सृजनात्मकता का महत्व
srijnatmakta ka mahatva;सृजनात्मकता एक ऐसा विचार है कि जिसके माध्यम से बालक-बालिकाओं में निहित मौलिक सम्भावनाओं को विकसित किया जाता है। बालकों में चिन्तन एवं मौलिक अभिव्यक्ति की दृष्टि से सृजनात्मकता बहुत महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। सृजनात्मकता का शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं अपितु सर्वत्र महत्व है। शैक्षिक कार्यक्रम को उपयोगी बनाने तथा लक्ष्यपूर्ति की दृष्टि से सृजनात्मकता का विशेष महत्व है । सृजनात्मकता का महत्व निम्नलिखित बातों से स्पष्ट होता है--
1. सृजनात्मकता मौलिकता तथा नवीनता के अद्भुत गुणों के विकास के लिये महत्वपूर्ण हैं।
2. इससे चिंतन की प्रबल इच्छा प्रखर एवं विकसित होती है। फलतः जटिल से जटिल समस्या का हल सम्भव हो पाता है।
3. सृजनात्मकता में संवेदनशीलता और गम्भीरता के लक्षण विद्यमान रहते हैं इसलिये यह उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने की क्षमता के विकास में सहायक होती है।
4. सृजनात्मकता परम्परागत धारणा को नये सिरे से लेकर आगे खोज की प्रवृत्ति की ओर उन्मुख करती है।
5. सृजनात्मकता ऐसे विचारों को विकसित कर स्थापित करती है जिसमें वास्तविकता और व्यावहारिकता की पर्याप्त मात्रा रहती है।
6. सृजनात्मकता उत्तरदायित्व के साथ कार्य के प्रति निष्ठा, लगन, परिश्रम तथा कार्य पूर्णता में दृढ़ आस्था के प्रति सजग बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करती है। 7. सृजनात्मकता तर्क, कल्पना, विचार-शक्ति एवं संगठन करने की शक्ति के विकास में सहायक है।
8. सृजनात्मकता, दूरदर्शिता और बुद्धिमता को प्रखर करती है।
9. इससे भविष्य की सोचने, वर्तमान का भविष्य से सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता प्राप्त होती है।
10. सृजनात्मकता एकाग्रचित्त होकर अत्यन्त शान्त एवं धैर्यपूर्ण भाव से कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती है। 11. यह स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता का विकासित करती है।
12. सृजनात्मकता के फलस्वरूप आत्मविश्वास की भावना प्रबल एवं सुदृढ़ होती है।
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सृजनात्मकता के सिद्धांत (srijnatmakta ke siddhant)
मनोविश्लेषणवाद, साहचर्यवाद, व्यवहारवाद एवं मनोविज्ञान के अन्य संप्रदायों ने सूजनात्मकता के बारे में अपने-अपने सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं जिनकी व्याख्या निम्न तरह की गई है--
(अ) मनोविश्लेषण
इस सिद्धांत के मुख्य प्रवर्तक फ्राइड ने यह कहा है कि प्रत्येक प्राणी में कुछ मूल प्रवृत्ति जन्म व्यवहारों में समानता होती है। परंतु इन मूल प्रवृत्तिजन्य कार्यों से हटकर अगर मनुष्य चेतन रहते हुए कोई कार्य करता है तो उसे सृजनात्मकता कहेंगे।
(ब) साहचर्यवाद
साहचर्यवाद के अंतर्गत हम परस्पर तत्वों में संबंध स्थापित करते हैं। यह संबंध पदार्थों में साहचर्य द्वारा प्राप्त होते हैं, जिनमें कि संयोग एवं प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है। इन संयोगों तथा प्रणालियों का पुनर्गठन करना ही सृजनात्मक है । इसके द्वारा नवीनता अथवा मौलिकता पैदा करके सृजनात्मक का गुण विकसित किया जा सकता है।
(स) समग्रवाद
समग्रवाद या व्यवहारवाद के अनुसार समस्त समस्या प्रधान कार्यों का हल अंतर्दृष्टि अथवा सूझ का प्रतिफल होता है। इन विचारकों ने सृजनात्मक का आधार अंतर्दृष्टि बताया है। अंतर्दृष्टि द्वारा अगर मस्तिष्क में कोई नई बात आ जाती है जिसके कारण मौलिक कार्य हो जाता है तो उसे सृजनात्मक कहा जायेगा। उपरोक्त मनोवैज्ञानिकों के विचारों के आधार पर सृजनात्मक के निम्न सिद्धांत प्रचलित हैं--
1. इच्छा शक्ति का सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति में किसी कार्य को करने की इच्छा शक्ति प्रबल होती है। यह प्रबल इच्छा शक्ति ही सृजनात्मक बनाने में मददगार होती है।
2. बौद्धिक जागरूकता का सिद्धांत
कुछ व्यक्ति मानसिक (बौद्धिक) रूप से पूर्ण विकसित होते हैं। उनमें जागरुकता का गुण होता है। इसके कारण ही वे कुछ नया करने (नयी खोज करने के लिए) उद्यत होते हैं।
3. स्वप्रेरणा का सिद्धांत
कुछ मनोवैज्ञानिकों का यह कथन है कि सृजनात्मक कार्य करने की भावना जाग्रत होती है। स्वप्रेरणा का परिणाम है। इस स्वप्रेरणा के कारण ही व्यक्ति में मौलिक अथवा नवीन कार्य करने की भावना जाग्रत होती हैं।
4. जन्मजात शक्ति का सिद्धांत
सृजन शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में जन्मजात होती है। अत: स्वतः ही उसमें सृजनात्मक के अंकुर फूट निकलते हैं। कभी-कभी हम इसे ईश्वरदत्त भी कहते हैं।
5. प्रतिष्ठा का सिद्धांत
कुछ व्यक्ति सृजनात्मक कार्यों को इसलिए हाथ में लेते हैं क्योंकि उनके ही माध्यम से उन्हें ख्याति मिलेगी एवं प्रतिष्ठा मिलेगी। प्रतिष्ठा की अंतर-आकांक्षा उसे सृजनात्मक कार्य की तरफ प्रेरित करती है। कला, साहित्य, दर्शन एवं विज्ञान के क्षेत्र में बहुत से ऐसे व्यक्ति हैं जो विशिष्ट संस्थाओं, अकादमियों एवं शोध संस्थाओं में अपने मौलिक कार्य पर पुरस्कार प्राप्त करते हैं।
सृजनात्मक लेखन के क्षेत्र कौन से हैं।
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