भाषायी कौशल का अर्थ
भाषा के शिक्षण का मुख्य उद्देश्य है, अध्येता (छात्र) में भाषा व्यवहार की कुशलता पैदा करना। शिक्षण तथा अधिगम की दृष्टि से भाषा की कुशलता विविध भाषायी कौशलों के रूप मे विकसित की जाती है।
श्रवण-भाषण-व्यवहार प्रमखतः दो क्रियाओं पर आधारित है-- (अ) किसी के बोलने की क्रिया, (ब) दूसरे के सुनने की क्रिया। सुनने से अभिप्राय है वक्ता द्वारा प्रतुक्त ध्वनियों एवं उसने बने शब्दों तथा वाक्यों को सुनकर उनमें निहित विचारों अथवा भावों को समझना। भाषण से अभिप्राय है, वक्ता द्वारा प्रयुक्त ध्वनियों एवं उनसे बने शब्दों तथा वाक्यों को सुनकर उनमें निहित विचारों अथवा भावों को समझना। भाषण से अभिप्राय है, मनोगत विचारों को वांछित गति से इस तरह प्रकट करना कि श्रोता समझ सके। जब हम भाषा के लिखित रूपों को अपने कार्य-क्षेत्र मे शामिल कर लेते है तो अन्य व्यवहारों वाचन तथा लेखन की कुशलता भी सीखना पड़ती है। इन चारों कुशलताओं-सुनना, बोलना, पढ़ना तथा लिखना का संबंध भाषा के सभी घटकों, ध्वनि, शब्द एवं वाक्य संरचना के साथ-साथ भाषा की संस्कृति से भी होता है। भाषायी कौशलों को सीखने का अर्थ है, भाषा की संपूर्ण व्यवस्था की जानकारी एवं उनके प्रयोग की कुशलता का विकास। भाषा के शिक्षण मे इन चारों कौशलों पर छात्रों का अधिकार कराया जाता है। इस तरह भाषा-शिक्षण का अर्थ है, अध्येता में लक्ष्य, भाषा की दक्षता उत्पन्न करना एवं उसमें उस भाषा विशेष के व्यवहार की योग्यता पैदा करना।
भाषायी कौशलों का महत्व
भाषा-शिक्षण में भाषा के कौशलों का विशेष महत्व है। भाषा-शिक्षण का अर्थ भाषा विषय मे शिक्षण नही, बल्कि भाषायी कौशलों का शिक्षण है। इसका अर्थ हुआ कि भाषाओं को अभ्यास के द्वारा सीखा जाता है, भाषा की आदत पैदा की जाती है। मातृभाषा के मुख्य कौशलों को तो बालक परिवार में सहज तथा स्वाभाविक रूप से सीख लेता है, लेकिन अन्य भाषाओं को सीखते समय इन चारों कौशलों को सिखाना जरूरी हो जाता है। ये कौशल ही भाषा व्यवहार के आधार है। अन्य भाषा में विचारों के आदान-प्रदान, उपलब्ध साहित्य एवं विविध तरह का ज्ञान और सांस्कृतिक मूल्यों से परिचित कराने के लिए भाषा के उच्चारित तथा लिखित रूप का अभ्यास कराना आवश्यक है। वस्तुतः इन कौशलों के लिए माध्यम से ही संप्रेषण स्थापित किया जा सकता है, इसीलिए भाषा-शिक्षण में इन कौशलों का महत्व स्वतः स्पष्ट है।
भाषा के प्रमुख कौशलों का अन्योन्याश्रय संबंध
भाषायी कौशलों मे सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना, ये चार कौशल आते है। इन कौशलों का अगर विश्लेषण किया जाय तो निम्न उद्देश्यों की प्राप्ति भाषा के शिक्षण के माध्यम से होनी चाहिए---
1. अन्य व्यक्तियों के कथन, प्रवचन, भाषण आदि को सुनकर उसका अर्थ, आशय तथा भाव समझना।
2. अपने विचारों, भावों, उद्देश्यों को भाषा में बोलकर दूसरों के सामने प्रकट करना, वाचन करना।
3. अन्य व्यक्तियों द्वारा लिखित भाषा समझना।
4. अपने भावों, विचारों, भावनाओं को लिपिबद्ध कर उनको अभिव्यक्त करने की क्षमता पैदा करने हेतु सुनने, बोलने, पढ़ने, लिखने के कौशलों का शुरू से ही अभ्यास कराया जाता है जिससे छात्र इन क्रियाओं पर अधिकर प्राप्त कर सकें। बच्चों को छोटी-छोटी कहानियाँ सुनने की इच्छा बचपन से ही होती है। अपनी माँ, बुढ़ी दादी या नानी से कहानियाँ सुनने में वे रूचि लेते है। विद्यालय में प्रवेश लेने के बाद भी उनकी रूचि वेगवती रहती है। अतः उन्हें विभिन्न तरह की कहानियाँ सुनाई जाती है।
बीलने की शक्ति विकसित करने हेतु अध्यापक उनसे घर के विषय में वार्तालाप करता है, उनसे उनके खिलौने के विषय मे, माता-पिता, पड़ौसियों के विषय में पूछताछ करता है। पशु-पक्षियों के विषय में साधारण बातचीत करता है। बालक जिस विद्यालय में पढ़ता है, उसके भवन, उपवन, प्रारंभिक कृषि, बागवानी आदि कार्यों के विषय में उनसे वार्तालाप करता है। इससे छात्रों को आपस में वार्तालाप करने की प्रेरणा मिलती है।
पढ़ना-लिखना सिखाना विद्यालय का प्रमुख कार्य माना जाता है। विद्यालय में छात्रों को पट्टी पर कुछ वर्ण लिखकर उच्च उच्चारण करना सिखाते है। पढ़ना सार्थक क्रिया है, इसमें कई तरह के कौशल भी निहित है। यह सोचकर ही अध्यापक पाठ्य-पुस्तकों का शुद्ध सस्वर पाठ कराता है। शब्दों के अर्थ तथा वाक्यों में उनका प्रयोग बताता है। पढ़े हुए अंश पर किये गये प्रश्नों का उत्तर देना सिखाता है। आगे की कक्षाओं में पाठ्य-पुस्तक में दिये गए पाठों का उच्च स्वर से पठन कराया जाता है, अनुच्छेदों का मौन पाठन कर उनके विचारों को समझने की दक्षता पैदा की जाती है।
लिखने का कार्य देवनागरी लिपि के सभी वर्णों को शुद्ध लिखने से शुरू किया जाता है। संयुक्ताक्षर लिखना सिखाया जाता है। छोटे-छोटे वाक्यों को देखकर लिखने का अभ्यास कराया जाता है। सुलेख, अनुलेख, प्रतिलेख तथा श्रुतिलेख का अभ्यास उत्तरोत्तर क्रम में छात्रों को कराया जाता है। चौथी-पाँचवीं कक्षा में बालकों को कहानियाँ लिखना, छोटे सरल पत्र लिखना, वर्णनात्मक लेखों का लिखना सिखाया जाता है।
सुनने, बोलने, पढ़ने, लिखने की क्रियाएँ सिर्फ इसलिए करायी जाती है कि बालकों को भाषा के साधारण कौशल आ जायें।
भाषा-कौशल के पाठ नियोजन से पहले भाषा के स्तर एवं विषय-वस्तु के ज्ञान के आधार पर शिक्षण-बिन्दुओं का निर्धारण अवश्य कर लिया जाना चाहिए। यह निर्धारण अध्यापन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। शिक्षण-बिन्दुओं के शिक्षण उद्देश्यों के आधार पर विभिन्न तरह की पाठ्य-सामग्री का संकलन करना जरूरी है। पाठ्य-सामग्री में छात्रों की रूचि, उत्साह तथा सक्रियता बनी रहे, इसके लिए उचित सहायक-सामग्री तथा शिक्षण-विधि का निश्चय करना चाहिए।
छात्र की आयु, लिंग, व्यवसाय, मातृभाषा एवं स्तर की दृष्टि से पाठ्य-सामग्री की मात्रा तथा गुण मे अंतर होना स्वाभाविक है। पाठ्य-सामग्री का स्वरूप शैली, माध्यम, संदर्भ तथा बोलचा आदि से प्रभावित होता है। पाठ्य-सामग्री का उद्देश्य स्तर, अवधि एवं क्षेत्र सामग्री की मात्रा को प्रभावित करता है।
भाषा-कौशल पाठ-शिक्षण का प्रमुख ध्येय है कि छात्र सीखी गयी भाषा को शुद्धता प्रवाह तथा स्वतंत्रता के साथ प्रयोग कर सके। यह उद्देश्य निम्न तरह प्राप्त किया जा सकता है--
1. शुद्धता लाने के लिए
अभिव्यक्ति में होने वाली भूलों की मात्रा तथा आवृति को कम किया जाता है।
2. प्रवाह लाने के लिए
प्रयोग आवृत्ति की मात्रा में वृद्धि की जाती है।
3. स्वतंत्रता के साथ प्रयोग करने हेतु
विविध तरह के भाषा-अभ्यास कराये जाते है। इस तरह भाषा-कौशल का समग्र रूप में विकास किया जाता है।
भाषा कौशल कई सम्बद्ध अभ्यासों का परिणाम है। इसीलिए भाषा-कौशल की पाठ्य-सामग्री में विविध तरह के अभ्यासों की सामग्री की गणना की जाती है। भाषा-कौशल के विकास में दुहराने की क्रिया बहुत प्रभावशाली है। दुहराने की क्रिया भाषा के चारों कौशलों के प्रयोग में लायी जा सकती है।
भाषायी कौशल पाठ-सामग्री निम्न है--
(अ) श्रवण-कौशल पाठ-सामग्री,
(ब) भाषण-कौशल पाठ-सामग्री,
(स) वाचन-कौशल पाठ-सामग्री,
(द) लेखन-कौशल पाठ-सामग्री।
1. श्रवण-कौशल की पाठ-सामग्री
मातृभाषा की ध्वनियों को हर व्यक्ति बचपन से ही भली प्रकार बोलना एवं सुनना सीख लेता है। छात्र में मातृभाषा के श्रवण-कौशल के विकास हेतु शिक्षक को ज्यादा प्रयत्न की जरूरत नही पड़ती। लेकिन मातृभाषा से अन्य किसी भाषा को सीखने के लिए भाषण-कौशल के विकास तथा पुष्टि हेतु श्रवण-कौशल के विकास की जरूरत पड़ती है। इसका कारण यह है कि किन्हीं भी दो भाषाओं की ध्वनि-व्यवस्था के विभिन्न घटक पूर्ण रूप से समान नही होते।
श्रवण-कौशल विकास के अंतर्गत निम्न तीन तरह की शक्तियों का विकास करना आवश्यक है--
(अ) अंतर बोध शक्ति,
(ब) धारण शक्ति,
(स) बोधन शक्ति।
श्रवण-कौशल पाठ-सामग्री में इन शक्तियों के विकास तथा परीक्षण की क्षमता होनी चाहिए।
2. भाषण-कौशल (बोलने) की पाठ-सामग्री
भाषण की सार्थकता शुद्ध उच्चारण पर निर्भर है। सर्वमान्य उच्चारण ही शुद्ध उच्चारण कहलाता है। उच्चारण में भाषा की ध्वनियों, सुर, बल, निवृति, लोप, आगम, लय, अनुतान का समावेश रहता है। मौखिक अभिव्यक्ति को प्रभावशाली बनाने हेतु उसमें निम्न विशेषताएं होनी जरूरी है--
(अ) भाषा में शुद्धता, स्वाभाविकता, स्पष्ता, व्यावहारिकता, सशक्कता तथा भावानुरूपता होनी चाहिए।
(ब) भाषा विषय एवं अवसर के अनुकूल होनी चाहिए।
(स) अभिव्यक्ति मधुर, मर्मस्पर्शी, शिष्टाचारयुक्त एवं शुद्ध उच्चारण वाली होनी चाहिए। किसी भी भाषा का ग्रहण पक्ष (अर्थात् श्रवण तथा वाचन) जितना सरल होता है, अभिव्यक्ति पक्ष (अर्थात् भाषण तथा लेखन) उतना ही जटिल होता है। इसका कारण यह है कि अन्य भाषा में अभिव्यक्ति के विविध पक्ष, मातृभाषा के अभिव्यक्ति के विविध पक्षों से पर्याप्त मात्रा मे प्रभावित होते है। इसलिए छात्र अन्य भाषा की अभिव्यक्ति में कठिनाई का अनुभव करते है।
भाषण-कौशल पाठ-सामग्री में उपर्युक्त विकास एवं परीक्षण की क्षमता होनी चाहिए।
3. वाचन-कौशल (पठन) की पाठ-सामग्री
लिखित भाषा में अभिव्यक्त विचारों को पढ़ने की क्रिया को वाचन कहते है। वाचन में दो मुख्य बातें समाहित है--
(अ) वर्णों एवं शब्दों को पहचान कर ध्वनियों के साथ सह-संबंध स्थापित करना।
(ब) उपर्युक्त गति से मौन अथवा वक्त वाचन करते समय पठित-सामग्री का पूर्वापर संबंध जोड़ते हुए अर्थ-ग्रहण करना।
छात्र को किसी लिखित वाक्य के अर्थ-ग्रहण से पहले लिपि-चिन्हों की पहचान बहुत जरूरी है। लिपि-चिन्हों की पहचान के आधार पर ही शब्दों की पहचान संभव है। वर्णों तथा शब्दों की उचित पहचान को ही अर्थ-ग्रहण करने का आधार कहा जाता है।
वाचन क्रिया के दो प्रमुख भाग होते है-- वाचन-मुद्रा एवं वाचन-शैली। वाचन-मुद्रा को सुधारने हेतु कुछ अनुच्छेदों का निर्माण किया जा सकता है। वाचन-शैली में निम्न बातें आती है--
(अ) प्रत्येक शब्द का शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चारण,
(ब) भावानुसार उचित गति, यति एवं लय,
(स) आवश्यकतानुसार उचित बल,
(द) भावानुरूप अनुतान।
वाचन-कौशल विकास के निम्न चार प्रमुख सोपान है--
(अ) वाचनपूर्व काल,
(ब) अक्षर-ज्ञान,
(स) मुक्त-वाचन,
(द) निर्बाध अर्थ-ग्रहण युक्त वाचन।
वाचन-कौशल पाठ-सामग्री में चारों सोपानों के विकास एवं परीक्षण की क्षमता होनी चाहिए।
4. लेखन-कौशल की पाठ-सामग्री
ध्वनियों का लिपि-संकेतों में रूपान्तरण लेखन कहलाता है। ध्वनियों के लिखित प्रतीक वर्ण कहलाते है, जैसे-- आ, म, आदि। लेखन व्यवस्था का व्यवहार प्रायः अभ्यास पर निर्भर करता है। लेखन कौशल के विकास की प्रक्रिया के आधार पर लिखित भाषा-शिक्षण के तीन सोपान माने जाते है--
(अ) वर्ण लेखन, (ब) शब्द तथा वाक्य रचना, (स) आत्माभिव्यक्ति लेखन।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि भाषा के प्रमुख चार कौशलों-सुनना, बोलना, पढ़ना तथा लिखना का अन्योन्याश्रय संबंध है।
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