसा और ट्रस्टीशिप सिद्धांत को भी अव्यवहारिक मानते थे। वे लोकतंत्रिक समाजवाद के समाजवादी दलों द्वारा संसद के माध्यम से विभिन्न उत्पादन एवं वितरण के साधनों के राज्यीकरण या राष्ट्रीयकरण से भी सहमत नहीं थे, क्योंकि इसमें केन्द्रीकरण का दोष उत्पन्न हो गया और राज्य भी शोषक या निरंकुश होकर व्यक्ति का शोषण करने लगा। वे तो उत्पादन और वितरण का सामाजीकरण और विकेंद्रीकरण को पसंद करते थे इसलिए विनोबा के सर्वोदय ने उन्हें कुछ प्रभावित किया था। वे भारतीय संस्कृति और मूल्यों को समाजवाद विरोधी नहीं मानते थे जिसमें किसी भी वस्तु का उपयोग मिल-बांट कर करने की पुरानी परम्परा हैं। 

जयप्रकाश नारायण विकेंद्रीकरण, ग्राम जीवन के पुनर्गठन तथा जन समितियों की लोकतंत्र में अधिकाधिक भागीदारी के पक्षधर थे। उनका मत था, कि भूमि पर और उत्पत्ति के सभी साधनों पर किसान और मजदूर का आधिपत्य और स्वामित्व होना चाहिए, न कि राज्य का, न किसी दल का जैसे कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के नाम पर साम्यवादी देशों में हैं। वे सहकारी व सामूहिक कृषि के समर्थक थे इसलिए उन्होंने भूदान का समर्थन किया।

यह भी सत्य हैं, कि समाजवादी होने के नाते जयप्रकाश नारायण आर्थिक समस्याओं को प्राथमिकता देते थे, परन्तु उनका लक्ष्य समायुक्त आदर्श समाज था किन्तु वे जातिवाद के कट्टटर विरोधी थे। वे सामन्तवाद के भी विरोधी थे। इस प्रकार उन्होंने समाजवादी दर्शन और दलों को साम्राज्यवाद से मुक्ति के बाद सामाजिक क्रांति के युद्ध के लिये तैयार करने का आह्वान किया। यही उनकी समग्र क्रांति थी। इसके लिये वे सबसे अधिक युवा पीढ़ी पर विश्वास करते थे अब यह भारतीय राजनीति विज्ञान के विद्यार्थी का कर्तव्य हैं, कि वे देखें कि उनके द्वारा तैयार की गई युवा पीढ़ी उनके आदर्शों से कितनी विचलित हो चुकी है या नहीं?

राष्ट्रवाद की अवधारणा 

जयप्रकाश नारायण ने राष्ट्रीय एकता को काफी महत्व दिया है। वह राष्ट्रवाद को भारत में पूर्णतः पुष्पित व पल्लवित होता देखना चाहते थे जैसा कि वह आधुनिक समय में पश्चिमी यूरोप में प्रकट हुआ। उनके अनुसार भारत न तो कभी राष्ट्र रहा था न आज ही एक राष्ट्र है। किसी भी देश में राष्ट्रीयता के विकास के लिए राष्ट्रीय चेतना की आवश्यकता होती है जिसका भारत में नितांत अभाव रहा है। राष्ट्रवाद के विकास के लिए एक उच्च सभ्यता के स्तर तक पहुँचना आवश्यक प्रतीत होता है। प्रत्येक राष्ट्र के तीन निर्माणकारी तत्व होते हैं-- 

1. राष्ट्र की स्वयं की स्पष्ट भू-संपदा, 

2. एक समान राज्य का प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक एकता तथा 

3. अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा अन्य राष्ट्रों द्वारा मान्यता प्राप्त पृथक संप्रभु राष्ट्र की स्थिति। 

भारत आधुनिक अर्थों में कभी राष्ट्र नहीं रहा। यद्यपि अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में एकता थी, भारत नाम का एक प्रदेश था, उसकी स्पष्ट सीमाएँ थीं, किन्तु यह एकता आध्यात्मिक व सांस्कृतिक जनित थी, राष्ट्रवादी नहीं। राष्ट्रीय एकता के भाव का भान भारतीय लोगों को अंग्रेजी शासन स्थापित होने के पश्चात होने के पश्चात्  हुआ। चूँकि राष्ट्रीय एकता थोपी हुई थी, इसलिए इसके माध्यम से राष्ट्रवाद की स्थापना नहीं हो सकती थी। यह सच है कि उग्र ब्रिटिश राष्ट्रवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप भारतीय राष्ट्रवाद का जन्म हुआ, किन्तु दुर्भाग्य से यह इतना शक्तिशाली नहीं था कि भारत को मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक राष्ट्रीयता में बाँध सकता। 

फलतः भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय जिन्ना के 'द्विराष्ट्र सिद्धान्त' ने एक नवीन राष्ट्रीयता के विचार के रूप में इसे चुनौती थी। परिणामस्वरूप भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान के रूप में एक अलग राष्ट्र बना। अगर हमें सच्चे अर्थों में भारत राष्ट्र की स्थापना करनी है तो यह कार्य राष्ट्रीय चेतना के विकास के बगैर सम्भव नहीं है। यदि राष्ट्रीय चेतना को राष्ट्रवाद का आधार माना जाये तो भारत को अभी अनेक कठिन परीक्षाओं से गुजरना है। केवल प्रादेशिक एकता से राष्ट्र की स्थापना नहीं होती। इसके लिए भावात्मक एकता की आवश्यकता होती है इसउद्देश्यकी पूर्ति एक राष्ट्रीय राज्य की स्थापना से ही हो सकती है। जयप्रकाश नारायण ने द्विराष्ट्र सिद्धान्त व भारत विभाजन का घोर विरोध किया था। उनके अनुसार आज प्रत्येक राष्ट्र बहुराष्ट्रीय राज्य है। मिश्रित व 'समन्वित राष्ट्रवाद' की आधुनिक विश्व की समस्याओं का समाधान ढँढ सकता है। 

इस प्रकार जयप्रकाश नारायण ने राष्ट्रवाद के जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया वह है- 'समन्वित राष्ट्रवाद' का सिद्धान्त। उनका समन्वित राष्ट्रवाद का दृष्टिकोण मुख्यतः दो परिस्थितियों पर आधारित है-- एक तो उसका पूर्ण धर्मनिरपेक्ष आधार और दूसरा उसमें जनता की आवश्यकताओं तथा भावनाओं के अनुरूप राष्ट्र की राजनीति। इन दोनों आदर्शों के पश्चात् ही व्यक्ति राष्ट्रीय विकास का आभास प्राप्त कर सकता है। चूँकि सही अर्थों में राष्ट्र का निर्माण जनजागरण व राष्ट्रीय चेतना के विकास के बिना संभव नहीं है, इसलिए देश के दो महान विभूतियों रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गाँधी ने हमारे समक्ष जिस राष्ट्रवाद का चित्र प्रस्तुत किया है, वह इस संदर्भ में अधिक कारगर हो सकता है। क्योंकि उनकी राष्ट्रवाद की अवधारणा आत्मा की उस एकता पद आधारित है जिसके द्वारा समस्त मानव जाति व्यक्तियों के एक राष्ट्र के अन्तर्गत आ जाती है रवीन्द्रनाथ ठाकुर और गाँधी जी ने संकीर्ण राष्ट्रवाद जो कि मुख्यतः आक्रमक राष्ट्रवाद है, का विरोध कर जिस विश्व बंधुत्व की बात कही है, वहीं वास्तविक राष्ट्रवाद है। वस्तुतः जयप्रकाश नारायण ने समन्वित राष्ट्रवाद के जिस स्वरूप का प्रतिपादन किया है, उस पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर और गाँधी जी की राष्ट्रवाद की अवधारणा की गहरी छाप है। 

साधन और साध्य 

मोहन दस करम चन्द गाँधी की तरह हीं जयप्रकाश नारायण ने साधन एवं साध्य की पवित्रता पर बल दिया है। जयप्रकाश नारायण के अनुसार यदि साधन पवित्र होगा तो ही अच्छे लक्ष्य की प्राप्ति होगी। समाजवाद की स्थापना हेतु अच्छे साधन सर्वोपरि हैं। जयप्रकाश नारायण ने राजनीतिक दलों के अस्तित्व को भी संसदीय लोकतंत्र के एक महत्वपूर्ण दोष के रूप में देखा तथा उसे लोकतंत्र की मूल भावना के विरूद्ध माना। उनके अनुसार राजनीतिक दलों का उद्देश्य जनता की सेवा करना नहीं वरन् सत्ता के ऊपर अपना अधिकार जमाना तथा दलीय व वर्गीय हितों की पूर्ति करना होता है। राजनीतिक दलों के हस्तक्षेप से नैतिकता का ह्रास तथा बेईमानी, जोड़-तोड़ व भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है। वोट प्राप्त करना इनका इनका एकमात्र उद्देश्य होता है जिसके लिए वे अनैतिक साधनों का उपयोग करने से भी नहीं चूकते। महज अपना वोट बैंक बनाने के लिए वे जनता के आपसी मतभेदों को उभार कर जातिवाद, अलगाववाद, भाषावाद व प्रान्तीयवाद जैसे पृथकतावादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देते हैं। 

इस तरह राजनीतिक दलों ने राजनीति के स्वरूप को काफी विकृत बना दिया है और नागरिकों की राजनीतिक शिक्षा का एक साधन बनने के बजाय उनकी कुशिक्षा का अवसर बन गया है। राजनीतिक दलों की इन्हीं विसंगतियों व कुप्रभावों को देखते हुए जयप्रकाश नारायण ने विनाबा जी की भाँति राजनीतिक दल को समाज के विरूद्ध एक षडयंत्र माना और दलविहीन लोकतंत्र की स्थापना की आवश्यकता पर बल दिया। 

सर्वोदयी समाजवाद एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था होगी जिसमें जाति-पाँति, ऊँच-नीच आदि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा और न ही किसी प्रकार का शोषण होगा। केन्द्रीय सरकार के पास पंचायतों की तुलना मे सत्ता व संसाधन कम होंगे जिससे उसकी निरंकुशता में कमी आयेगी। ऐसी सामाजिक व्यवस्था में दलगत राजनीति के लिए कोई स्थान न होगा क्योंकि यह सत्ता व सत्ताधारी दोनों को समान रूप से भ्रष्ट करती, और न ही किसी प्रकार की संगठित व असंगठित हिंसा के लिए ही कोई स्थान होगा, क्योंकि हिंसा, हिंसा को बढ़ाती है और मानवता का हनन करती है। वस्तुतः सर्वोदय की मान्यता ही शक्ति के विरोध पर आधारित है। गांधी जी के आध्यात्मिक अराजकतावाद या रामराज्य की कल्पना में राज्य की आवश्यकता महसूस नहीं की गई। किन्तु जयप्रकाश नारायण ने राज्य के लोप हो जाने की बात को असंभव माना। उनकी मान्यता थी कि राज्य पूर्णतया विलुप्त नहीं हो सकता , अतः राज्य के कम से कम हस्तक्षेप के कामना करनी चाहिए। इस तरह गाँधी जी के समान जयप्रकाश नारायण ने भी इस बात को स्वीकार किया कि वही सरकार सबसे अच्छी है जो सबसे कम शासन करती है। 

सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा

सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप और सीमाक्षेत्र की परिभाषा देने के लिए जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने संकेत किया कि सोवियत संघ में 'समाजवाद' सत्तारूढ़ गुटों के बीच 'शक्ति के संघर्ष' में बदल गया है। इस विकृत और भ्रष्ट समाजवाद ने वहाँ राजनीतिक शक्ति के भारी जमाव के साथ साथ आर्थिक शक्ति को भी एक ही जगह केंद्रित कर दिया है। सम्पूर्ण क्रान्ति जयप्रकाश नारायण का विचार व नारा था जिसका आह्वान उन्होंने इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेकने के लिये किया था। लोकनायक ने कहा कि सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल है-- राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रान्ति होती है। पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का आहवान किया था। मैदान में उपस्थित लाखों लोगों ने जात-पात तिलक, दहेज और भेद-भाव छोड़ने का संकल्प लिया था। उसी मैदान में हजारों-हजार ने 

अपने जनेऊ तोड़ दिये थे। नारा गूंजा था: 

जात-पात तोड़ दो, तिलक-दहेज छोड़ दो। 

समाज के प्रवाह को नयी दिशा में मोड़ दो। 

सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जय प्रकाश नारायण जिनकी हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। बिहार से उठी सम्पूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी थी। जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे। लालू यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान और सुशील कुमार मोदी, आज के सारे नेता उसी छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का हिस्सा थे। पाँच जून 1974 के पहले छात्रों-युवकों की कुछ तात्कालिक मांगें थीं, जिन्हें कोई भी सरकार जिद न करती तो आसानी से मान सकती थी। लेकिन पाँच जून 1974 को जे. पी. ने घोषणा की " भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना, आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं; क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रान्ति, ' सम्पूर्ण क्रान्ति आवश्यक है।" 

समाजवाद के नाम पर 'सर्वाधिकारवाद' का यह घिनौना रूप हमें यह चेतावनी देता है कि 'लोकतंत्रीय समाजवाद' को सार्थक करने के लिए आर्थिक शक्ति का विकेंद्रीकरण और स्थानांतरण सर्वथा आवश्यक है। संपूर्ण क्रांति की संकल्पना यह व्यक्त करती है कि केवल शासन-व्यवस्था को बदल देने या एक सरकार की जगह दूसरी सरकार स्थापित कर देने से समाज का उद्धार नहीं होगा। इसके लिए संपूर्ण समाज-व्यवस्था को बदलना होगा; आर्थिक विषमता और सामाजिक भेदभाव को जड़ से मिटाना होगा, इस परिवर्तन को गति देने के लिए जयप्रकाश जी ने युवा शक्ति का आहवान किया जिसे जन-शक्ति को अपने साथ लेकर राज्य-शक्ति के विरुद्ध संघर्ष करना होगा। 

समाजवाद को मानवता के उद्धार का साधन बनाने के लिए जयप्रकाशजी ने विश्व समुदाय के संगठन का सुझाव दिया क्योंकि यही व्यवस्था विशेषतः एशिया और अफ्रीका के उत्पीडित वर्गों को संगठित सैन्यवाद और सर्वाधिकारवाद के विनाशकारी प्रभाव से मुक्त करके न्याय दिला सकती है, और परस्पर विरोधी शक्ति गुटों में बँटे हुए विश्व में शांति और सुरक्षा स्थापित कर सकती है।

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