महात्मा गांधी के सामाजिक विचार
mahatma gandhi ke samajik vichar;गांधी जी का सम्पूर्ण सामाजिक दर्शन उनके नैतिक समाज की अवधारणा पर आधारित हैं। गांधी जी का मानना था कि जब तक स्वस्थ्य समाज नहीं बनेगा, तब तक अच्छी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्थाएँ विकसित नहीं हो सकेगी। राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक प्रगति और स्वस्थ्य समाज परस्पर एक दूसरे से संबंधित हैं। हमारे लिए इतना ही पर्याप्त नही हैं कि हमारा समाज बहुत प्राचीन हैं तथा विश्व का पथ प्रदर्शक रहा हैं। इससे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि हम वर्तमान समाज को आदर्श समाज बनाएँ। वर्तमान भारतीय तथा पाश्चात्य समाज बुराइयों और आन्तरिक कमजोरियों से ग्रसित हैं। उन्होंने उन बुराइयों को दूर करने के लिए प्रयत्न किए।
वर्ण व्यवस्था
गांधी जी भारतीय संस्कृति के पुजारी थे। पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण उन्हें पसंद नहीं था। भारत में प्रचलित वर्ण-व्यवस्था का उन्होंने समर्थन किया हैं। उनके अनुसार सभी व्यक्तियों को अपने पैतृक व्यवसाय ही अपनाने चाहिए, समाज में केवल चार वर्ण होने चाहिए-- ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। एक वर्ग में उत्पन्न व्यक्ति को अपना ही कार्य करना चाहिए। गाँधीजी ने वर्ण व्यवस्था को जन्मजात नहीं अपितु कर्मगत माना हैं। अर्थात् जो व्यक्ति जैसा कर्म करेगा, उसे वैसे ही वर्ग में रखा जाएगा। 'गीता' के अनुसार वर्ण व्यवस्था जन्म पर नही बल्कि कर्म पर आधारित हैं। यह वर्ण विभिन्न जातियाँ नही, विभिन्न वर्ग हैं। विभिन्नता केवल कार्य के कारण हैं। सभी वर्णों का महत्व समान हैं।
अस्पृश्यता का अंत
महात्मा गांधी अस्पृश्यता को भारतीय के लिए एक कलंक मानते थे। उनका मत था कि अस्पृश्यता पापमूलक हैं तथा यह किसी भी धर्म का अंश नही हो सकती। गांधी जी अस्पृश्यता को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहते थे। उन्होंने अछूतों को हरिजन कहा तथा कहा की अस्पृश्यता निवारण के बिना, स्वराज्य का कोई अर्थ नहीं हैं। अस्पृश्यता को गांधी जी ने कृत्रिम अथवा बनावटी माना। इसका व्यक्ति के नैतिक या बौद्धिक विकास से कोई संबंध नहीं हैं। यह हिन्दू समाज की विकृति हैं। अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए वे हरिजन के मंदिर प्रवेश के समर्थक थे। वर्तमान मे यह मुद्दा इतना गंभीर नही है, पर जब गांधी जी ने स्वतंत्रता के पहले प्रयत्न किए तब यह महत्वपूर्ण मुद्दा था। गांधी जी ने सार्वजनिक स्थानों पर हरिजनों को स्थान दिलाया। उन्होंने अंग्रेजों की उस कुटिल चाल को समाप्त किया जिसके अनुसार हरिजनों को शेष हिन्दू समाज से अलग करने की कोशिश की गई थी। जब अंग्रेजी सरकार ने 1932 में साम्प्रदायिक निर्णय के अनुसार हरिजनों के लिए अलग निर्वाचन की घोषणा की तो गांधी जी ने इसका विरोध किया और आमरण अनशन प्रारंभ किया। परिणामतः अंग्रेजों ने इस निर्णय को वापिस लिया। गांधी जी ने हरिजन बस्तियों में रहना प्रारंभ किया। उन्होंने अछूतों में आत्मसम्मान के भाव विकसित करने की कोशिश की। उन्होंने हिन्दुओं को सलाह दी कि हरिजन बालकों को अपने घर रखें तथा उनका लालन-पालन अपने परिवार के अन्य बच्चों के समान करें, गांधी जी ने हरिजनों को भी बुरी आदतें छोड़ने की सलाह दी।
महिला उत्थान के कार्य
महिलाओं के प्रति व्यक्ति और समाज का व्यवहार तथा महिलाओं की भारतीय समाज में स्थिति मध्यकाल से ही खराब रही हैं। गांधी जी ने महिलाओं के लिए कार्य किए। वे इस तर्क को अस्वीकार करते थे कि महिलाओं का स्थान समाज में पुरूषों से नीचा होता हैं। गांधी जी ने स्त्री तथा पुरुष दोनों को समान दर्जा दिया। इतना ही नहीं वे नारी को चरित्र की दृष्टि से उच्च मानते थे तथा उसे त्याग, ममत्व, करूणा और ज्ञान की मूर्ति मानते थे। उनका विश्वास था कि अहिंसा के नैतिक शस्त्र का प्रयोग पुरुष की तुलना में महिलाएं अधिक क्षमता और दक्षता के साथ कर सकती हैं, क्योंकि उनमें त्याग और प्रेम की शक्ति अधिक होती हैं।
गांधी जी ने पर्दा-प्रथा का विरोध किया। वे मानते थे कि पर्दे से चरित्र की पवित्रता नहीं आती हैं। उन्होंने महिलाओं को हीन भावना त्यागने का आह्वान किया। गांधी जी ने महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्वतंत्रता का समर्थन किया। वे महिला मताधिकार के समर्थक थे। उन्होंने स्त्री शिक्षा पर जोर दिया।
महात्मा गांधी ने बाल विवाह का विरोध किया। वे बाल विवाह में शारिरिक और नैतिक दोनों बुराइयों को मानते थे। बाल विवाह के कारण ही समाज में कई बाल विधवाएँ हैं। वे विधवाओं के पुनर्विवाह के समर्थक थे। उनकी मान्यता थी कि स्वेच्छापूर्वक विधवा रहना हिन्दू धर्म की अमूल्य देन हैं और जबरन विधवा रखना अभिशाॅप हैं। विवाह को गांधी जी एक पवित्र संस्कार मानते थे। विवाह का उद्देश्य भोग भोगना नहीं, अपितु प्रजनन हैं। गांधी जी अन्तर्जातीय और अन्तर्सम्प्रदाय विवाह के समर्थक थे। गांधी जी ने दहेज प्रजा का विरोध किया।
बिनियादी शिक्षा
शिक्षा के क्षेत्र में गांधी जी का महत्वपूर्ण योगदान हैं। उनका विचार था कि शिक्षा का उद्देश्य शरीर, आत्मा व मस्तिष्क का समन्वित विकास है और इस दृष्टि से वे अंग्रेजों द्वारा भारत में स्थापित शिक्षा पद्धित को बहुत अधिक दोषपूर्ण मानते थे। उनका विचार था कि यह पद्धित युवकों का शरीरिक, बौद्धिक या आत्मिक किसी प्रकार का विकास करने में असमर्थ हैं। शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा होने के कारण विद्यार्थियों का अहित होता है। देश की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए उनके द्वारा एक नवीन शिक्षा प्रणाली का सुझाव दिया गया जो 'बुनियादी शिक्षा' के नाम से प्रसिद्ध हैं। इस शिक्षा प्रमाणी की विशेषताएं निम्नलिखित हैं--
1. शिक्षा के अंतर्गत प्रत्येक विद्यार्थी को मूलरूप में कोई न कोई दस्तकारी सिखायी जानी चाहिए और सब विषयों की शिक्षा उस दस्तकारी के द्वारा दी जानी चाहिए जिसे सहसंबंध का सिद्धांत कहते हैं।
2. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।
3. शिक्षा स्वावलम्बी हो अर्थात् विद्यार्थी जिस दस्तकारी के आधार पर शिक्षा प्राप्त करते हैं उस दस्तकारी से विद्यार्थी जीवन में और उसके बाद भी अपना भरण-पोषण कर सकें।
गांधी जी द्वारा शिक्षा में चरित्र निर्माण पर बहुत अधिक बल दिया गया था।
मूल्यांकन
गांधी जी ने आधुनिक विश्व को नई दिशा दी। उन्होंने आधुनिक सभ्यता की कमजोरियों और अधूरेपन को प्रगट किया तथा उन्हें दूर करने के लिए नैतिक मूल्यों को प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने यह जोर देकर कहा कि यदि हिंसा से ही मानवीय समस्याओं को हल किया गया तो वर्तमान सभ्यता का विनाश अनिवार्य हैं। व्यक्तिगत समस्याओं से लेकर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं का हल अहिंसा द्वारा निकालने का मार्ग गांधी जी ने बतलाया। अणु आयुधों द्वारा विध्वंस की संभावना से भयभीत विश्व को अहिंसा का मार्ग बतलाकर गांधी जी ने मानव जीवन में आशा और विश्वास का संचार किया। उनका दृढ़ विश्वास था कि समस्याओं का शांतिपूर्ण समाधान संभव हैं।
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