12/26/2021

महात्मा गांधी के राजनीतिक विचार

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महात्मा गांधी के राजनीतिक विचार 

mahatma gandhi ke rajnitik vichar;महात्मा गाँधी ने अपने राजनीतिक विचारों को कहीं भी क्रमबद्ध रूप मे व्यक्त नहीं किया हैं। उन्होंने विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न विषयों पर अपने विचारों को व्यक्त किया हैं। विद्वानों ने उनके विचारों को क्रमबद्ध रूप प्रदान कर उसे गाँधीवाद की संज्ञा प्रदान की हैं। गाँधी जी के राजनीतिक विचारों को अग्र शीर्षकों द्वारा व्यक्त किया जा सकता हैं-- 

धर्म और राजनीति 

गांधी जी के लिए धर्म और राजनीति अलग-अलग नहीं हैं। धर्म के व्यापक स्वरूप को स्वीकार करने के बाद यह संभव नहीं हैं कि हम राजनीति को अलग कर दें। धर्म, मानव जीवन की धुरी हैं। गाँधी जी के अनुसार धर्म का विश्वास हैं कि विश्व व्यवस्थित रूप से सैनिक नियमों के अनुसार शासित हो रहा हैं। राजनीति का धर्म से अलग कोई अस्तित्‍व नहीं हैं। अगर राजनीति धर्म की मूल अवधारणा से अलग हैं तो वह धोखा और पाखंड हैं। मैकियावेली सहित आधुनिक युग के विचारक धर्म और राजनीति को अलग-अलग मानते हैं। मार्क्स के लिए तो धर्म एक अफीमी नशा हैं। 

कुछ लोगों के लिए धर्म, साधु-महात्माओं का, कुछ के लिए धर्म व्यक्ति का निजी मामला हैं। गांधी जी का कहना हैं कि ऐसा वे ही कह सकते हैं जो धर्म के वास्तविक स्वरूप और अर्थ को नहीं मानते। गांधी जी के लिए धर्म और राजनीति के व्यापक लक्ष्य एक से थे। धर्म, व्यक्ति और समाज के कल्‍याण का साधन हैं। इसी प्रकार राजनीति का लक्ष्य भी व्यक्ति और समाज के हितों मे वृद्धि करना हैं। गीता की भावना के अनुसार यदि निष्काम भाव से हम अपने कर्त्तव्यों का पालन करते रहें तो विश्व कल्‍याण और जन कल्याण को प्राप्त किया जा सकता हैं। धर्म भावना हमें कर्मयोगी का जीवन व्यतीत करने को प्रेरित करती हैं। वह मनुष्य को मनुष्य से जोड़ती हैं। इस प्रकार स्‍पष्ट हैं कि जब गांधी जी धर्म को राजनीति का आधार बनाने की बात कहते हैं तो उनका अभिप्राय किसी पंथ या सम्प्रदाय को राजनीति का आधार बनाना नहीं अपितु मानव जाति के उच्चतम मूल्यों को आधार बनाना हैं। गांधी जी की मान्यता थी कि राजनीति को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता। राजनीति में नैतिकता का समावेश अनिवार्य हैं। वे कहते थे कि मेरे लिए धर्मविहीन राजनीति कोई चीज नहीं हैं। नीति शून्य राजनीति सर्वथा त्याज्य हैं। उनका मानना था कि राजनीति, धर्म की अनुगामिनी हैं। धर्म से शून्य राजनीति मृत्यु का एक जाल हैं, क्योंकि उससे आत्मा का हनन होता हैं।

राज्य संबंधी विचार 

गांधी जी मूलतः दार्शनिक अराजकतावादी थे। अहिंसा में प्रबल आस्था रखने के कारण वे किसी भी रूप में राज्य की सत्ता को स्वीकार नही करते थे। उन्होंने दार्शनिक, नैतिक, ऐतिहासिक और आर्थिक आधार पर राज्य का विरोध किया तथा अहिंसक समाज की रूपरेखा प्रस्तुत की। 

(अ) दार्शनिक आधार पर राज्य का विरोध करने का कारण यह था कि व्यक्ति मूलतः एक नैतिक प्राणी हैं। राज्य में व्यक्ति की नैतिकता का विकास संभव नहीं हैं। इसका कारण यह हैं कि कोई भी कार्य उसी स्थिति में नैतिक हो सकता हैं जब उसका करना हमारी स्वतंत्र इच्छा पर निर्भर हो, पर यदि कोई कार्य हमारी इच्छा पर निर्भर नहीं हैं तो वह नैतिक नहीं हैं। यदि हम किसी कार्य को दूसरों की इच्छा से करते है तब नैतिकता का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। राज्य अनैतिक हैं क्योंकि वह हमें सभी कार्य हमारी इच्छा से नहीं करने देता अपितु दण्ड और कानून का भय दिखाकर वह हमें सभी कार्य उसकी (राज्य) इच्छानुसार करने के लिए बाध्य करता हैं। अतः राज्य में रहते हुए नैतिकता का पालन करना संभव नहीं हैं। 

(ब) गांधी जी राज्य को बाध्यकारी शक्ति मानते हैं। राज्य, हिंसा और पाशविक शक्ति पर आधारित हैं। इसके परिणामस्वरूप मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाता हैं। गांधी जी राज्य की शक्ति में वृद्धि को शंका की दृष्टि से देखते थे, क्योंकि उन्हें यह लगता था कि राज्य की शक्ति में वृद्धि मनुष्य के व्यक्तित्व को सीमित करेगी। राज्य, हिंसा का धनीभूत और संगठित रूप हैं। एक व्यक्ति में आत्मा होती हैं पर राज्य आत्माहीन यंत्र मात्र हैं जिसे हिंसा से अलग नहीं किया जा सकता। 

(स) गांधी जी ने राज्य का विरोध इसलिए भी किया क्योंकि राज्य अपनी शक्ति और अधिकारों में निरन्तर वृद्धि करता रहता हैं, यह उसकी प्रवृत्ति हैं। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधा उपस्थिति होती हैं। गांधी जी कहा करते थे कि मैं राज्य की शक्ति में वृद्धि को शंका की दृष्टी से देखता हूँ, क्योंकि प्रकट रूप में राज्य की शक्तियाँ शोषण को कम से कम करके लाभ पहुँचाती हैं पर मनुष्य के उस व्यक्तित्व को नष्ट करके वह मानव जाति को अधिकतम हानि पहुँचाती हैं, जो सब प्रकार की उन्नति का मूल हैं। गांधी जी कहते थे कि मुझे जो बात नापसंद हैं, वह हैं बल के आधार पर बना हुआ संगठन। राज्य ऐसा ही संगठन हैं। अतः एक अहिंसक समाज में राज्य अनावश्यक हैं। वस्तुतः अहिंसक और अराजक समाज में राजनीतिक सत्ता के लिए कोई स्थान नहीं हैं। 

स्वतंत्रता संबंधी विचार 

गांधी जी के चिंतन में स्वतंत्रता संबंधी अवधारणा का महत्वपूर्ण स्थान हैं। उनकी आस्था नैतिक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता में तो थी ही, साथ ही वे राजनीतिक स्‍वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। 

गांधी जी ने आर्थिक स्वतंत्रता का भी समर्थन किया। सर्वोदय और स्वराज्य का विचार गरीब और असहाय लोगों को आर्थिक स्वतंत्रता की गारन्टी थी। गांधी जी ने राष्‍ट्रीय स्वाधीनता का समर्थन किया। वे स्वयं राष्ट्रीयता, स्वाधीनता प्राप्ति के लिए संघर्ष करने वाले सेनानी थे। उन्होंने व्यक्तिगत औय नागरिक दोनों प्रकार की स्वतंत्रता का समर्थन किया। विचार अभिव्यक्ति और लेख लेखने की स्वतंत्रता को उन्होंने स्वराज्य का आवश्यक अंग माना हैं। 

गांधी जी ने व्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-ही-साथ उसके सामाजिक दायित्वों की भी चर्चा की। वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक अनुशासन में सामंजस्य स्थापित करने के समर्थक थे। वे चाहते थे कि लोग अधिकारों के साथ-ही-साथ कर्त्तव्यों का भी ध्यान रखें जिससे कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक उत्तरदायित्व में कोई विरोध पैदा न हो।

आदर्श राज्य: अहिंसात्मक राज्य 

गांधी जी प्लेटो की तरह ही दो आदर्शों का वर्णन करते हैं, प्रथम, पूर्ण आदर्श, जिसे वे 'राम-राज्य' कहते हैं, द्वितीय, उप-आदर्श, जिसे वे 'अहिंसात्मक समाज' कहकर पुकारते हैं। उनकी पूर्व आदर्श सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत राज्य के लिए कोई स्थान नहीं। वे राज्यविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। इसमें सब व्यक्ति सामाजिक जीवन का स्वयंमेव अपनी इच्छा से नियमन करते हैं, मनुष्यों का इतना अधिक विकास हो जाता हैं वे अपने कर्त्तव्यों और नियमों का स्वेच्छापूर्वक पालन करते हैं। लेकिन गांधी जी यथार्थवादी थे और उन्होंने इस बात को स्वीकार किया हैं कि मानव स्वभाव की वर्तमान स्थिति को देखते हुए पूर्ण राज्य की स्थापना संभव नहीं हैं। इसलिए उनके द्वारा व्यावहारिक दृष्टिकोण से आदर्श राज्य की कल्पना की गयी हैं। उनके उप-आर्दश राज्य (अहिंसात्मक राज्य) की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-- 

1. अहिंसात्मक समाज 

गांधी जी अपने आदर्श राज्य को अहिंसात्मक समाज के नाम से भी पुकारते हैं। गांधी जी के इस आदर्श समाज में राज्य संस्था का अस्तित्व रहेगा और पुलिस, जेल, सेना तथा न्यायालय, आदि शासन की बाध्यकारी सत्ताएँ भी होगीं। फिर भी यह इस दृष्टि से अहिंसक समाज हैं कि इसमें इन सत्ताओं का प्रयोग जनता को आतंकित और उत्पीड़ित करने के लिए नहीं बल्कि उसकी सेवा करने के लिए किया जायेगा।

2. शासन का लोकतांत्रिक स्वरूप 

गांधी जी के आदर्श समाज में शासन का रूप पूर्णतया लोकतंत्रिक होगा। जनता को न केवल मत देने का अधिकार प्राप्त होना बल्कि जनता सक्रिय रूप से शासन के संचालन में भी भाग लेगी। 

3. विकेनद्रीकृत सत्ता 

गांधी जी के आदर्श राज्य की मुख्य विशेषता विकेन्द्रीकृत सत्ता हैं। गांधी सम्पूर्ण भारत में प्राचीन ढंग के स्वतंत्र और स्वावलम्बी ग्राम समाजों की स्थापना करना चाहते थे जिसका आधार ग्राम पंचायतें होगी। 

4. आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण 

गांधी जी के आदर्श राज्य में आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण को अपनाने का सुझाव दिया गया हैं। विशाल तथा केन्द्रीयकृत उद्योग लगभग समाप्‍त कर दिये जायेंगें और उनके स्थान पर कुटीर उद्योग चलाये जायेंगे। उन मशीनों का तो प्रयोग किया जा सकेगा जो व्यक्तियों के लिए सुविधाजनक होंगी, किन्तु मशीनों को मानवीय श्रम के शोषण का साधन नहीं बनाया जायेगा। 

5. नागरिक अधिकारों पर आधारित 

गांधी का आदर्श समाज स्वतंत्रता, समानता तथा अन्य नागरिक अधिकारों पर आधारित होगा। इस समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार व्यक्त करने और समुदायों के निर्माण की स्वतंत्रता होगी। इस समाज के अंतर्गत जाति, धर्म, भाषा और लिंग आदि का भेदभाव किए बिना सभी व्यक्तियों को बराबर सामाजिक और राजनीतिक अधिकार प्राप्त होंगे। 

6. निजी सम्पत्ति का अस्तित्व 

इस आदर्श राज्य में निजी सम्पत्ति की प्रथा का अस्तित्व होगा, किन्तु सम्पत्ति के स्वामी अपनी सम्पत्ति का प्रयोग निजी स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि समस्त समाज के कल्‍याण के लिए करेंगे। 

7. प्रत्‍येक व्यक्ति के लिए श्रम अनिवार्य 

गांधी जी के आदर्श समाज में प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपने भरण-पोषण के लिए श्रम करना अनिवार्य होगा। कोई भी मनुष्य अपने निर्वाह के लिए दूसरों की कमाई हड़पने का प्रयत्न नहीं करेगा और बौद्धिक श्रम करने वाले व्यक्तियों के लिए भी थोड़ा बहुत शरीरिक श्रम करना अनिवार्य होगा। 

8. वर्ण-व्यवस्था 

गांधी जी का आदर्श वर्ण व्यवस्था पर आधिकारिक होगा। प्राचीन काल की तरह समाज चार वर्णों में विभाजित होगा, ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। प्रत्येक वर्ण वंश परम्परा के आधार पर अपना कार्य करेगा, किन्तु विविध वर्णों के व्यक्तियों को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त होंगे और किसी प्रकार की ऊँच-नीच की भावना नहीं होंगी। 

9. अस्पृश्यता का अंत 

गांधी जी अस्पृश्यता को भारतीय समाज के लिए कलंक मानते थे और उनके आदर्श राज्य में समाज में अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नही था। 

10. धर्म निरपेक्ष समाज 

इस समाज में किसी एक धर्म को राज्य का आश्रय प्राप्त नहीं होगा। राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान होंगे और सभी धर्मों के अनुयायियों को समान सुविधाएँ प्राप्त होंगी। 

11. निःशुल्क शिक्षा

गांधी के आदर्श समाज में गाँव-गाँव में बुनियादी तालीम देने के लिए स्वावलम्बी पाठशालाएँ होंगी, जिससे प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क प्रदान की जायेगी।

न्याय सिद्धान्त 

गांधी जी व्यक्तियों की समानता पर भी बहुत अधिक बल देते थे। वे यह भी मानते थे कि पूँजीपतियों और उद्योगपतियों द्वारा श्रमिकों पर जो अत्याचार किए जाते हैं, वे पूर्णतः समाप्त होने चाहिए। इस अत्याचार को समाप्त करने में उन्होंने पश्चिम द्वारा निर्यात समाजवाद को नहीं अपनाया। शोषण को समाप्त करने में उनकी ही योजनी थी- न्याय सिद्धान्त-ट्रस्टीशिप। 

गांधी जी की मान्यता हैं कि जिसके पास सम्पत्ति हैं वह उसी की रहे। वे ही उसकी देखभाल करें और उसी के द्वारा अत्याधिक उत्पादन का प्रयत्न करें। परन्तु इस उत्पादन से प्राप्त लाभ का उपयोग वे स्वयं न करें। क्योंकी वे सम्पत्ति के स्वामी नहीं केवल संरक्षक हैं, ट्रस्टी हैं। वास्तव में सम्पत्ति जनता की हैं। उसके द्वारा किया गया उत्पादन जनता का हैं। इसके द्वारा उत्पन्न संपूर्ण लाभ भी जनता का हैं अथवा किसी उद्योग विशेष में कार्य करने वाले व्यक्तियों का हैं। पूँजीपति जो उद्योग का संचालक हैं, अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए आवश्यक धन ले ले और शेष आय अथवा लाभ अन्य कर्मचारियों को बाँट दे। यहाँ यह बताना जरूरी हैं कि सम्पत्ति के स्वामियों की भी केवल उतनी ही आवश्यकताएं हैं जितनी कि एक साधारण कर्मचारी की। क्योंकि वह भी एक मनुष्य हैं। अतः उसे धन की अत्यधिक आवश्यकता नहीं हैं। 

पुलिस और सेना 

गांधी जी मानते थे कि सभी व्यक्ति अहिंसावादी नहीं हो सकते। मानव स्वभाव का उनका अध्ययन यथार्थवादी था, इसलिए वे आदर्श राज्य में पुलिस व्यवस्था करते हैं। परन्तु आधुनिक पुलिस से उसका स्वरूप भिन्न होगा। आदर्श राज्य की पुलिस जनता की वास्तविक सहायक और सेवक होगी। व्यक्ति वेतन पाने के लिए नहीं, जनता की सेवा की भावना से पुलिस में भर्ती होंगे। पुलिस अपने कार्य में अहिंसा का सहारा लेगी। 

आदर्श राज्य में सेना नहीं होगी। यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आदर्श राज्य का दायरा केवल एक देश तक सीमित नहीं हैं। वह संपूर्ण विश्व के लिए आदर्श व्यवस्था हैं। सेना के स्थान पर देशों में शान्ति सेना होगी।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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