5/02/2022

स्वामी विवेकानंद के सामाजिक विचार

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स्वामी विवेकानंद के सामाजिक विचार 

swami vivekanand ke samajik vichar;विवेकानन्द के विचारों में भारत के सामाजिक जीवन को उन्नत करने की प्रबल आकांक्षा हैं। वे भारत के पुनर्जागरण के लिए सामाजिक सुधारों को भी बहुत जरूरी मानते है।

विवेकानन्द ने भारत में प्रचलित जात-पाँत, छूआछूत तथा सम्प्रदायवाद जैसी सामाजिक बुराइयों की कटु आलोचना की एवं इन्हें सुधारने का प्रयास किया। उनका मत था कि भारत के पतन का मुख्‍य कारण उसकी सामाजिक दुर्बलताएँ हैं। इन दुर्बलताओं में प्रमुख हैं-- छूआछूत, पाश्चात्य भौतिक संस्कृति के प्रति आकर्षण, जाति-पाँति के भेद, रूढ़िवादिता तथा बाल-विवाह जैसी कुप्रथाएँ। 

विवेकानन्द के सामाजिक विचारों का निम्‍नलिखित शीर्षकों द्वारा नीचे विवेचन किया जा रहा हैं-- 

1. समाज का सावयवी रूप 

विवेकानन्द स्पेन्सर की तरह ही समाज को एक सावयव मानते थे। "अनेक व्यक्तियों का समूह समष्टि (संपूर्ण) कहलाता हैं तथा अकेला व्यक्ति उसका एक भाग हैं आप और हम अकेले व्यष्टि हैं समाज एक समष्टि हैं।" 

सामाजिक प्रगति तभी संभव है जब उसके घटक कुछ बलिदान करें क्योंकि त्याग अथवा बलिदान किए बगैर समष्टि के कल्याण की कामना व्यर्थ हैं। समाज विभिन्न व्यक्तियों का समूह हैं जिसके विकास के लिए व्यक्तियों द्वारा आत्म-त्याग अनिवार्य हैं। 

2. अस्पृश्यता की निन्दा 

विवेकानन्द ने अस्पृश्यता को भारत की सामाजिक दुर्बलता का मूल कारण बताया। इस रोग ने भारत को उच्च और हीन दलित जनता के बीच में बाँट दिया है जिससे सामाजिक समरसता समाप्त हो गयी हैं। वे कहते हैं," क्या हम (भारतवासी) मनुष्य हैं! हम भारत के करोड़ गरीबों के दुःख एवं उनकी पीड़ा के लिये क्या कर रहे हैं? हम उन्हें अछूत मानते हैं।.... वे हजारों ब्राह्मण भारत के नीच एवं दलित लोगों के लिये क्या कर रहें हैं? इनके मुँह से केवल यही एक वाक्य निकलता हैं,"  हमें मत छुओं, हमें मत छुओं। इनके हाथों हमारा सनातन धर्म कितना छोटा एवं भ्रष्ट हो चुका है। अब हमारा धर्म किस में रह गया हैं? मात्र छूआ-छूत में।" 

विवेकानन्द की समाज-सुधार की योजना में दलितों एवं हरिजनों के उत्थान की कामना हैं। उन्होंने वर्ण व्यवस्था के नाम पर इन पर होने वाले अत्याचारों एवं भेदभावों की कठोर शब्दों में निन्दा की। उनके शब्द हैं," इसमें से प्रत्‍येक को दिन-रात भारत के उन दलितों के लिए प्रार्थना करना चाहिए जो दरिद्रता एवं पुरोहितों के जंजाल तथा अत्याचारों से जकड़े हुए हैं।... भारत में कौन ऐसा है जिसके ह्रदय में इन बीस करोड़ स्त्री-पुरुषों, जो गहरी दरिद्रता और अज्ञान में डूबे हुए हैं, के लिये सहानुभूमि हैं? उनके जीवन में कौन प्रकाश ला सकता हैं? इन्हीं लोगों को अपना देवता मानों। मैं केवल उसी को महात्मा मानता हूँ जिसका ह्रदय दलितों के लिए द्रवित होता है। जब तक ये करोड़ों लोग भूख और अज्ञान के शिकार हैं तब तक मैं उन लोगों में से प्रत्येक को विश्वासघाती समझता हूँ जो उन (दरिद्रों) के द्वारा पैदा किये धन से शिक्षा प्राप्त करते हैं किन्तु उनकी ओर तनिक भी ध्‍यान नहीं देते।"

3. क्रांतिकारी परिवर्तनों की अपेक्षा धीमे सुधार का समर्थन तथा यूरोपीकरण का विरोध 

विवेकानंद संयम तथा दूरदर्शिता के प्रतीक थे। उनका स्पष्ट मत था कि उग्र क्रांतिकारी परिवर्तनों की अपेक्षा धीमे पर स्पष्ट एवं सुदृढ़ सुधारों को लाना उपयुक्त हैं। विवेकानन्द भारतीय समाज के यूरोपीकरण के विरूद्ध थे। एक स्थल पर उन्होंने लिखा हैं-- हमें अपनी प्रकृति में स्वभाव के अनुसार विकसित होना चाहिए। विदेशी समाजों की कार्य-प्रणालियों को अपनाना व्यर्थ हैं यह असंभव हैं। 

भारत का यूरोपीकरण असंभव तथा मूर्खतापूर्ण कार्य हैं। विवेकानन्द कहा करते थे कि जो दूसरों के लिए अमृत हैं वह हमारे लिए विष हो सकता हैं। 

4. मूर्ति पूजा

स्वामी विवेकानंद ने मूर्ति पूजा को धर्म हेतु सहायक तत्व माना जो प्राथमिक अवस्था में आवश्‍यक हैं हमेशा के लिए नहीं।  

5. सहिष्णुता का संदेश

स्वामी विवेकानंद ने सबको सहिष्णुता का उपदेश दिया। उन्होंने सार्वभौम धर्म का प्रतिपादन करते हुए उसका रूप निर्माणात्मक बताया, विध्वंसात्मक नहीं। उन्होंने लोगों को प्रेम, सेवा तथा त्याग का आदर्श अपनाने को कहा।

6. कर्म और कर्तव्य का संदेश 

स्वामी विवेकानंद कर्मवादी थे उनका कहना था कि कर्मण्यता, वेदान्त का सार हैं। कर्तव्य पर ध्यान देने का संदेश मानव समाज को देते हुए उन्होंने कहा," दुनिया में घुसो तथा कर्म के रहस्य को सीखो। संसार की मशीन के पहियों में मत भागों। इसके भीतर खड़े होकर देखो कि यह कैसे चलती है तब तुम रास्ता पा सकोगे। दुनिया में भी अपने लिए ही मत जीओ दूसरों से प्रेम करो तथा उस प्रेम के अनुसार अपनी जीवनचर्या बनावो। प्रेम विश्व संचालक शक्ति हैं। 

7. भारत में स्वतंत्र चिंतन का प्रभाव क्यों 

स्वामी विवेकानंद स्वतंत्र चिंतन को व्यक्ति तथा समाज की उन्नति की आवश्‍यक शर्त मानते थे। 

8. समाज को प्रगति की ओर ले जाने वाले अन्य विचार 

विवेकानंद एक व्यावहारिक विचारक थे जिनकी अनुभूति थी कि विश्व में सर्वांग सुंदर कुछ नहीं हो सकता अतः हमें यही देखने के लिए प्रस्तुत रहना चाहिए। "विश्व की घटनाएं हमारे चरम आदर्श से निम्न श्रेणी की हैं तथा यह जानकर सभी क्षेत्रों में सब वस्तुओं को हमें यथासंभव अच्छी दृष्टि से ग्रहण करना चाहिए।"

निष्कर्ष 

विवेकानंद के तेजोमय चिंतन के इस संक्षिप्त मंथन से यह निष्कर्ष निकलना स्वाभाविक है कि उन्होंने देश में जनजागरण का मंत्र फूँका तथा देशवासियों को शक्ति तथा निर्भयता के मार्ग पर आगे बढ़ाया। भारतीय राष्ट्रवाद के सिद्धांत की नींव उन्होंने मजबूती से रख दी और दलित-वर्ग को ऊपर उठाने का सराहनीय प्रयास किया। भारतीय राष्ट्रवाद के सिद्धांत की नींव रखी, दलित वर्ग को ऊपर उठाया, प्रेम तथा विश्व-बंधुत्व का संदेश दिया, पूर्व तथा पश्चिम की संस्कृतियों में समन्वय आदि महत्वपूर्ण कार्य किये। 

विवेकानंद पूर्व की आध्यात्मिकता तथा सांस्कृतिक महानता के समर्थक थे तो पश्चिमी वैज्ञानिक और संगठनात्मक कुशलता व समाज सेवा भावना के भी प्रशंसक थे तथा उन्होंने इन दोनों ही बातों का मिश्रण प्रस्तुत किया जिसने आधुनिक भारत के समाज-सुधारक और राजनीतिक नेताओं को प्रभावित किया। 

सामाजिक जड़ता तथा धार्मिक मूढ़ता को दूर करने का उन्होंने वैसा ही प्रयास किया जैसे किसी तालाब के सड़े हुए पानी को साफ करने के लिए किया जाता हैं।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी
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