11/07/2021

मातृभाषा का अर्थ, महत्व

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मातृभाषा का अर्थ (matrubhasha kise kahate hain)

matrubhasha ka arth mahatva;मातृभाषा का शाब्दिक अर्थ हैं, माँ की भाषा। जिसे बालक माँ के सानिध्य में रह कर सहज रूप से सुनता और सीखता है। ध्यान योग बात यह है कि मातृभाषा को बालक माता-पिता, भाई-बहन अन्य परिवारीजनों तथा पड़ौसियों के बीच रह कर सहज और स्वाभाविक रूप से सीखता हैं। चूँकि बालक सामान्यतः माँ के संपर्क में ही अधिक रहता हैं, इसलिए बचपन में सीखी गई भाषा को मातृभाषा कहा जाता हैं। 

यदि कुछ विस्थापित परिवारों की बात छोड़ दे तो सामान्तः परिवार में दैनिक जीवन के विभिन्न क्रिया-कलापो में अनौपचारिक रूप से प्रयुक्त बोली/भाषा को ही वह मातृभाषा के रूप में सीखता है। उदाहरण के लिए यदि हम हिन्दी भाषा को लें तो यह कहा जा सकता है कि हिन्दी की विभिन्न बोलियाँ (ब्रज, अवधी आदि) ही उसके प्रयोक्ताओं के लिए मातृभाषा हैं। चूँकि बालक इन बोलियों को ही सबसे पहले सीखते हैं, इसलिए ये ही उसकी भाषाएं (भाषा) या स्व-भाषाएं हैं। 

सामान्यतः ये बोलियाँ ही बालक के परिवार एवं अन्य आत्मीय क्षेत्रों में बोली जाती है और इन्हीं के द्वारा वह परिवार के अन्य सदस्यों एवं निकटवर्ती परिवेश में रहने वाले अन्य स्वजनों से संबंध स्थापित करता हैं परन्तु जब आप किसी शिक्षित या अशिक्षित, शहरी या ग्रामीण व्यक्ति से उसकी मातृ भाषा के बारे में पूछते हैं तो वह तुरंत बिना किसी भी तरह के संकोच के साथ अपने क्षेत्र या प्रदेश की परिनिष्ठित (standard) भाषा को, जिसे वह औपचारिक रूप से शिष्ट समाज में प्रयोग करता है, अपनी मातृभाषा कहता हैं।

अपने परिवारीजनों तथा अन्य स्वजनों के साथ अनौपचारिक रूप से बोली जाने वाली बोली को अपने 'घर की बोली' या 'गाँव की बोली' का दर्जा प्रदान करता हैं। उदाहरण के लिए, हिन्दी भाषी समुदाय के लिए उसकी बोलियाँ नहीं अपितु हिन्दी भाषा ही मातृभाषा के रूप में स्वीकृत भाषा हैं।

मातृ-भाषा का महत्व (matrubhasha ka mahatva)

मातृभाषा मनुष्य के विकास की आधारशिला होती हैं। मातृभाषा में ही बालक इस संसार में अपनी प्रथम भाषिक अभिव्यक्ति देता हैं। मातृभाषा वस्तुतः पालने या हिंडोल की भाषा हैं। बालक अपनी माँ से लोरी इसी भाषा में सुनता हैं, इसी भाषा में बालक राजा-रानी और परियों की कहानी सुनता है और एक दिन यही भाषा उस शिशु की तुतली बोली बनकर उसके भाव-प्रकाशन का माध्यम बनती हैं। इस प्रारंभिक भाव-प्रकाशन में माँ-बेटे दोनों आनन्द-विभोर हो जाते हैं। यह सुख अन्य भाषा में कहाँ? 

महात्मा गाँधी ने मातृभाषा की श्रेष्ठता को समझाते हुए कहा हैं," मनुष्य के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही जरूरी हैं, जितना की बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माता का दूध। बालक पहला पाठ अपनी माता से ही पढ़ता हैं, इसलिए उसके मानसिक विकास के लिए उसके ऊपर मातृभाषा के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा लादना मैं मातृभूमि के विरूद्ध पाप समझता हूँ।"

बच्चे की शिक्षा में मातृ भाषा का विशेष महत्व होता हैं। मातृ भाषा शिक्षा का सर्वोत्तम साधन होती है। मातृभाषा के महत्व को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता हैं-- 

1. मानसिक विकास 

मानसिक विकास के लिए विचार शक्ति की जरूरत होती है। विचारों का प्रवाह मातृ भाषा के द्वारा ही हो सकता हैं। विचार, भाषा को जन्म देते हैं और भाषा विचारों को जन्म देती हैं जिस व्यक्ति के पास जितनी सशक्त  मातृभाषा होगी उतनी ही उसकी विचार शक्ति सुदृढ़ होगी।

2. सामाजिक विकास 

भाषा में साहित्य का निर्माण होता है। भाषा साहित्य के द्वारा ही समाज में परिवर्तन होता है तथा सामाजिकता का विकास होता है। इस कार्य के लिए मातृभाषा अत्यंत उपयुक्त साधन हैं। 

3. नैतिकता का महत्व 

भाषा के क्षेत्र में मातृभाषा ही एक ऐसा साधन है जो भौतिक तथा चारित्रिक गुणों को विकसित करती हैं। 

4. व्यक्तित्व का विकास 

मातृभाषा के ज्ञान पर बालकों के संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास निर्भर करता हैं। बालक के बौद्धिक, नैतिक और सांस्कृतिक विकास में मातृभाषा ही सहायक होती है। बालक के मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने पर उसके शारीरिक अवयवों पर दबाव भी नही पड़ता है तथा सुनने, बोलने, लिखने एवं पढ़ने आदि से संबंधित सभी इन्द्रियों का विकास ठीक से होता है। मातृभाषा से मस्तिष्क और ह्रदय स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करते हैं जबकि यदि शिक्षा अन्य भाषा में दी जाए तो मानसिक तनाव बढ़ सकता है। 

5. सृजनात्मक विकास 

भाषा के द्वारा व्यक्ति स्वतंत्र रूप से मनन, चिन्‍तन तथा वैचारिक अभिव्यक्ति करने में सफल हो पाता है। मातृ भाषा का चिन्‍तन मौलिक चिंतन होता है जो कि मातृ-भाषा के द्वारा ही संभव हैं। अतः इस मौलिकता में सृजनात्मकता का विकास होता हैं। 

6. उत्तम नागरिकता 

मातृ-भाषा व्यक्ति में मानवीय जीवन को कला का ज्ञान कराती है। मातृ-भाषा अपने घर व समाज के प्रति व्यवहार के साथ उत्तम नागरिकता के गुणों का विकास करती हैं। यह कार्य मातृ-भाषा के माध्यम से सफलतापूर्वक पूरा होता हैं। 

7. सांस्कृतिक जीवन का महत्व 

जीवन में सांस्कृतिक का अत्यधिक महत्व हैं। मातृभाषा द्वारा व्यक्ति के मूलभूत संस्कारों का ज्ञान होता है तथा यही सांस्कृतिक विचार, संस्कार के रूप में जीवन-दर्शन को शाश्वत बनाये रखते हैं। 

8. विचार-विनिमय का उत्तम साधन 

विचारों के आदान-प्रदान का उत्तम साधन मातृभाषा ही हैं, क्योंकि सभी लोग बोलकर, लिखकर या पढ़कर अपने विचारों को प्रकट करते है। अतः मातृ-भाषा में विचारों का आदान-प्रदान बहुत ही सरलता-पूर्वक होता हैं। 

9. अध्ययन-अध्यापन का मूलधार 

मातृभाषा अध्ययन एवं अध्यापन का सरलतम् साधन हैं। भाषा शिक्षा की मूलधार हैं। भाषा के माध्यम से शिक्षक अपने बालकों को ज्ञान की पूर्णता से परिचित करवाता है। 

10. मातृभाषा और राष्‍ट्र की प्रगति 

मातृभाषा के द्वारा व्यक्ति राष्‍ट्र की समस्याओं से अवगत होकर राष्‍ट्र की उन्नति में भागीदार बन सकेगा। आज हमारे राष्‍ट्र के सामने मुख्य लक्ष्य हैं-- जनसंख्या नियंत्रण, आधुनिकीकरण, राष्‍ट्रीय एकता और अन्तरराष्ट्रीय अवबोध। इन सबकी शिक्षा व्यक्ति को मातृभाषा के माध्यम से ही दी जा सकती हैं। मातृभाषा में प्राप्त ज्ञान का प्रभाव स्थायी होता हैं। 

11. मातृभाषा और राष्‍ट्रीय एकता 

स्वतंत्रता संग्राम के समय विद्वतजनों ने यह अनुभव कर लिया था कि शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा होने के कारण भारतीय चिंतन कुण्ठित हो गया हैं। राष्‍ट्र का जनमानस दासता की जकड़नों में जकड़ा हुआ था। राष्‍ट्रीय एकता को बनाए रखने के लिए देश के विद्वानों ने कहा कि स्वतंत्रता के बाद शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होगी। सन् 1956 ई. में देश के प्रान्तों का एकीकरण इसी भावना का प्रतिफल था जिससे राष्‍ट्रीय एकता की भावना मजबूत हो सके। स्वतंत्रता आंदोलन के समय विभिन्न प्रान्तों के नागरिकों ने अपनी मातृ-भाषा में ही भारत के आंदोलनों में भाग लिया था।

मातृभाषा की उपेक्षा से उत्पन्न दुष्प्रभाव 

अधिकांशतः लगभग सभी देशों की मातृभाषा को ही राष्‍ट्र भाषा का दर्जा मिला हुआ करता हैं। लेकिन भारत में ऐसा नही हैं। भारत की कोई राष्ट्र-भाषा नहीं है। हिंदी एक राजभाषा है यानि कि हिंदी भाषा राज्य के कामकाज में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा हैं। भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया है। भारत अपनी विविधता के कारण अनेक देशों का एक देश प्रतीत होता हैं। लगभग एक सहस्त्र वर्ष की अवधि के बाद पराधीनता के कारण भारत में समय-समय पर विविध भाषाओं का प्रसार होता रहा। वस्तुतः " यदि किसी जाति, धर्म अथवा देश को पराधीन रखना है तो उसके साहित्य को नष्ट कर देना चाहिए, वह स्वयं नष्ट हो जायेगा।" 

इस बात को ध्यान में रखते हुए विदेशियों द्वारा हमारी सभ्यता, संस्कृति, साहित्य पर निरन्तर कुठाराघात होता रहा। साधारण आदमी कभी-कभी आत्म-बल की कमी के कारण, तो कभी उदर पालन की समस्याओं के कारण उनसे टक्कर लेने में असमर्थ रहा और उन्हीं के रंग में उसने अपने को रंग लिया। 

मुस्लिम शासकों ने अपने धर्म के विस्तार के लिए अपनी भाषा द्वारा अपनी संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना प्रारंभ किया। उनके आक्रामक रवैये तथा असहनीय अत्याचारों से त्रस्त होकर जनता ने अरबी फारसी को महत्व दिया। उनके इतने लम्बे शासन काल में हमारी मातृभाषा लड़खड़ा गयी। मुसलमानों के बाद जब अंग्रेज आये, तो उन्होंने शिक्षा का माध्यम अरबी-फारसी की जगह अंग्रेजी रखा। अंग्रेजों की सभ्यता और संस्कृति में भारतीय जनता इतनी रंग गयी कि उसने अपनी मातृभाषा की कमर ही तोड़ दी। उसकी उपयोगिता समाप्त हो गयी, क्योंकि वह जनता की जीविकोपार्जन, राज्य सम्मान, मान-प्रतिष्ठा में सहायक सिद्ध न हो सकी। अतः मातृभाषा को उपेक्षित समझा जाने लगा। आज के वैज्ञानिक एवं भौतिक युग में सफलता हेतु मातृभाषा में इन विषयों की पुस्तकों का अभाव भी मातृभाषा की अरूचि का एक प्रमुख कारण है। विदेशियों के शासन में हिन्दी का पूर्ण विकास नहीं हो सका, किन्तु उसका पठन-पाठन तो अंदर ही अंदर चलता रहा। स्वतंत्रता के पश्चात हमारी सरकार ने इसके महत्व को समझते हुए, इसे राष्ट्र भाषा के पद पर आसीन कर दिया। निःसंदेश इसी भाषा में समूचे राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने की सामर्थ्य हैं।

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