5/06/2022

आचार्य नरेंद्र देव के राजनीतिक विचार

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प्रश्न; आचार्य नरेंद्र देव के राजनीतिक विचारों का वर्णन कीजिए। 

अथवा" आचार्य नरेंद्र देव के राजनीतिक विचारों की विवेचना कीजिए।

उत्तर--

आचार्य नरेंद्र देव के राजनीतिक विचार 

acharya narendra dev ke rajnitik vichar;आचार्य नरेन्द्रदेव ने तिलक और अरविन्द घोष के अतिवादी राष्ट्रवाद के अनुयायी के रूप में अपना राजनीतिक जीवन प्रारंभ किया था। वे बौद्धदर्शन के प्रकाण्ड पंडित थे परन्तु वे आस्था से बौद्ध नहीं थे। उन्हें बौद्धदर्शन की लोकोत्तरता पसंद थी। आचार्य नरेंद्र देव सोवियत संघ के साम्यवादी विचारक लेनिन से प्रभावित थे। पर साथ ही साथ वे रूसी नेता स्टालिन की हिंसात्मक नीति के घोर विरोधी थे। वे मार्क्सवाद के समर्थक थे। 1934 ई. में उन्होंने राम मनोहर लोहिया आदि से मिलकर समाजवादी नीति का समर्थन किया था और समाजवादी दल का संगठन भी किया था।

नरेंद्र देव नैतिक समाजवादी थे, उन्हें नैतिक मूल्यों की प्राथमिकता में विश्वास था। वे समाजवाद को एक राजनीतिक से भी अधिक सांस्कृतिक आंदोलन मानते थे, इसलिए उन्होंने समाजवाद के मानवतावादी पक्ष पर अधिक बल दिया। यद्यपि वे हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म का भी अध्ययन कर चुके थे, परन्तु उन्होंने गाँधी जी के अहिंसा सिद्धांत से कभी सहमति व्यक्त नहीं की। आचार्य नरेंद्र देव पर यद्यपि गांधी जी का भी थोड़ा प्रभाव था परन्तु मार्क्स का अधिक था। 

आचार्य नरेंद्र देव तत्कालीन भारत की दशा का गांधी जी के विचारों के आधार पर सुधरना संभव नहीं समझते थे। उनका मत था कि," भारत की आर्थिक विषमता सामाजिक व्यवस्था उच्च एवं नीच की भावना और पुरानी रूढ़ियाँ आदि में देश का स्तर सिर्फ समाजवाद के आधार पर ही सुधर सकता हैं।" आचार्य नरेंद्र देव के राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं-- 

1. शोषण के कट्टर विरोधी

आचार्य नरेंद्र देव समाज सुधारकों से प्रसन्न न थे। उनका कहना था कि वर्तमान समय से वे न तो सुधारकों तथा न  संविधानवादियों से कोई सहानुभूति रखते थे। भारत की आम जनता को संगठित करने के लिए तथा भारत को प्रजातंत्र के लिए तैयार करने के लिए राष्ट्रवादी आंदोलन को समाजवादी विचारधारा की ओर मोड़ना हैं। यह तभी हो सकेगा जब जनता को आर्थिक सिद्धान्त सिखाया जाए। वर्तमान व्यवस्था में मानव शक्तिहीन बन गया हैं, जिससे वह दूसरे का दास मात्र रह गया हैं। वह मशीन का पूर्जा मात्र एवं व्यक्तित्वहीन बन गया हैं। वह परिश्रम करता हैं पर उसका उसे फल नहीं मिलता हैं। उसका जीवन रूखा और महत्वहीन बन गया हैं। इस निराशावाद को दूर करने के लिए मार्क्स का सिद्धांत ही ठीक हैं।

2. आम हड़ताल सम्बन्धी विचार 

आचार्य नरेन्द्रदेव आम हड़ताल के सम्बन्ध में जार्ज सोरेल द्वारा प्रतिपादित श्रम संघवादी सिद्धान्त से प्रभावित थे। उन्हे विश्‍वास था कि आम हड़ताल भावनात्मक विचारधारात्मक तथा कार्यनीतिक तीनों ही दृष्टियों से लाभदायक है। उनके अनुसार आम हड़ताल के दो परिणाम होगें प्रथम उससे देश की अर्थव्यवस्था पूर्णतः जर्जर हो जायेगी जिससे विदेशी शोषकदेशभाग जायेगें। द्वितीय आम हड़ताल को सफलता पूर्वक संगठित करने से जनता में प्रचण्ड शक्ति का उदय होगा जो सामाजिक क्रान्ति की पृष्ठभूमि तैयार करेगा। उन्होने कहा," रूस के विपरीत भारत में अभी तक हड़ताल के श्रमजीवी अस्र को जनसमुदाय के लिए संकेत के रुप में प्रयुक्त नहीं किया गया है किन्तु श्रमिक वर्ग अपने राजनीतिक प्रभाव को तभी बढ़ा सकता है जबकि वह राष्ट्रीय संघर्ष में आम हड़ताल का प्रयोग करके निम्न मध्य वर्ग को हड़ताल की क्रान्तिकारी सम्भावनाओं से अवगत करा दे। आम हड़ताल सम्बन्धी आचार्य नरेन्द्रदेव की यह धारणा महात्मा गाँधी की राजनीतिक विचारधारा के नितान्त विपरीत है।

3. धर्म निरपेक्ष राष्ट्रवाद में आस्था 

यद्यपि अपने विद्यार्थी जीवन में आचार्य नरेन्द्रदेव पर लाल, बाल, पाल (लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक तथा विपिन चन्द्र पाल) एवं अरविन्द घोष के धार्मिक पुनरुत्थानवादी विचारधारा का प्रभाव पड़ा था लेकिन 1930 तक आते-आते उन पर यह प्रभाव समाप्त हो गया। आचार्य नरेन्द्र देव धर्म निरपेक्ष या लौकिक राष्ट्रवाद में विश्वास करते थे। उनके अनुसार समाज के आर्थिक और सामाजिक जीवन में परिवर्तन होते रहते हैं और इसके साथ-साथ सांस्कृतिक जीवन में भी परविर्ततन होता रहता है। प्राचीन काल में सम्पूर्ण जीवन पर धर्म-मजहब का प्रभाव होता था। इसलिए संस्कृति के निर्माण में भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी परन्तु आज मजहब का प्रभाव कम हो गया है। हमारे देश में दुर्भाग्य से लोग संस्कृति को धर्म से अलग नहीं करते हैं। इसका प्रमुख कारण हमारी अज्ञानता एवं संकीर्णता है। 

वस्तुतः धर्म और संस्कृति दो अलग-अलग स्थितियां है। वर्तमान समय में भारतीय संस्कृति के निर्माण में धर्म से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका राष्ट्रीयता ने प्राप्त कर ली है यदि ऐसा नहीं होता तो एक ही देश में रहने वाले विभिन्न धर्मों के अनुयायी उसे नहीं अपनाते। धर्म निरपेक्ष राष्ट्रवाद में अपनी आस्था व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा कि राष्ट्रीयता की मांग है कि भारत में रहने वाले सभी मजहब के लोगों के साथ समानता का व्यवहार होना चाहिए। अब चार करोड़ मुसलमान हमारे देश के अधिवासी है तो हमारे लिए उनके सम्पर्क से बचने की बात सोचना घोर ना समझी है ऐसी अवस्था में एकरुपता के अभाव तथा संकीर्ण बुद्धि से उनके साथ व्यवहार करने में सदा भय बना रहेगा और संघर्ष होता रहेगा। एक व्यापक तथा उदार बृद्धि से काम लेने तथा कानून और आर्थिक पद्धति की समानता से धीरे-धीरे विभिन्नता दूर होगी और इस देश के सभी लोग समान रूप से इस देश की उन्नति में लगेगें। धर्म के आधार पर लोगों में भेदभाव करने की प्रवृत्ति का त्याग अर्थात सभी धर्मों के लोगो के साथ समानता का व्यवहार राष्ट्रीय एकता की कड़ी को मजबूत करेगा। इससे समाज के लोगों के बीच की फूट रुकेगी जिससे विदेशी हुकुमत के खिलाफ जारी संघर्ष और अधिक प्रबल होगा।

4. मानवतावादी समाजवाद में आस्था 

आचार्य नरेंद्र देव समाजवाद को हिंसा का दर्शन नहीं मानते थे बल्कि उसे मानवतावाद का संरक्षक मानते थे। उनका कहना था कि," मार्क्स ने एक स्थान पर कहा है कि सर्वहारा मजदूर को दैनिक जरूरत की वस्तुओं की अपेक्षा शौर्य, आत्म-विश्वास एवं स्वतंत्रता की कहीं अधिक आवश्यकता है। समाजवाद रोटी का सवाल नहीं हैं वरन् एक सांस्कृतिक आंदोलन है जो संसार में एक महती विचारधारा को प्रभावित करता हैं। इस सांस्कृतिक आंदोलन का केन्द्र मानव हैं, मानव सर्वोपरि हैं। जो सिद्धान्तवाद या विचार चाहे वह धर्म हो या दर्शन या अर्थशास्त्र, मानव उत्कर्ष को घटाता हैं, वह मानव को मान्य नहीं हैं।" 

आचार्य मानवतावादी दृष्टिकोण रखते थे। उन्होंने सिद्ध करना चाहा है कि समाजवाद एक नैतिक तथा आध्यात्मिक विचारधारा हैं। उनका विरोध पूंजीवाद से नैतिक आधार पर था। वे मार्क्सवाद की विशिष्टता तथा उपयोगिता पर बल देते हुए लिखते हैं कि," मार्क्स ने जनता को खोई मानवता को फिर से पाने का उपाय ही नहीं बताया बल्कि इस कार्य के लिए तैयार किया कार्ल मार्क्स ने मानवता को पुनः प्रतिष्ठित करने के प्रयत्नों को नहीं छोड़ा। उसने कभी भी पूंजीपतियों की नाराजगी या धमकियों की परवाह नहीं की। उनका दर्शन एक जीता-जागता दर्शन हैं, जिससे मनुष्य को एक नवीन स्फूर्ति और प्रेरणा मिलती हैं, जो आज समाज में पददलित, तिरस्कृत, अशिक्षित और दरिद्र हैं, उनमें नये जीवन का संचार करना, उनके समविष्ट ह्रदय में एक नवीन ज्योति को जगाना मार्क्स के दर्शन का प्रभाव हैं।" 

आचार्य नरेन्द्रदेव के मत से मजदूर की लड़ाई समाजवाद में नैतिक उत्कर्ष की अपेक्षा करती हैं। मार्क्सवाद को उन्होंने मानव का परम हितैषीवाद माना हैं। उनका पूरा विश्वास था कि," मानवतावादी समाजवादी मनुष्य को विवशता के क्षेत्र से हटाकर उसे स्वाधीनता के राज्य में ले जाना चाहते थे।"

5. पूँजीवाद व सामन्तशाही का विरोध 

आचार्य नरेंद्र देव सामन्तवादी के साथ-साथ पूँजीवादी व्यवस्था को भी कालविपरीत तथा मानव के उत्कर्ष व समाज की प्रगति में बाधक समझते थे। उनके विचार में पूँजीवादी व्यवस्था ऐसी आन्तरिक विषमताओं से दूषित हैं कि जिनका निराकरण पूँजीवादी सुधारों द्वारा असंभव हैं। उनका कहना था," उत्पादन की पूँजीवादी प्रक्रिया मानव श्रम के गौरव को नष्ट कर देती हैं।" मानव श्रम बाजार भाव पर बाजार में बिकता हैं, पूँजीपतियों द्वारा उनका शोषण हो रहा हैं, पूँजीवादी व्यवस्था में वर्ग-संघर्ष बढ़ता जा रहा हैं, आर्थिक शक्ति और साधन मुट्ठी भर पूँजीपतियों के हाथ में केन्द्रित हो रहे हैं। 

6. लोकतंत्र सर्वश्रेष्ठ शासन व्यवस्था 

आचार्य नरेन्द्रदेव लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को सर्वोत्तम शासन व्यवस्था मानते थे। उनके विचार में मानव स्वतंत्रता की समुचित रक्षा और अभिवृद्धि प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था में ही संभव हैं। राजशाही और सामंतशाही में जनसाधारण को किसी एक विशिष्ट व्यक्ति या समुदाय का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ता हैं। आचार्य जी के विचार में लोकतंत्र की जड़े जनता में हैं। सजग और शक्ति-सम्पन्न जनता ही लोकतंत्र का मुख्‍य आधार हैं। 

7. गांधीवादी आंदोलन के विरोधी 

अपने जीवन के 35 वर्ष उन्होंने कांग्रेस में रहकर कांग्रेस के प्रत्येक कार्यक्रम में भाग लिया। उन्होंने सत्याग्रह के सिद्धांत को स्वीकार किया हैं पर गाँधी जी के अहिंसात्मक सत्याग्रह को वह स्वीकार नहीं करते। उन्हें यह विश्वास न था कि अंग्रेजों से राज्य सत्ता भारतीयों को अहिंसा द्वारा कैसे मिल सकेगी। चूँकि वे नैतिकता पर बहुत बल देते थे अतः गाँधी जी के रचनात्मक कार्यों में कम विश्वास करते थे। उनका यह पूर्ण विश्वास था कि भारत में स्वतंत्रता की प्राप्ति के जन-क्रांति जरूरी हैं। 

8. 'विश्व-बंधुत्व' की भावना का प्रबल समर्थन 

राष्ट्रवादी नरेन्द्रदेव विश्व-भावना से अनुप्राणित थे। वे मानव समाज की एकता में विश्वास करते थे तथा 'विश्वा-शांति' व 'विश्व-हित' की अभिवृद्धि एवं 'विश्व-बंधुत्व' की भावना को प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय का पुनीत कर्तव्य समझते थे। उनका कहना था कि," हमारी समस्याएँ शुद्ध राष्ट्रीय न रहकर अन्तरराष्ट्रीय होती जा रही हैं।" 

आचार्य नरेंद्र देव की धारणा थी," राष्टों के बीच जो गलफसहमी हैं उसे दूर करके समानता के सिद्धांत पर आधारित पारस्परिक कल्याण भावना द्वारा ही हम स्थायी शांति और सुरक्षा स्थापित करने की आशा कर सकते हैं।" 

9. समानता एवं सहकारिता

आचार्य नरेंद्र देव समाजवाद में किसानों को समान भागीदार बनाना चाहते थे और उन्हें सहकारिता लागू करने की प्रेरणा देते थे। वे इस विषय में कहते हैं," भूमि की उत्पादन शक्ति को बढ़ाया जाए तथा कृषि सहकारी आधार पर संगठित की जानी चाहिए। सभी प्रकार के ॠणों को समाप्‍त कर देना चाहिए तथा किसानों के लाभ के लिए कम ब्याज पर धन देने की व्यवस्था हो।" इस तरह आचार्य जी कृषि प्रधान देश की समस्याओं को रचनात्मक योजनाओं से दूर करने के पक्ष में थे।

10. भाषा और प्रान्तीयता की भावना का घोर विरोध 

आचार्य नरेंद्र देव जातिवाद और साम्प्रदायिकता के साथ-साथ भाषावाद और प्रान्तीयता को भी देश के लिए अभिशाप समझते थे तथा अन्तर्प्रान्तीय सौहार्द और बन्धुत्व पर आश्रित व्यापक राष्ट्रीय भावना पर जोर देते थे। वे भाषा को राष्ट्र का आधार मान कर भारत को विभिन्‍न भाषा भाषी राष्ट्रों का समूह मानने को तैयार नहीं थे। भाषा के नाम पर क्षेत्रीय भावनाओं को राष्ट्रीयता की मान्यता प्रदान करना वे देश की प्रगति के लिए घातक समझते थे। वे क्षेत्रीयता तथा प्रान्तीयता की भावना के प्रबल विरोधी थे। इसे वे देश की प्रगति में सबसे बड़ा अवरोध मानते थे।

11. इतिहास की आर्थिक व्याख्या का समर्थन 

आचार्य नरेंद्र देव ने मार्क्स के इतिहास की आर्थिक व्याख्या के सिद्धांत को मान्याता दी है उनके मतानुसार, जिस प्रकार राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचे का आधार समाज में प्रचलित आर्थिक ढाँचा होता हैं, उसी प्रकार आर्थिक ढांचे का आधार उत्पादन की शक्तियों का विकास होता हैं। इस प्रकार आचार्य नरेंद्र देव समाजवादी युग के लिए मार्क्सवादी दर्शन का समर्थन करते हैं।

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