5/02/2022

जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक विचार

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प्रश्न; पंडित जवाहर लाल नेहरू के राजनीतिक विचारों की संक्षेप में आलोचनात्मक विवेचना कीजिए। 

अथवा" पंडित जवाहर लाल नेहरू के राजनीतिक विचारों की विवेचन कीजिए। 

अथवा" समाजवाद और अन्तर्राष्ट्रवाद पर पंडित जवाहर लाल नेहरू के विचारों का विवेचना कीजिए।

उत्तर--

पंडित जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक विचार

pandit jawaharlal nehru ke rajnitik vichar;श्रीमती सुचेता कृपलानी ने नेहरू के बारें में ठीक ही कहा था," नेहरू जी का जीवन बहुमुखी रहा है। वह एक कुशल राजनेता, अनुभवी राजनयिक, अथक योद्धा और प्रभावशाली लेखक थे। सबसे ज्यादा वे मानवता के पुजारी थे।" 

श्री नेहरू अपने विचारों के कारण सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में चर्चित हुए तथा उन्हें बहुत प्रशंसा मिली। वे सिर्फ एक राजनीतिक नेता के रूप में नहीं वरन् राजनीतिक विचारक के रूप में भी में सम्मानित हुए। उनके विचार निर्भीक थे और उन्होंने सिर्फ उन्हीं विचारों को अपनाया जिनमें उनकी गहरी आस्था थी। भारत नया-नया स्वतंत्र हुआ था, वे प्रथम प्रधानमंत्री थे लेकिन विश्व के शक्तिशाली गुटों में से किसी भी एक के प्रभाव के कारण उन्होंने अपने विचार प्रकट करने में कभी संकोच नहीं किया। उनके साहस और निर्भीकता से कहे गए विचारों को विश्व ने सुना और उन पर चलने के मार्ग को ही विश्व शांति के लिए श्रेष्ठ पाया। 

विश्व की कई आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं का उन्होंने गंभीरता से अध्ययन किया था तथा उनके संबंध में मौलिक ढंग से चिंतन भी किया था। इन समस्याओं के संबंध में नेहरू ने जो विचार व्यक्त किए हैं, उससे वे उच्च कोटि के राजनीतिक विचारक माने जाते हैं। 

नेहरू के राष्ट्रवाद संबंधी विचार 

नेहरू जी ने लिखा हैं," हिन्दुस्तान मेरे खून में समाया हुआ है तथा उसमें बहुत कुछ ऐसी बातें हैं जो मुझे स्वभावतः प्रेरित करती हैं।" नेहरू जी को भारत से अगाध प्रेम था। इसका अतीत, इसका इतिहास उनके लिए हमेशा प्रेरणा स्रोत रहा। भारत की उच्च संस्कृति और उसकी गहनता और विशालता से वे सम्मोहित थे। नेहरू का यह दृढ़ विश्वास था कि भारत को स्वतंत्रता तथा सम्मान के साथ जीने का अधिकार मिलना चाहिए। इसलिए उन्होंने 'भारत की खोज' में लिखा हैं," किसी भी पराधीन देश के लिए राष्ट्रीय स्वतंत्रता प्रथम और प्रधान आकांक्षा होनी चाहिए।" भारत के लिए जिसमें व्यक्तित्व की तीव्र भावना पाई जाती है तथा जिसके पास अतीत की थाती हैं, यह बात और ही हैं। 

लेकिन नेहरू जी के राष्ट्रवादी विचार संकीर्ण और संकुचित नहीं थे। वे उग्र राष्ट्रवाद एवं धार्मिक राष्ट्रवाद के विरूद्ध थे। उनका यह स्पष्ट मत था कि उग्र राष्ट्रवाद परस्पर वैमनस्य, घृणा और युद्ध की विभीषिका को जन्म देता है। इससे विश्व शांति खतरे में पड़ जाती है तथा इस हिंसा की आग में बेगुनाह, मासूम और निर्दोष व्यक्तियों की बेवजह जानें जाती हैं। उग्र राष्ट्रवाद, जातीयतावाद, साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का जन्मदाता हैं। इसी प्रकार नेहरू ने धार्मिक राष्ट्रवाद का कभी समर्थन नहीं किया। इस संबंध में विचार प्रकट करते हुए नेहरू जी ने कहा था," अगर राष्ट्रीयता का आधार धर्म है तो भारत में न केवल दो वरन् तमाम राष्ट्र मौजूद हैं। भारत की राष्ट्रीयता न तो हिन्दू राष्ट्रीयता हैं, न मुस्लिम वरन् वह विशुद्ध भारतीय हैं।" 

नेहरू जी का राष्ट्रवाद मानव ह्रदय की कोमल भावना, देश प्रेम तथा देशभक्ति से ओत-प्रोत था, उग्र व संकीर्ण नहीं था। राष्ट्रवाद के साथ-साथ वे अंतरराष्ट्रीयता का भी सम्मान करते थे।

नेहरू व अंतर्राष्ट्रीयतावाद 

पंडित जवाहर लाल नेहरू विश्व कल्याण की कामना किया करते थे। भारत की सीमा के पास विश्व में शांति, सहयोग तथा परस्पर सामंजस्य की स्थापना उनके जीवन का प्रमुख उद्देश्‍य रहा। असल में नेहरू एक कल्पनाशील व्यक्ति थे। उनकी यह कल्पना रही कि "विश्व राज्य" की स्थापना हो। संपूर्ण विश्व मानव मात्र के कल्याण के लिए, सुख के लिए कार्य करे। कहीं हिंसा, द्वेष और वैमनस्य का स्थान न हो। वह राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रों की स्वतंत्रता की बात भी इसलिए करते थे कि गुलाम देश कभी विश्वशांति की बात नहीं कर सकता। उस पर से पहले दमन तथा हिंसा का साम्राज्य हटना चाहिए। वे साम्राज्यवाद के विरुद्ध थे। राष्ट्रों द्वारा रंग या जाति के कारण अन्य राष्ट्रों को गुलाम बनाने के प्रबल विरोधी थे। 

नेहरू जी अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव हेतु निःशस्त्रीकरण चाहते थे। आणविक अस्त्रों की होड़ विश्वशांति के लिए खतरा हैं। युद्धविहीन विश्व के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निःशस्त्रीकरण पहला कदम हैं। 

नेहरू जी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सह-अस्तित्व में विश्वास करते थे। उनके विचार में परस्पर घृणा और भय का वातावरण दूर कर पारस्परिक सहयोग पर विश्व राज्य की स्थापना की जा सकती हैं। वे मानते थे कि वैज्ञानिक प्रगति ने राज्यों की सीमाएं तोड़कर उन्हें परस्पर पास आने का अवसर दिया हैं। संसार एक विश्व-सरकार की तरफ बढ़ रहा हैं। विश्व समुदाय को वे स्वतंत्र देशों के समुदाय के साथ-साथ शांतिपूर्ण देशों का समुदाय भी मानते थे। 

उनका संयुक्त राष्ट्रसंघ में पूरा विश्वास था। उसके कार्यों को सफल बनाने में उन्होंने सक्रिय योगदान दिया। वे मानते थे कि यह एक ऐसी संस्था है जो विश्व में तनाव कम करने और विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के लिए उत्तम माध्यम हैं। डाॅ. राधाकृष्णन ने उनके विषय में कहा था," उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्‍यों के प्रति जितनी आस्था दिखाई, उतनी शायद ही किसी और ने दिखाई हो। वे अनुभव करते थे कि परमाणु अस्त्रों के इस युग में युद्ध का अर्थ होगा सभ्यता के सभी मूल्यों का विनाश।" 

नेहरू और मानवतावाद 

नेहरू महान् मानवतावादी थे। मानव मात्र का उत्थान, उसका कल्याण, उसका सुख और अनंद उनके चिंतन की धुरी थी। मानव का दमन, शोषण, निर्धनता उन्हें विचलित कर देती थी। अतः उनके चिंतन में मानव के लिए विश्व पर एक ऐसे स्वर्ग की रचना का भार था जहाँ सत् चिद् आनंद की व्यवस्था हो। 

"मनुष्य की गरीबी, उसका शोषण, उसका अज्ञान, उसकी असहाय स्थिति-इन सबके प्रति उनका मन विद्रोह करता था। यहाँ तक कि भारत की स्वतंत्रता की कामना के पीछे भी एक हद तक उनका मानवीय दृष्टिकोण ही था।" गुलामी को वे मनुष्य पर सबसे बड़ा अत्याचार मानते थे। वे राजनीतिक तथा सामाजिक दोनों ही तरह की गुलामी के विरूद्ध थे। राजनीतिक रूप से वे किसी देश द्वारा दूसरे देश को गुलाम बनाने के सख्त खिलाफ थे। साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरूद्ध उन्होंने प्रत्येक अवसर पर आवाज उठाई। भारत की असीम दुर्दशा एवं निर्धनता के लिए वे उसकी गुलामी को ही दोषी मानते थे। अतः स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए उन्होंने स्वयं का सुख तथा वैभव का जीवन छोड़ दिया। 

सामाजिक दासता से उनका तात्पर्य समाज में रहने वाले व्यक्तियों में जाति के आधार पर या धन के आधार पर होने वाले असमान व्यवहार से था। कुछ मनुष्यों द्वारा अपने ही समाज के अन्य मनुष्यों का शोषण, उनकी असहाय अवस्था के प्रति उनका मन विद्रोह कर उठता था। मनुष्य मात्र को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटने वाले संप्रदायों, जातियों, ग्रंथों, वर्णों में वे विश्वास नहीं करते थे। वे मानव मात्र की इज्जत चाहते थे। मानव की प्रसन्नता तथा मानवीय प्रगति ही उनके चिंतन का आधार थी। 

उनका समाजवाद पर भी इसलिए पूर्ण विश्वास था कि उसके आर्थिक विषमता का अंत हो सकता था। श्री नेहरू का समाजवाद इतिहास की आर्थिक व्याख्या पर नहीं वरन् मानव जाति के प्रति सम्मान की भावनाओं पर आधारित था।

लोकतंत्र में पूर्ण विश्वास 

नेहरू लोकतंत्र को एक शासन प्रणालो नहीं वरन् जीवन-पद्धति मानते थे। नेहरू लोकतंत्र को एक ऐसी शासन पद्धति मानते थे जिसमें शांतिपूर्ण तरीकों से समाज में परिवर्तन किया जा सकता है। इसमें शासन सत्ता अंतिम रूप से जनता के हाथ में रहती है क्योंकि उसी के द्वारा चुने गये व्यक्ति शासन संभालते हैं। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ही श्री नेहरू ने यह बार-बार कहा था कि स्वतंत्र भारत एक लोकतांत्रिक भारत होगा। वे संसदीय लोकतंत्र को ज्यादा पसंद करते थे। वे लोकतंत्र के मूल आदर्शों स्वतंत्रता तथा समानता के प्रति पूर्ण आस्था रखते थे। वे आर्थिक एवं सामाजिक लोकतंत्र में विश्वास करते थे। उनका मत था कि आर्थिक स्वतंत्रता और समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अर्थहीन हैं। राज्य के सामने सभी नागरिक समान होने चाहिए। जाति या धर्म के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं होना चाहिए। सामाजिक अन्याय और आर्थिक विषमताओं से पूर्ण समाज को लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। 

इसके साथ ही लोकतंत्र को सफल बनाने का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व जनता पर हैं। जनता की सजगता पर लोकतंत्र की सफलता निर्भर करती हैं। कई बार ऐसा होता हैं कि प्रचार माध्यमों के द्वारा शासन का कोई शक्तिशाली समूह जनता को गुमराह करके अपनी शक्ति बनाए रखता हैं। इस विषय में जनता को सचेत रहना चाहिए। नेहरू जी के अनुसार," शासन के अन्य प्रकारों की तुलना में लोकतंत्र जनता से ज्यादा उच्च प्रतिमानों की अपेक्षा करता हैं। अगर जनता उस मापदंड तक नहीं पहुंच पाई तो लोकतांत्रिक यंत्र असफल हो जाएगा।" 

नेहरू और समाजवाद 

पंडित जवाहर नेहरू समाजवादी थे। वे ऐसा समाज चाहते थे, जिसमें कम से कम विषमता हो लेकिन नेहरू का समाजवाद भारतीय समाजवाद था। वे भारतीय समस्याओं का भारतीय समाधान चाहते थे। वास्तव में वे 'लोकतांत्रिक समाजवाद' के प्रवर्तक थे। वे लोकतंत्रिक पद्धित द्वारा समाजवाद लाना चाहते थे। बिना हिंसा तथा रक्तपात किये, वे देश में समाजवाद की स्थापना करना चाहते थे। इसलिए समाजवादी होते हुए भी श्री नेहरू साम्यवादी नहीं थे। वे मार्क्स के मूल सिद्धान्त तथा सोवियत रूस की उपलब्धियों से प्रभावित थे लेकिन हिंसा और वर्ग संघर्ष की भावनाओं से वे सहमत न थे। उन पर प्रमुख प्रभाव ब्रिटेन के राज्य समाजवादियों का था। नेहरू पर गांधी जी का भी गहरा प्रभाव था। गांधीवाद ने नेहरू के क्रांतिकारी समाजवादी विचारों को संयत और संतुलित रूप प्रदान किया। 

समाजवाद का प्रयोग नेहरू व्यापक अर्थों में करते थे। आर्थिक रूप से तो वे समाजवाद के पक्ष में ही थे, सामाजिक दृष्टिकोण से भी वे व्यक्ति की समानता में विश्वास करते थे। आर्थिक रूप से व्यक्ति को समान अवसर मिलें, सामाजिक रूप से जाति, वर्ण, धर्म या रंग के कारण कोई भी व्यक्ति छोटा या बड़ा न माना जाए। विश्व राजनीति में उनका समाजवादी दृष्टिकोण ही प्रकट होता हैं। गोरी जाति काली जाति पर शासन करे या उसे दलित समझे, धर्म के आधार पर राष्ट्रों को बाँटा जाए, धर्म के आधार पर अन्य राज्यों पर आक्रमण किया जाये यह बात ही 

नेहरू के लिए असहनीय थी। नेहरू के अनुसार," विश्व की समस्याओं का समाधान सिर्फ समाजवाद द्वारा ही दिखाई देता हैं। जब मैं इस शब्द का प्रयोग करता हूँ तब सिर्फ मानवीय आधार पर ही नहीं वरन् वैज्ञानिक तथा आर्थिक आधार पर भी करता हूँ। समाजवाद आर्थिक सिद्धान्त से कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। यह एक जीवन दर्शन है और इसलिए मुझे जंचता भी हैं। मेरी दृष्टि में निर्धनता, बेरोजगारी तथा भारतीय जनता का अधोपतन और दासता को समाप्‍त करने का मार्ग समाजवाद को छोड़कर अन्य किसी प्रकार संभव नहीं दिखता।" 

मिश्रित अर्थव्यवस्था

नेहरू भारत की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना चाहते थे। भारत से निर्धनता और बेकारी समाप्‍त करने में उन्होंने अपनी पूरी शक्ति लगा दी थी। भारत की आर्थिक प्रगति के लिए वे औद्योगीकरण के पक्ष में थे। नेहरू का स्पष्ट मत था कि आर्थिक विषमता को दूर करने हेतु उत्पादन की वृद्धि आवश्यक हैं। उनका कहना था कि भारत में बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए भारत में औद्योगीकरण आवश्यक हैं। अपने आर्थिक विचारों में श्री नेहरू गांधीवादी दर्शन से थोड़ा दूर चले गये थे लेकिन नेहरू जी ने बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना के साथ-साथ छोटे-छोटे उद्योगों की स्थापना को भी प्रोत्साहन दिया। वास्तव में वे बड़े उद्योगों और छोटे उद्योगों के बीच समन्वय चाहते थे। 

समाजवादी होने के कारण श्री नेहरू आर्थिक असमानता को कम करना चाहते थे। इस कारण उन्होंने किसी चिंतन तथा दर्शन तथा दर्शन के प्रति दुराग्रह नहीं रखा। उन्होंने आर्थिक गतिविधियों के संचालन में सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों को सम्मिलित किया। असल में भातर के लिए वह मिश्रित अर्थव्यवस्था को सर्वाधिक उपयुक्त मानते थे। लेकिन वे यह नहीं चाहते थे कि निजी उद्योगों का विकास इस प्रकार से हो कि देश में पूंजीवादी व्यवस्था दृढ़ हो जाए। नेहरू पूंजीवाद के पूर्ण विरोधी थे। यह व्यवस्था अमानवीय तथा शोषण पर आधारित हैं। सार्वजनिक उद्योगों को वे निजी उद्योगों की बजाय ज्यादा महत्व देते थे। नेहरू की दृष्टि में आर्थिक रूप से राष्ट्र का सुदृढ़ होना अत्यंत जरूरी हैं। राष्ट्र से निर्धनता समाप्‍त होनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार के अवसर मिलने चाहिए, पूंजी के समान वितरण की व्यवस्था हो। अगर वे लक्ष्य प्राप्त कर लिए जाएं तो समाजवाद की स्थापना हो सकती हैं। इसके लिए राष्ट्रीय तथा निजी दोनों ही क्षेत्रों में, उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन देना चाहिए।

श्री नेहरू सहकारिता आंदोलन के पक्ष में थे। पूंजीवादी तथा साम्यवादी व्यवस्था में अमानवीय तथा हिंसात्मक उपायों द्वारा आर्थिक समाजवाद की स्थापना होती हैं। श्री नेहरू ऐच्छिक भागीदारी द्वारा आर्थिक विकास के पक्ष में थे। सहकारिता आंदोलन ही पूंजीवाद और साम्यवाद के दोषों को समाप्‍त कर सकता हैं। 

नेहरू जी पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से भारत की अर्थव्यवस्था को सुधारना चाहते थे। डाॅ. राधाकृष्णन के शब्दों में," स्वाधीनता के आगमन के पहले ही नेहरू ने यह अनुभव कर लिया था कि जब तक समन्वित नियोजन को नहीं अपनाया जाएगा तब तक हमारे देश का आर्थिक पुनर्निर्माण नहीं हो सकता तथा हम प्रगतिशील आधुनिक जीवन की उपलब्धि नहीं कर सकेंगे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने इस योजना को जीवन्तता और बल प्रदान किया।

पंडित जवाहरलाल नेहरू के साम्प्रदायिकता सम्बन्धी विचार 

नेहरू जी ने भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति को ध्यान में रखकर विचारों का प्रतिपादन किया था इसी कड़ी में उन्होंने सबसे पहले धर्म और राजनीति के संबंध को निर्धारित करने का एक प्रयास किया। उन्होंनें संकीर्ण धार्मिकता का विरोध करते हुए साम्प्रदायिकता को राष्ट्रीय एकता, अखंडता के लिए घातक, हिंसा व अलगांव को बढ़ाने वाली कहा। इसलिए उन्होंने धर्म की नैतिक मान्यताओं को स्वीकार करते हुए एक धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना पर बल दिया। 

अंग्रेजों की फुट डालों और शासन करों की नीति के कारण भारत के दो प्रमुख धर्मों हिन्दू और मुसलमानों के बीच मतभेद उत्पन्न हो गए थे इसके अलावा मुस्लिम लीग की गतिविधियों ने साम्प्रदायिकता की आग को बढ़ाने मे घी का काम किया। साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली एवं साम्प्रदायिकता के आधार पर आरक्षण से दो समुदायों के बीच व्यापक दूरियां बढ़ गई थी। पंडित नेहरू इस स्थिति से बहुत अधिक विचलित हुए और दोनो धर्मों के बीच साम्प्रदायिकता सौहार्द बढ़ाने पर बल दिया।

मूल्‍यांकन 

नेहरू जी उच्च कटि के विचारक थे। उनके विचारों ने उन्हें विश्व का नेता बना दिया था। उन्हीं के कारण पश्चिम में पूर्व की आवाज सुनी जाने लगी थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष करने वाले देश उन्हें अपना सच्चा हमदर्द तथा मसीहा मानते थे। कई अंतरराष्ट्रीय संबंधों को मधुर बनाने में नेहरू ने महत्त्वपूर्ण भाग लिया एवं सक्रिय भूमिका निभाई। असल में नेहरू जी मानव मूल्यों को, मानव गरिमा को उच्चतम शिखरों पर स्थापित करना चाहते थे। मलेशिया के प्रधानमंत्री टूंकू अब्दुल रहमान ने इसलिए कहा था," नेहरू मेरी प्रेरणा के स्त्रोत थे।"

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