प्रश्न; सर सैयद अहमद खाँ के प्रमुख राजनीतिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
अथवा" सर सैयद अहमद खान के राजनीतिक विचारों का वर्णन कीजिए।
अथवा" सर सैयद अममद खान के राजनीतिक विचारों का विवेचन कीजिए।
उत्तर--
सर सैयद अहमद खान के राजनीतिक विचार
मुस्लिम समाज के अग्रणी नेताओं में एक तथा मुस्लिम समाज सुधारक सर सैय्यद अहमद खाँ प्रारंभ में एक राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थक तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर रहे। किन्तु कालान्तर में वे साम्प्रदायिक होते गए। उनके सम्प्रदायवादी होने के पीछे मूल कारण उस समय की तात्कालिक सामाजिक व्यवस्था में मुसलमानों की दयनीय स्थिति तथा पिछड़ापन था। अलीगढ़ आंदोलन के अग्रणी नेता कहे जाने वाले सर सैय्यद अहमद खाँ के विचारों को निम्नानुसार समझा जा सकता हैं--
1. उदार राष्ट्रवादी
सर सैयद अहमद खाँ प्रारंभ में राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थक रहे। जस्टिस रानाडे, दादाभाई नौरोजी तथा गोपालकृष्ण गोखले की तरह सर सैयद अहमद का दृष्टिकोण भी एक उदार राष्ट्रवादी का रहा। विधानमंडल में जनता के प्रतिनिधित्व की आवश्यकता के विषय में उनके भी वैसे ही विचार थे, जैसे कि भारतीय उदारवाद के सूत्रधारों के थे। ब्रिटिश भारतीय संघ की स्थापना कराने में सर सैय्यद अहमद ने जो भूमिका अदा की उसे देखकर और अलीगढ़ स्कूल के लिए धन एकत्रित करने के लिए अपने दौरे के दरमियान उन्होंने जो भाषण दिया, उसको सुनकर बहुत-से लोग यह आशा करने लगे कि उनके व्यक्तित्व में उदीयमान भारतीय राष्ट्रवाद को एक बुद्धिमान, अनुभवी तथा प्रतिभाशाली नेता मिलेगा। हालाँकि बाद में उनके राष्ट्रवादी होने का भ्रम टूट गया।
2. हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन
प्रारंभ में अपने पैर जमने तक जैसा उचित था सर सैयद ने भी बहुत बुद्धिमानी पूर्वक उदारवादी दृष्टिकोण ही प्रदर्शित किया और हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात कही। 4 जनवरी 1884 को जालंधर में हिन्दू-मुस्लिम एकता के संबंध में सर सैयद ने ये विचार प्रकट किये," शताब्दियां बीत गई। ईश्वर ने चाहा था कि हिन्दू तथा मुसलमान इस देश की जलवायु में, इसके उत्पादन में समान भागीदार बनें और इसके लिए एक साथ मरें दो सगे भाई की तरह रहें। वह इस देश के चेहरे की दो सुंदर आंखे हैं। मैं चाहता हूँ कि धर्म तथा समुदाय की विभिन्नताओं को भूलकर सभी को एक साथ संगठित हो जाना चाहिए। हमारे धर्म अलग-अलग हो सकते हैं, किन्तु हमारा राष्ट्रीय दृष्टिकोण अलग नहीं हो सकता।" इससे स्पष्ट है कि सर सैयद राष्ट्रीय विचारधारा से अनुप्रेरित थे। उनकी यह अभिलाषा थी कि दोनों जातियों का एक दृढ़ संगठन बन जाए जिससे राष्ट्र स्वयं उन्नति के पथ पर आगे बढ़ता जाए।
3. मुस्लिम सुधारवादी
सर सैय्यद अहमद के कार्यों एवं विचारों का गहन अध्ययन करें तो एक बात स्पष्ट रूप से सामने आती हैं कि वे मूलतः मुस्लिम सुधारवादी थे। वे पर्दा-प्रथा, बहुविवाह एवं दासप्रथा के विरोधी थे। उन्होंने अंग्रेजों एवं मुसलमानों का जो गठबंधन चाहा, वह वास्तव में मुस्लिम समाज में सुधार लाने के उद्देश्य से ही था। वे बहुत-सी उन सामाजिक बुराइयों को दूर करना चाहते थे जो मुस्लिम समाज में आ गई थीं। साथ ही वे यह भी चाहते थे कि सुधार बड़ी सावधानी के साथ तथा शांतिपूर्ण ढंग से और इस्लाम के आधारभूत सिद्धांतों पर कोई आघात किये बिना किये जाना चाहिए। सामाजिक सुधारों का प्रचार करने के लिए उन्होंने तहजीबुल अखलाक नामक एक मासिक पत्रिका निकालना भी आरंभ किया। उनके द्वारा चलाया गया अलीगढ़ आंदोलन मूलतः मुस्लिम समाज में सुधार लाने का ही एक जरिया बना।
4. सांप्रदायिक विचारधारा
1887 के बाद सर सैयद इतने पूर्णतः बदल गये कि कोई विश्वास नही कर सकता कि वे पहले हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन करते रहे होंगे। कुछ विद्वानों का यह मत हैं कि उनके कॉलेज के प्रिंसिपल थियोडोर बैक ने सर सैयद के विचारों को प्रभावित किया। तब से वे कांग्रेस का विरोध करने लगे तथा कहने लगे कि हिन्दू मुसलमानों दो अलग-अलग जातियाँ हैं जो कभी एक नहीं हो सकती। हैक्टर बोलिमथ ने लिखा है कि," सर सैयद उन सब बातों के जनक थे जो कि अंततः मोहम्मद अली जिन्ना के मानस में उत्पन्न हुई।" परन्तु डाॅ. शान मोहम्मद हैक्टर बोलिमथ के इस मत को स्वीकार नहीं करते। उन्होंने अपनी पुस्तक में इस विचारधारा का खंडन इन शब्दों में किया हैं," यह सही हैं कि वह हिन्दू बहुसंख्यक समाज के प्रभुत्व से भयभीत थे तथा मुस्लिम समाज के पृथक राजनीतिक अस्तित्व की कल्पना करते थे, परन्तु पाकिस्तान का स्वप्न सैयद अहमद के विचारों में नहीं जिन्ना के विचारों में मुखरित हुआ।" स्पष्ट है कि शान मोहम्मद हैक्टर बोलिमथ की भाषा को समझ नहीं पाए। हैक्टर बोलिमथ ने पाकिस्तान का तो कहीं नाम भी नहीं लिया हैं और जो उन्होंने कहा हैं शान मोहम्मद उसे स्वीकार करते ही हैं।
5. लोकप्रिय सरकार के प्रति अनास्था
सर सैयद अहमद खां की राजनीति परिस्थितियों पर आधारित अवसरवादी नीति थी। वे मूलतः एक राजनीतिक चिंतक थे ही नहीं। वे केवल अंग्रेज के पढ़ाए हुए तोते के समान थे। उनके हर मत में अंग्रेजों के कथन की प्रतिध्वनि ही सुनाई पड़ती थी। सर सैयद ने आई.सी.एस. परीक्षा का भारत में करने का तथा धारा सभाओं की सदस्यता को बढ़ाने की मांग का विरोध किया। वे संवैधानिक साधनों में अपना विश्वास भी बताते थे और भारत के लिए प्रतिनिधि शासन को अनुपयुक्त भी बताते थे। सर सैयद अहमद इस बात को भली-भाँति जानते होंगे कि वे मतभेद को सदैव जागागें रखेंगे फिर भी कहते थे कि जब तक भारत में विभिन्न जातियों का मतभेद रहता हैं, तब तक प्रतिनिधि शासन का अर्थ होगा। बहुमत का अल्प मतों पर अत्याचार इससे जातीय तथा सांप्रदायिक विभेद और तीव्र हो जायेगा। इससे लोकप्रिय सरकार के प्रति सर सैयद की अनास्था स्पष्ट हैं।
निष्कर्ष
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर निष्कर्षस्वरूप कहा जा सकता है कि सर सैय्यद अहमद खाँ, जो प्रारंभ में एक राष्ट्रवादी तथा हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे, बाद में साम्प्रदायिक होते गए तथा उन्होंने खुलकर मुस्लिम हित की वकालत की। हालाॅकि इसके पीछे मूल कारण मुस्लिम समाज का पिछड़ा होना तथा उनका सामाजिक प्रगति व उन्नति से दूर होना था, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि चाहे मुस्लिम समाज में सुधार लाने के उद्देश्य से ही सही, उन्होंने जिस साम्प्रदायिक भावना का समर्थन किये तथा मुस्लिमों को हिन्दुओं से पृथक करने का प्रयास किया वही आगे जाकर फल-फूलकर द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के रूप में भारत विभाजन का कारण बनी।
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