4/27/2022

राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार

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प्रश्न; राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचारों की विवेचन कीजिए। 
अथवा" राजा राममोहन राय आधुनिक भारत के प्रथम दार्शनिक हैं। समझाइए! 
अथवा" आधुनिक भारतीय राजनीतिक विचारों को राजा राममोहन के योगदान को स्पष्ट कीजिए। 
अथवा" राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर--

राजा राममोहन राय के राजनीतिक विचार 

raja ram mohan roy ke rajnitik vichar;राजा राममोहन राय को एक राजनीतिज्ञ तो नही कहा जा सकता लेकिन उन्हें देश-विदेश की राजनीति में काफी दिलचस्पी अवश्य थी और उसका उन्हें अच्छा ज्ञान भी था। योरोपीय राजनीति का उन्हें अच्छा ज्ञान था तभी तो भारतीय राजनीतिक जागरण में उनका योगदान बहुमूल्य रहा। उन्होंने भारत में राजनीतिक चेतना जागृत की। सुरेंद्रनाथ बनर्जी तो उन्हें 'भारत में संवैधानिक आंदोलन का जनक' मानते हैं।
राजा राममोहन राय ने भारतीय राजनीति के विभिन्न पक्षों पर ध्यान दिया और जो कमियाँ एवं समस्याएं थी उन्हीं बड़ी बुद्धिमत्ता से एवं समझदारी से दूर किया। उनका राजनीतिक चिंतन महान था। 

राजा राममोहन राय के स्वतंत्रता संबंधी विचार 

व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रबल समर्थन जाॅन लाॅक, टाँमस पेन, जाॅन स्टुअर्ट मिल तथा माॅन्टेक्यू और ग्रोशियस आदि विचारकों द्वार किया गया हैं। पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन के विद्यार्थी भली-भाँति इससे परिचित हैं। आधुनिक भारत मे स्वतंत्रता की व्याख्या, उसका व्यक्ति एवं समाज के लिए महत्व एवं उसके प्रकारों की व्याख्या करने का कार्य राजा राममोहन राय द्वारा किया गया हैं। यही कारण हैं कि उन्हें व्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक के नाते आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन में वैसा ही स्थान प्राप्त हैं जैसा कि पाश्चात्य चिंतन में लाॅक, रूसों, मिल, माॅन्टेस्क्यू आदि को। इससे स्पष्ट होता है कि राममोहन के व्यक्तित्व में धार्मिक, सामाजिक सुधारक एवं राजनीतिक चिंतन का समन्वय हैं।
व्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत में राजा राममोहन जी की अटूट श्रद्धा थी। उनके अनुसार स्वतंत्रता के माध्यम से व्यक्ति अपना नैतिक विकास करता हैं। भारत में प्रचलित कुप्रथाओं को दूर करने के उनके प्रयासों को प्रेरणा देने वाला सिद्धांत व्यक्ति की स्वतंत्रता का ही था। धार्मिक स्वतंत्रता, पूजा, उपासना तथा अन्तरात्मा की स्वतंत्रता, प्रेस तथा भाषण की स्वतंत्रता इत्यादि की माँग करना उनके विचारों का अंग हैं। जहाँ एक ओर राजा राममोहन ने व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतिपादन किया, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वतंत्रता के पोषण का भी उन्होंने समर्थन किया।
इसी तरह व्यक्ति के अधिकारों का समर्थन राजा राममोहन के चिंतन में मिलता हैं। उनकी प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत में गहरी आस्था हैं। व्यक्ति के जीवन एवं स्वतंत्रता के अधिकार, सम्पत्ति के अधिकार तथा शिक्षा एवं धार्मिक अधिकारों का उन्होंने पूरा समर्थन किया था। इनकक भी लाॅक के समान मान्यता है कि जीवन, स्वतंत्रता तथा सम्पत्ति का अधिकार नैसर्गिक हैं जिसे प्रकृति ने मनुष्य को उसके जीवन के साथ प्रदान किया हैं; राज्य इन अधिकारों का दाता नहीं हैं, राज्य का कर्तव्य केवल इन अधिकारों की रक्षा करना हैं।

राजा राममोहन राय के आर्थिक विचार 

यद्यपि राजा राममोहन अर्थशास्त्री नहीं थे, लेकिन देश की उन्नति में विश्वास रखने के कारण उन्होंने तत्कालीन भारतीय अर्थ एवं राजस्व व्यवस्था के सुधार संबंधी सटीक विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने तत्कालीन जमींदारी (जागीरदारी) व्यवस्था की शोषणकारी प्रवृत्ति का विरोध किया तथा जमींदारों द्वारा रेयत पर जो शोषणकारी कर लगाए जाते थे, उन्हें कम करने का सरकार को सुझाव दिया। इस राजस्व क्षति की आपूर्ति करने के लिए उनकी सलाह थी की यूरोपीय अधिकारियों के स्थान पर भारतीय प्रशासकों को नियुक्त किया जाये तथा विलासिता की वस्तुओं पर कर भार बड़ा दिया जाये। इससे रैयत को जमींदारी के बोझ से मुक्ति मिलेगी तथा सरकार के राजस्व की भी क्षतिपूर्ति हो जायगी। 
राममोहन ने दादाभाई नौरोजी (1925-1917) से पहले इस विचार का प्रतिपादन किया था कि अंग्रेज शासक भारत के धन की निकासी कर इंग्लैंड ले जा रहे हैं। उस धन की निकासी (Economic drain) को रोका जाये। इसी तरह भारत में स्थित फौज की संख्या कम कर दी जाये जिससे राष्ट्रीय खर्च में कटौती होगी। राममोहन राय ने तत्कालीन भारत में नमक पर लागू किए गए एकाधिकार (Monopoly) को भी एक बुराई सिद्ध किया। उनका मत था कि नमक बनाने के एकाधिकार को समाप्‍त कर दिया जाये और अन्य उत्पादकों को भी नमक बनाने का अधिकार दिया जाए जिससे देश में इस क्षेत्र में प्रतियोगिता बढ़ेगी, नमक के भाव कम होंगे जिसका लाभ गरीब जनता को मिलेगा।

योरोपियनों के संबंध में सलाह 

1832 में ब्रिटिश लोकसभा की प्रवर समिति ने राममोहन राय से सलाह माँगी। राय ने सलाह दी कि अगर कुछ योरोपीय भारत में स्थायी रूप से रहकर कृषि संबंधी व्यापार करें तो भारत को इससे लाभ होगा क्योंकि योरोपीय लोग पूँजी लगाकर यह व्यापार वैज्ञानिक प्रणाली से करेंगे तो सभी तरफ उन्नति होगी। इससे मूल्यों में कमी आएगी और लोग आसानी से रोजमर्रा की जरूरी वस्तुएं पा सकेंगे। उन्होंने प्रवर समिति से स्पष्ट रूप से कहा कि धनी योरोपीयों को ही भारत में रहने की अनुमति दी जाए। उन्होंने मांग की वे सामान्य भारतीय जैसे ही रहेंगे, न कि विशेष सुविधाओं से संपन्न।

राममोहन राय के न्यायिक प्रशासन में सुधार संबंधित विचार 

राजा राममोहन राय यह मानते थे कि न्याय की उपलब्धि में ही न्याय का औचित्य है। न्याय की उपलब्धि के लिए न्यायिक संस्थाओं न्यायिक संगठन और न्यायिक प्रक्रिया का जन-कल्याणकारी होना आवश्यक है। राजा राममोहन राय प्रथम भारतीय थे जिन्होंने शासन और न्याय विभागों को पृथक् करने की आवाज उठाई और ब्रिटिश संसद की विशिष्ट समिति के सम्मुख महत्त्वपूर्ण मसविदे प्रस्तुत किए An Exposition of the Revenue and Judicial System of India अपनी पुस्तक में उन्होंने निर्भीकता से न्यायिक प्रशासन का मूल्यांकन किया और भारत में न्यायिक व्यवस्था के स्वरूप के बारे में अपने विचार रखे। उन्होंने भारत में न्यायिक व्यवस्था नागरिक अधिकारों, कानूनों आदि के सम्बन्ध में विभिन्न सुधारों का सुझाव दिया बी. बी. मजूमदार के शब्दों में, " जीवन और स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने के लिए उन्होंने कानूनों को संहिताबद्ध करने शक्ति पृथक्करण, न्यायाधीशों को ईमानदारी कुशलता, स्वाधीनता, ज्यूरी प्रणाली तथा बन्दी प्रत्यक्षीकरण अधिनियम को अपनाने और अधिकारियों के कानूनी उत्तरदायित्व की माँग की। उनका विचार था कि दीवानी और फौजदारी कानूनों को इस तरह संहिताबद्ध कर दिया जाए कि मुसलमानों व ईसाइयों को किसी भी प्रामाणिक पुस्तक का हवाला देकर व्याख्या करने की आवश्यकता न रहे शक्ति पृथक्करण उनके लिए अच्छे शासन का एक मूल सिद्धान्त था।... कलेक्टर के पद के साथ प्रबन्धकारिणी और न्यायिक शक्ति के सम्मिश्रण का उन्होंने जोरदार विरोध किया।" 

न्यायिक प्रशासन की कुशलता में सुधार के लिए राजा राममोहन राय ने इस बात पर बल दिया कि कानून की नजरों में सभी लोग समान होने चाहिए। पुरातन भारतीय व्यवस्था में

प्रचलित न्याय पंचायत का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि उसी प्रकार जन-सम्बद्ध संस्था द्वारा ही न्यायिक प्रणाली चलनी चाहिए। अवकाश प्राप्त और अनुभवी भारतीय विधि-विशेषज्ञों को जूरी का सदस्य बनाना चाहिए। भारतीय सन्दर्भ को प्राथमिकता देते हुए जूरी-संहिता का निर्माण होना चाहिए तभी भारत में स्वतन्त्रता और समानता की उपलब्धि की दिशा में बढ़ा जा सकेगा। विधि संहिता जटिल न होकर स्पष्ट, सरल और जनकल्याण की संरक्षिका होनी चाहिए। उन्होंने कम्पनी सरकार के सन् 1827 के उस अधिनियम का विरोध किया जिसमें भारत में जूरी द्वारा विचार की प्रथा प्रचलित की गई किन्तु यह निश्चित किया गया कि ईसाइयों के मुकदमों का विचार केवल ईसाई ही करेंगे, किन्तु हिन्दूओं और मुसलमानों के मुकदमें विचार के लिए ईसाईयों को भी उसमें भाग लेने का अधिकार होगा। राममोहन ने एक आवेदन के रूप में इस जूरी व्यवस्था का विरोध किया जिस पर देश के प्रसिद्ध हिन्दू और मुसलमानों के हस्ताक्षर थे पर्याप्त वाद-विवाद के बाद सन् 1833 में चार्ल्स ग्रान्ट का जूरी बिल पास किया गया जिसके द्वारा सन् 1827 के जूरी कानून में जो आपत्तिजनक अंश था वह रद्द कर दिया गया। चार्टर एक्ट, सन् 1833 के निर्माण के समय राजा राममोहन को ब्रिटिश संसद की प्रवर समिति के समक्ष अपने विचार प्रस्तुत करने का अवसर मिला। उन्होंने भारत में प्रचलित न्यायिक और माल व्यवस्था कि विवेचना की तथा प्रशासन को न्यायिक व्यवस्था से अलग करने की मांग करते हुए समिति के सामने अनेक सुझाव पेश किए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि वे ही व्यक्ति न्यायिक अधिकारी बने जो निष्पक्ष, स्पष्ट और विवेक सम्पन्न तथा निरपेक्ष होकर शासन की हर इकाई के प्रति ईमानदार रह सकें। राजा राममोहन राय का सुझाव था कि" यदि  ब्रिटिश सरकार चाह कि भारतवासी सरकार के प्रति आस्थावान रहे तो शिक्षा के अनुसार दायित्वपूर्ण पद पर नियुक्त करना पड़ेगा। देशवासियों को उनकी योग्‍यता के अनुसार राष्ट्रीय सम्मान देना पड़ेगा। इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए मोहन राय को इंग्लैण्ड में अथक परिश्रम करना पड़ा। वे प्रतिदिन पार्लियामेण्ट में अमन्त्रित होकर उपस्थित रहते थे और अधिकार वर्ग के विभिन्न प्रश्नों के उत्तर देते थे।"

मूल्‍यांकन 

इस तरह राजा राममोहन राय एक महान मानवतावादी, विश्व-बंधुत्व के उपासक तथा सार्वभौम धर्म के चिंतक थे। 
वे विश्वव्यापी धर्म का सपना देखा करते थे। वे मानते थे कि समस्त मानव समाज ही एक विशाल परिवार हैं। वे एकता का संचार करना चाहते थे। राममोहन राय की इच्छा थी कि मनुष्य को सहिष्णुता, सहानुभूति तथा बुद्धि पर आधारित समाज का निर्माण करने के लिए उसे स्वतंत्र छोड़ दिया जाए।
उन्होंने दो राष्ट्रों के बीच विवादों को निपटाने के लिए पंच फैसले होने का समर्थन किया था जिसे वे एक विश्व संगठन के रूप में देखना चाहते थे। उन्हीं के अनुसार इस तरह की कांग्रेस (विश्व-संगठन) में सभी प्रकार के मतभेद-चाहे वे, राजनीतिक हों या व्यापारिक-मित्रतापूर्वक एवं न्यायपूर्वक तय किये जा सकते हैं।
इस तरह हम देखते हैं कि राममोहन राय की दृष्टि दूरगामी थी। इस युग में भी विश्व शांति के लिए विश्व संगठन की आवश्‍यकता हैं, जो इस विश्व को संघर्षों तथा विनाशों के रास्तें से हटा सकता हैं। आज तो शांति सै जीवनयापन करने का यही विकल्प दुनिया के सम्मुख रह गया हैं।
राममोहन राय शांति के पुजारी थे। वे मनुष्य तथा मनुष्य के बीच अंतर को खत्म करना चाहते थे। वे एक महान अंतर्राष्ट्रीयतावादी राजनीतिक विचारक थे।
यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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