4/29/2022

बाल गंगाधर तिलक के सामाजिक विचार 

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बाल गंगाधर तिलक के सामाजिक विचार 

तिलक के जाति-पांति, अस्पृश्यता, बाल-विवाह, विधवा-विवाह, मद्यपान आदि पर विचार

तिलक ने सामाजिक सुधारों के प्रत्येक महत्वपूर्ण पहलू को स्पर्श किया। उनका जाति-पाति भेदभावों तथा अस्पृश्यता में विश्वास नहीं था। गणपति उत्सवों में वे अछूतों को सवर्ण हिन्दूओं के साथ समान स्थान देते थे। अन्य जातियों के साथ बैठकर भोजन आदि करने में उन्हें कोई हिचक नहीं थी। लोकमान्य तिलक बाल-विवाह के विरोधी तथा विधवा-विवाह के समर्थक थे। तिलक ने विवाह के लिए लड़के की न्यूनतम आयु 20 वर्ष तथा लड़कियों के विवाह की आयु 16 वर्ष तय की। वह दहेज प्रथा के विरोधी थे। हालांकि तिलक बाल-विवाह के पक्ष में न थे और न ही अल्पावस्था-संभोग के समर्थक थे फिर भी उन्होंने 'सहमति-आयु विधेयक' का विरोध किया। तिलक का कहना था कि सुधारों के पक्ष में सामाजिक चेतना पैदा की जाए। उनको कानून द्वारा जनता पर थोपा नहीं जाए। तिलक चाहते थे कि जो लोग समाज के नेता बनते हैं, उन्हें चाहिए कि वे खुद उदाहरण उपस्थित करें तथा तब जनता से उन सुधारों को अपनाने की अपेक्षा करें। 

तिलक ने विधवा विवाह का समर्थन किया तथा मद्यपान का घोर विरोध किया। उस समय महाराष्ट्र में सरकार की आबकारी नीति के कारण लोगों में मद्यपान की आदत बहुत बढ़ गई थी। पर तिलक ने सरकार की आबकारी नीति की कटू आलोचना की तथा कहा," सरकार से ऐसी आशा करना मूर्खता होगी कि वह मद्यपान बंद कर देगी। यह तो युवकों को चाहिए कि वे मद्यपान के विरूद्ध अपने विचार प्रकट कर दें।" 

पश्चिमीकरण का विरोध और उदार परंपरावाद 

तिलक परिवर्तन के तो पक्षपाती थे, पर उन आधारों को नहीं मानना चाहते थे जो ठीक तथा सुदृढ़ नहीं थे। सामाजिक परिवर्तन और सुधारों को स्वीकार करते हुए भी वे इस पक्ष में नहीं थे कि भारतीयों का पश्चिमीकरण कर दिया जाए। पर साथ ही तिलक उन लोगों के भी विरोधी थे जो समाज-सुधार का आधार सिर्फ वेद-पुराणों में ढूंढ़ते थे तथा तिलक को उनके पाखण्ड का भण्डाफोड़ करने में कोई कठिनाई नहीं हुई। तिलक हिन्दू समाज की जड़ को खोखला करने वाली बुराइयों से परिचित थे तथा उन्हें मिटाना चाहते थे। तिलक भारतीय समाज की प्रगति भारतीय आदर्शों के अनुरूप ही चाहते थे तथा हिन्दू सामाजिक प्रणाली के महान् मूल्यों में उनकी गहन आस्था थी। वे यह नहीं चाहते थे कि पश्चिम से उधार लिए हुए मूल्यों के आधार पर भारतीय सामाजिक जीवन का पुननिर्माण किया जाए तथा भारतीयों के आदर्श प्राचीन रूपों तथा संस्थाओं का तिरस्कार कर दिया जाए। तिलक सामाजिक प्रतिक्रियावादी न होकर उदार परंपरावादी थे। वे समाज सुधार चाहते थे पर प्राचीन संस्कृति के साथ संबंध विच्छेद करके नहीं। सुधार तो जनगण के भीतर से विकसित होने चाहिए।

सामाजिक दर्शन 

लोकमान्य तिलक के समाज-सुधार संबंधी विचारों तथा पद्धति से हमें उनके सामाजिक दर्शन का स्वरूप भली-भांति स्पष्ट हो जाता हैं-- 

1. तिलक सामाजिक परिवर्तन के विरोधी नहीं थे, बल्कि उस सामाजिक परिवर्तन का विरोध करते थे, जो पश्चिम के अंधानुकरण से होता।

2. तिलक ने राजनीतिक जागरण तथा राजनीतिक सुधारों को सामाजिक सुधारों की तुलना में प्राथमिकता दी, क्योंकि सामाजिक तथा राजनीतिक दो मोर्चों पर शक्ति को विभाजित करना उन परिस्थितियों में उपयुक्त नहीं था। 

3. तिलक का विचार था कि सामाजिक सुधार सहज तथा स्वाभाविक ढंग से होने चाहिए जिससे समाज में असंतोष न फैले और सामाजिक संगठन में बाधा न पड़े। 

4. तिलक नहीं चाहते थे कि भारत के सामाजिक-धार्मिक क्षेत्र पर भी विदेशी नौकरशाही का नियंत्रण हो जाए। 

स्पष्ट है कि तिलक का एक निश्चित सामाजिक दर्शन था जो ठोस तथा यथार्थवादी भूमि पर आधारित था, तिलक के सामाजिक दर्शन का निचोड़ यही हैं कि वे सामाजिक परिवर्तन क्रमिक तथा सावयवी रूप में पसंद करते थे एवं पश्चिमीकरण के प्रवृत्ति के विरोधी थे।

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