5/13/2022

स्वामी दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार

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प्रश्न; स्वामी दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचारों का विवेचन कीजिए। 

अथवा" स्वामी दयानन्द सरस्वती के शिक्षा संबंधी विचारों की व्याख्या कीजिए।

अथवा" स्वामी दयानन्द सरस्वती के सामाजिक विचारों को समझाइए।

उत्तर--

स्वामी दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार

swami dayanand saraswati ke samajik vichar;स्वामी दयानन्द सरस्वती को एक समाज सुधारक के रूप में जितनी ख्याति मिली उतनी किसी अन्य क्षेत्र में नहीं मिलीं। स्वामी जी मानव मात्र एवं सम्पूर्ण समाज की सेवा में विश्वास करते थे। उनका कहना था कि जब तक भारतीय समाज में कुरीतियाँ एवं अंधविश्वास हावी रहेगें तब तक भारत में राजनीतिक जागृति एवं राष्ट्रीय एकीकरण संभव नहीं है। इनके अभाव में समाज का वास्तविक स्वरूप ही समाप्त हो गया है। स्वामी जी ने सामाजिक समस्याओं पर गम्भीरता पूर्वक विचार प्रस्तुत करते हुए समाज सुधार की योजना प्रस्तुत की। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के सामाजिक विचार निम्नलिखित है--

पौरोहित्यवाद का विरोध 

स्वामी दयानन्द सरस्वती भी मर्टिन लूथर की तरह एक धर्म-सुधारक थे। उन्होंने भी लूथर की तरह धर्म-गुरूओं के वितण्डावाद का खण्डन किया था। दयानंद सरस्वती भी पंडितों के पाखंडवाद का खण्डन करने वाले "प्रोटेस्टैंट" (Protestant) थे। उनकी धारणा थी कि हिन्दू धर्म के पुरोहित अज्ञानी तथा मिथ्या धार्मिक कर्मकाण्डों का पालन करते हुए समाज को अज्ञान के अंधकार में रखते हैं। लूथर की तरह उनकी भी मान्यता थी कि ईश्वर और उसके भक्त के बीच किसी बिचौलिये की आवश्यकता नहीं हैं। वेद भी पुरोहित (Priest) वर्ग के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। पौरोहित्यवाद का विरोध करने में स्वामी दयानंद सरस्वती का उद्देश्‍य समाज में पंडितों द्वारा प्रचारित अज्ञान एवं झूठे अनुष्ठानों (Rites) के प्रभावों को दूर करना था। 

अस्पृश्यता संबंधी विचार 

स्वामी दयानंद सरस्वती ने अस्पृश्यता को एक अमानवीय बुराई मानते हुए निंदा की। उनकी मान्यता थी कि वैदिक धर्म द्वारा अस्पृश्यता को कभी भी समर्थित नहीं किया गया हैं, न ही यह ईश्वर द्वारा आशीर्वादित हैं। उनके अनुसार अस्पृश्यता के उद्गम का मूल कारण दूषित पर्यावरण प्रशिक्षण, संसर्ग और व्यक्ति के चरित्र के पतन के कारण हैं। इसका जन्म तथा धर्म से कोई नाता नहीं हैं। उनका कथन है कि किसी काल विशेष में जिन लोगों ने सामाजिक प्रथाओं एवं नैतिकता को भंग किया था, उन्हें समाज द्वारा बहिष्कृत किया गया था। बुरे पर्यावरण में रहते-रहते उन्हें अस्पृश्य माना जाने लगा। अतः दयानंद सरस्वती मानते हैं कि अस्पृश्यता मूलतः स्वच्छता एवं व्यक्ति के चरित्र-उत्थान का प्रश्न हैं। उनकी मान्यता हैं कि जो व्यक्ति शरीर एवं मन से शुद्ध हैं, उसे "द्विज" बनने का अधिकार हैं। एतिहासिक दृष्टि से अवलोकन करने से स्पष्ट होगा कि दयानंद सरस्वती के इन विचारों का अनेक समाज सुधारकों एवं महात्मा गाँधी के विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ा हैं। उन्होंने भी "अछूतों" के उद्धार को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था। दयानंद के विचारों की सराहना करते हुए महात्मा गाँधी ने लिखा हैं',-- 

"दयानंद ने हमारे लिये जो अनेक समृद्ध विरासतें छोड़ी हैं, उनमें से 

अस्पृश्यता के विरूद्ध उनकी असंदिग्ध उद्घोषणा (unequivocal-nouncement) निःसन्देह एक हैं।"

जाति-प्रथा संबंधी विचार

स्वामी दयानन्द सरस्वती की धारणा हैं कि जाति-प्रथा प्राचीन काल में उपयोगी व्यवस्था रही होगी किन्तु आधुनिक काल में उसमें अनेक प्रकार की हानिकारक बुराइयाँ प्रवेश कर गई हैं जिनके सुधार की आवश्यकता हैं। वैदिक काल में इस व्यवस्था का आधार श्रम विभाजन था। उसका आधार व्यक्ति का जन्म नहीं था, जैसा कि आज हो गया हैं। दुर्भाग्य से आज जाति का आधार व्यक्ति का जन्म हो गया हैं जिसके कारण, समाज बनावटी आधार पर जन्मना ऊँच-नीच के भेदों पर बँट गया हैं तथा यह व्यवस्था उच्च जाति के विशेषाधिकारी लोगों का हित साधन बन गयी हैं। 

अतः जाति-व्यवस्था को सुधारने की दृष्टि से उनका विचार था कि व्यक्ति की जाति का आधार 'गुण' कर्म और 'स्वभाव' को बनाया जाये, न कि जन्म को। सत्यार्थप्रकाश में जाति के संबंध में वे लिखते हैं," वो जो जन्म से ब्राह्मण हैं तथा अच्छे कार्य करते हैं, (वास्तव में) ब्राह्मण हैं तथा जो जन्म से भी निम्न हों किन्तु जिनके गुण, कार्य एवं स्वभाव उच्च वर्णों के हैं, वे भी उच्च वर्ण के हैं। 

इसी तरह जो उच्च-वर्ण में जन्म लेकर जिनके गुण, कार्य, स्वभाव निम्न कोटि के हैं, उन्हें निम्न वर्ण का ही माना जाना चाहिए। इसका तात्पर्य यह हैं कि किसी स्त्री अथवा पुरूष का वही वर्ण होना चाहिए जिसके लिये वह (गुण, कर्म अथवा स्वभाव के आधार पर) योग्य हैं। इसी तरह उनका कथन हैं कि," उच्च वर्ण के लोगों को यह सदा याद रखना चाहिए कि यदि उनकी सन्तान अज्ञानी रहती हैं, उन्हें शूद्र के स्तर तक नीचे जाना होगा.....। इसके अतिरिक्त निम्न स्तर वर्ण के लोगों की (जाति की श्रंखला में) ऊपर उठने का प्रोत्साहन रहेगा।" ऐसे विचारों के आधार पर उदाहरण प्रस्तुत करते हुए स्वामी दयानन्द लिखते हैं कि," एक 'चाण्डाल' को भी ब्राह्मण बनने का अधिकार हैं यदि उनके 'गुण' एवं कर्म ब्राह्मणोचित हों। 

दयानन्द जी जाति-वर्ण संबंधी विचारों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वे प्रचलित जन्म-आधारित जाति व्यवस्था को उचित नही मानते थे। व्यक्ति की जाति का निर्धारण उसके चरित्र तथा उसके कर्मों के आधार पर किया जाना चाहिए। इसका आशय यह हैं कि वे जाति के जन्म-आधारित भेद भावों की कठोरता से आलोचना करते थे तथा दूसरी और उनके द्वारा अन्तर्जातीय गतिशीलता का प्रतिपादन किया गया था। वास्तव में दयानंद सरस्वती जाति व्यवस्था को सामाजिक संगठन की व्यवस्था मानते थे जिसका आधार जाति नहीं अपितु व्यक्ति का गुण-चरित्र था, उच्च गुण-कर्मों वाला उच्च जाति का तथा निम्न गुण-कर्मों वाला निम्न जाति का। इस प्रकार उन्होंने जाति को धर्म और जन्म के आधारों से पृथक कर दिया जिसके परिणामस्वरूप समाज के और अस्पृश्यता की शिकार जातियों के उन्नत होने का मार्ग खुला। कालान्तर में महात्मा गाँधी ने भी जाति संबंधी प्रश्न पर इसी वैचारिक मार्ग को अपनाया।

नारी गरिमा का समर्थन 

दयानन्द के नारी की गरिमा का प्रबल समर्थन किया। उस समय हिन्दू समाज में नारी को हीन भाव एवं कमजोर रूप में देखा जाता था, जिसका उन्होंने विरोध किया। उनका मानना था कि वैदिक काल में नारी की स्थिति अच्छी थी। नारी को पुरूषों के समान अधिकार प्राप्त थे। नारी पुरुष के समान शिक्षा प्राप्त करती 11 यज्ञों में भाग लेती तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में उसकी भागीदारी थी। लेकिन मध्यकाल में नारी की स्थिति चिन्ताजनक हो गई। तब पुरूष प्रधान समाज अपनी प्रतिष्ठा के नाम पर नारी के साथ अनुचित प्रतिबन्ध एवं मनमानी मान्यताएँ थोंपने लगा। स्वामीजी ने अपने ग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' में लिखा है कि, " जो तुम स्त्रियों के वेद पढ़ने का निषेध करते हो, तो वह तुम्हारी मुर्खता, स्वार्थता औ निर्बुद्धिता का प्रभाव है।" 

इस प्रकार उन्होंने स्त्री-पुरूषों की समानता पर बल दिया। उनका यह कदम 19 वीं सदी के लिए एक क्रांतिकारी कदम था। नारी शिक्षा पर विशेष बल देते हुए फिरोजपुर में कन्या महाविद्यालय तथा मेरठ में कन्या विद्यालय की स्थापना की गई।

महिला-उद्धार संबंधी विचार 

दयानंद भी राजा राममोहन की तरह बाल-विवाह प्रथा के विरोधी थे। उन्होंने भी विधवा महिलाओं के पुनर्विवाह का समर्थन किया। उनका कथन है कि इन सामाजिक कुप्रथाओं को वेदों द्वारा कहीं भी समर्थन नहीं किया गया हैं। ये कुप्रथाएँ वैदिक धर्म के अनुकूल नही हैं। बाल-विवाह को रोकने की दृष्टि से उनका सुझाव था कि स्त्रियों की विवाह योग्य आयु 16 से 24 वर्ष तथा पुरूषों के लिए 24 से 48 वर्ष हो। उनके अनुसार विवाह की तीन श्रैणियाँ हैं, निम्न स्तरीय, मध्यम एवं श्रेष्ठ। निम्न स्तरीय विवाह वे हैं जहाँ स्त्रियों की आयु सोलह तथा पुरूषों की आयु चौबीस की हो; अठारह वर्ष से बीस वर्ष की स्त्री का विवाह जब पच्चीस से चालीस वर्ष की आयु के पुरूष के साथ हो, यह मध्यम स्तर का विवाह हैं, श्रेष्ठ विवाह वह है जब स्त्री की आयु चौबीस तथा पुरुष की आयु अड़तालीस हो। 

दयानन्द ने बाल-विधवाओं की स्थिति को सुधारने की ओर ध्यान दिया और राजा राममोहन की भाँति उनके पारिवारिक जीवन के पुनर्वास का समर्थन किया। 

स्वामी दयानंद सरस्वती के ऐसे सामाजिक सुधारों के विचारों को व्यावहारिक रूप देने में आर्य समाज ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अजमेर के आर्य समाजी हर बिलास शारदा के प्रयासों के फलस्वरूप शारदा एक्ट पारित किया गया था जिससे बाल-विवाह को कानूनी दृष्टि से निषिद्ध कर दिया गया था। हर बिलास शारदा आर्य समाजी थे उनके विचारों को स्वामी दयानन्द के विचारों से ही प्रेरणा प्राप्त थी। 

शिक्षा संबंधी विचार 

सत्यार्थप्रकाश के अध्याय तीन में स्वामी दयानंद ने शिक्षा के संबंध में अपने विचारों को प्रस्तुत किया हैं। उनका यह अटल विश्वास था कि शिक्षा व्यक्ति के चरित्र निर्माण का सशक्त साधन हैं। शिक्षा का मूल प्रयोजन भी व्यक्ति का चरित्र निर्माण हैं; आधे भूखे बाबू लोगों अथवा शिक्षकों का निर्माण करना शिक्षा का लक्ष्य नहीं हैं। 

दयानंद सरस्वती नैतिक शिक्षा के पक्षधर हैं। यह राज्य का दायित्व है कि उसके द्वारा लड़कों एवं लड़कियों को अनिवार्य शिक्षा दी जाये। यदि इनके माता-पिताओं द्वारा अपनी सन्तानों की शिक्षा का विरोध किया जाये, उन्हें दण्डित करना राज्य का कार्य हैं। सत्यार्थप्रकाश में दयानंद लिखते हैं," यह राजा का कर्तव्य हैं कि वह सुनिश्चित करे कि बालक एवं बालिकाएँ ब्रह्राचर्य जीवन का पालन करें एवं शिक्षा ग्रहण करें। अनिच्छुक माता-पिताओं को दण्डित किया जाये। राज्य के नियमानुसार, बालक और बालिका को आठ वर्ष की आयु के बाद घर पर न रहने दिया जाये।" 

यह स्वामी दयानन्द के विचारों का ही प्रभाव था कि आर्य समाज ने शिक्षा प्रदान करने का बीड़ा अपने हाथों में उठाया और दयानंद के विचारों-आदर्शों के अनुकूल दयानंद एँग्लो-वर्नाक्युलर (D.A.V.) महाविद्यालयों एवं गुरूकुलों की स्थापना की जिनके माध्यम से उत्तरी भारत में सामान्य शिक्षा के साथ वैदिक शिक्षा का प्रसार किया गया जिसके परिणामस्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं बीसवीं सदी के पूर्वाद्ध में देश में आशातीत शिक्षा का विस्तार तथा सामाजिक-राजनीतिक एवं सांस्कृतिक चेतना का उदय हुआ।

आश्रम व्यवस्था का समर्थन 

प्राचीन भारतीय राजनीतिक दर्शन का अनुसरण करते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आश्रम व्यवस्था का समर्थन किया। इसके तहत एक व्यक्ति की आयु 100 वर्ष मानते हुए जीवन को चार भागों में बांटा गया-- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास। उनका मानना था कि आज के समाज में जो, " घातक प्रतिस्पर्द्धात्मक स्थिति है, आश्रम व्यवस्था को अपनाने पर उस पर अंकुश लगेगा और सामाजिक जीवन में व्यवस्था स्थापित होना सम्भव है। 

वैदिक मूल्यों का समर्थन 

स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार यदि हम वैदिक मूल्यों और आदर्शों को सामाजिक जीवन का आधार बनाएं तो एक सुसंस्कृत एवं सुसभ्य समाज का निर्माण कर सकते है किन्तु इसका अभिप्रायः यह नहीं है कि उनका दृष्टिकोण संकुचित एवं संकीर्ण था। उन्होंने पाश्चात्य संस्कृति के गुणों की भी प्रशंसा की थी। उनका कहना था कि जो गुण एवं अच्छाईयां पाश्चत्य समाज में है जैसे बाल विवाह निषेध, दहेज निषेध, पर्दा प्रथा निषेध, स्त्री-पुरुष की विवेकानुसार जीवन साथी चुनने की छूट आदि को अंगीकार करना चाहिए।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी
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