8/05/2021

भाषा का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं

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भाषा का अर्थ (bhasha kise kahate hai)

Bhasha ka arth paribhasha visheshta ;'भाषा' शब्द संस्कृत की' भाष' धातु से बना है जिसका अर्थ है बोलना या कहना। वैसे तो सभी जीवधारी बोलते है, लेकिन मानव जिस वाणी को बोलता है बिल्कुल अन्य सभी जीवों से पूरी तरह पृथक है। जीवधारियों की भाषा को विचार-विनिमय की भाषा नही कहा जा सकता। क्योंकि उनकी भाषा केवल सांकेतिक मात्र होती है, जबकि मानव की भाषा का स्वरूप केवल सांकेतिक न होकर लिखित है। विचार और भाव-विनिमय के साधन के लिखित रूप को हम वस्तुतः भाषा कहते है। इस प्रकार मनुष्य के भावों, विचारों और अभिप्रेत अर्थो की अभिव्यक्त के ध्वनि-प्रतीकमय साधन को भाषा कहते है। 

जिस वक्त भाषा का वर्तमान रूप निर्मित हुआ था, उस समय मानव संकेतों के माध्यम से अपना काम चलाता होगा। वर्तमान में भी अविकसित मनुष्य या जो बोल या सुन नही सकते, व्यक्ति संकेतों के द्वारा ही अपना काम चलाते है। जैसे-जैसे मानव शक्तियों का विकास होता गया, उसकी अभिव्यक्त को वाणी प्राप्त होती गई एवं ध्वनि प्रमुख भाषा का विकास होता गया। इस प्रकार भाषा हमारे विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति का साधन कही जाती है। 

सामान्य तौर पर मानव-मात्र की भाषा को भाषा कहा जाता है। भाषा एक सामाजिक प्रक्रिया है। वह बोलने और सुनने दोनों के विचार-विनिमय का साधन है।

भाषा का वैज्ञानिक अर्थ 

भावाभिव्यक्ति के समस्त साधन भाषा के व्यापक अर्थ में सम्मिलित हो जाते है। भाषा-पशु-पक्षियों की भाषा अथवा संस्कृत के टीकाकारों द्वारा 'इति भाषायद्' द्वारा अभिप्रेत भाषा में सर्वत्र एक ही भाव छिपा हुआ है, वह साधन जिसके द्वारा एक प्राणी दूसरे प्राणी पर अपने विचार भाव या इच्छा जाहिर करता है। 

'भाषा' शब्द का प्रयोग बहुत ही व्यापक अर्थ मे होता है। हम मनुष्य या अन्य तीनों के भावों को कभी-कभार ध्वन्यात्मक भाषा न होने पर भी संकेतों द्वारा ही समझ लेते है। ऐसी दशा में भावाभिव्यक्ति के समस्त साधन भाषा के व्यापक अर्थ में सम्मिलित हो जाते है। 

निष्कर्ष यह है कि भाषा के व्यापक अर्थ की सीमायें अत्यधिक विस्तृत है। व्यापक अर्थ उसकी सीमाओं को संकेतों से लेकर मूक भावाभिव्यक्ति तक पहुंचा देता है, जिसके अंतर्गत केवल मानवीय भाषा ही नही, पशु-पक्षियों के निरर्थक समझे जाने वाले स्वर भी सम्मिलित हो जाते है। भाषा विज्ञान केवल सार्थक एवं शब्द निर्माण में सहायक ध्वनियों को ही 'भाषा' परिधि के अंतर्गत स्वीकार करता है। 

भाषा की परिभाषा (bhasha ki paribhasha)

विभिन्न भाषाशास्त्रियों द्वारा 'भाषा' के वैज्ञानिक अर्थ को स्पष्ट करते हुये उसकी भाषा निश्चित करने का प्रयास किया है। इनमें भारतीय एवं पाश्चात्य, प्राचीन एवं आधुनिक सभी वर्गों के विद्वान है। भिविन्न विद्वानों द्वारा भाषा की परिभाषाएं निम्न है-- 

डाॅ. श्याम सुंदर दास के अनुसार," मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिये व्यक्त ध्वनि-संकेतों का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते है।" 

डाॅ. बाबूराम सक्सैना के अनुसार," एक प्राणी अपने किसी अवयव द्वारा दूसरे प्राणी पर कुछ वक्त कर देता है, यही विस्तृत अर्थ मे भाषा है।" 

आचार्य किशोरीदास बाजपेयी के अनुसार," विभिन्न अर्थों में सांकेतिक शब्द-समूह की भाषा है, जिसके द्वारा हम अपने मनोभाव दूसरों के प्रति बहुत सरलता से प्रकट करते है।" 

डाॅ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार," भाषा उच्चारणावयवों से उच्चरित अध्ययन विश्लेषणीय यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की वह व्यवस्था है, जिसके द्वारा एक समाज के लोग आपस मे भावों और विचारों का आदान-प्रदान करते है।" 

सुमित्रानंदन पन्त के शब्दों में," भाषा संसार का नादमयं चित्र हैं, ध्वनिमय स्वरूप हैं, यह विश्व की ह्रदय तन्त्री की झंकार हैं, जिनके स्वर में अभिव्यक्त पाती हैं।" 

काव्यादर्श के अनुसार," यह समस्त तीनों लोक अन्धकारमय हो जाते, यदि शब्द रूपी ज्योति से यह संसार प्रदीप्त न होता।" 

सीताराम चतुर्वेदी के शब्दों में," भाषा के आविर्भाव से सारा मानव संसार गूँगों की विराट बस्ती बनने से बच गया।" 

वान्द्रिए के शब्दों में," भाषा एक प्रकार का चिन्ह हैं। चिह्न से तात्पर्य उन प्रतीकों से हैं जिनके द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर प्रकट करता हैं। ये प्रतीक भी कई प्रकार के होते हैं, यथा नेत्रग्राह्रा, श्रोत्रग्राह्रा, एवं स्पर्शग्राह्रा। वस्तुतः भाषा की दृष्टि से श्रोतग्राह्रा प्रतीक सर्वश्रेष्ठ हैं।" 

सुकुमार सेन के शब्दों में," अर्थवान कण्ठोदगीर्ण ध्वनि-समष्टि ही भाषा हैं।" 

पाश्चात्य भाषाशास्त्रियों द्वारा भी भाषा के संदर्भ में जो परिभाषायें दी गई है, उनका निष्कर्ष भी यही है कि भाषा विचाराभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण माध्यम है, जिसमें ध्वनियों का व्यवहार किया जाता है। इन सिद्धांतों के मतानुसार भाषा व्यक्त ध्वनि-संकेतों के द्वारा मानव-विचारों की अभिव्यक्ति है। पाश्चात्य विद्वानों की कुछ परिभाषायें इस प्रकार है-- 

मेरिओ ए. पेई तथा फ्रैंक ग्यानोर के अनुसार," भाषा उन सार्थक और विश्लेषण समर्थ मानव उच्चारित ध्वनियों को कहते है, जिनका प्रयोग मानव विचारों और भावों को व्यक्त करने के लिये किया जाता है।" 

ए. ए. कार्डीनोर के मतानुसार," विचाराभिव्यक्ति हेतु व्यक्त ध्वनि संकेत ही भाषा है।" 

वेण्डी का मत है," भाषा एक प्रकार का चिन्ह है। चिन्ह से अभिप्राय उन प्रतीकों से है, जिनसे मनुष्य अपने विचार दूसरों पर प्रकट करता है।

ब्लांख एवं ट्रेगर के मतानुसार," भाषा ऐच्छिक वाक् प्रतीकों की वह व्यवस्था है जिसके द्वारा मनुष्य समुदाय परस्पर सहयोग करता है।"

स्त्रुत्वा के अनुसार," भाषा यादृच्छिक भाष् प्रतीकों का तन्त्र है जिसके द्वारा एक सामाजिक समूह के सदस्य सहयोग एवं समृपर्क करते हैं।" 

हम्बोल्ट के अनुसार," उच्चरित ध्वनि को भावाभिव्यक्ति के उपयोगी बनाने की चिरन्तन चेष्टा का फल है भाषा। यह श्रवणेन्द्रिय के पथ से मानव मन की अभिव्यक्त है।" 

स्वीट के अनुसार," ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।"

प्लेटो ने सोफिस्ट में विचार और भाषा के सम्बन्ध में लिखते हुए कहा है," कि विचार और भाषा में थोड़ा ही अंतर है। विचार आत्मा की मूक या अध्वन्यात्मक बातचीत है और वही शब्द जब ध्वन्यात्मक होकर होठों पर प्रकट होती है तो उसे भाषा की संज्ञा देते हैं।"

ब्लूमफील्ड के अनुसार," लेखक भाषा नहीं, वह दृश्य संकेतों द्वारा भाषा को अंकित करने का साधन मात्र हैं।" 

गुणे के अनुसार," ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा ह्रदयगत भावों तथा विचारों का प्रकटीकरण ही भाषा हैं।" 

भाषा ध्वनि चिह्नों की वह समष्टि हैं, जिनके माध्यम से एक व्यक्ति अपने विचार, इच्छाएँ तथा भाव दूसरे व्यक्ति के लिए व्यक्त करता हैं तथा दूसरे के विचार, इच्छाएँ और भाव ग्रहण करता हैं। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का दर्शन भाषा ही कराती हैं।

भाषा के लक्षण एवं विशेषताएं (bhasha ki visheshta)

भाषा के लक्षण अथवा विशेषताएं निम्नलिखित है-- 

1. मानव मुख से निसृत 

भाषा मानव मुख से निकलती है। पशु-पक्षियों की बोलियों, अंगादि द्वारा भाव-प्रकाशन तथा निरर्थक ध्वनि समूह को भाषा नही कहा जा सकता है। अतः मानव मुख से निकरने वाले ध्वनि-संकेतों की समष्टि अथवा व्यवस्था को 'भाषा' कहा जाता है। 

2. भाव-संप्रेषण का साधन 

भाषा भाव संप्रेषण का साधन है। भाषा के अभाव मे मनुष्य संकेतो के द्वारा ही अपने विचारों एवं भावों को अभिव्यक्त कर सकता है। हम स्वयं कह सकते है कि गूँगे व्यक्ति की चेष्टाओं के समान ये संकेत भाव-प्रकाशन में सर्वथा अपर्याप्त ही रहते है। भाषा के द्वारा ही एक व्यक्ति अपने भावों को अभिव्यक्त करके दूसरों तक पहुंचा सकता है। 

3. सार्थक एवं विश्लेषणीय ध्वनि 

वे ही ध्वनियाँ भाषा के अंतर्गत आती है जो सार्थक होती है, सार्थक शब्द निर्माण करती है तथा जिनका विवेचन विश्लेषण किया जा सकता है।

4. निश्चित ध्वनि रूप 

भाषा की आवृत्ति होती है। इस कारण ध्वनि रूप में निश्चितता का होना जरूरी है। ऐसा न होने पर ध्वनियों के अर्थ बदलते रहते है और वह निश्चित प्रयोजन की अभिव्यक्त न कर सकने के कारण भाषा नही कही जा सकती है। 

5. पूर्ण निर्धारित अर्थ 

भाषा के अंतर्गत आने वाली 'ध्वनि' का अर्थ परम्परागत होता है। उदाहरण के लिए 'काम' शब्द को ही लेते है। संस्कृत और हिन्दी मे इस शब्द का अर्थ एक निश्चित रूप में स्वीकृत है-- कार्य अथवा इच्छा। परन्तु अंग्रेजी में यही ध्वनि 'काम' एक भिन्न अर्थ Calm शांत की प्रतीति करती है। स्पष्ट है कि 'काम' शब्द का अर्थ व्यवह्रत परम्परा के अनुसार ही गृहीत होगा। 

6. सामाजिकता 

भाषा का उद्भव और विकास मनुष्य की सामाजिकता के फलस्वरूप हुआ है। पारस्परिक सहयोग, संपर्क और विचार विनिमय की आकांक्षा ने ही भाषा का विकास किया है। भाषा व्यक्ति और समाज को जोड़ने वाली महत्वपूर्ण कड़ी है। मनुष्य समाज में रहकर ही भाषा का अर्जन, सम्बर्धन एवं विकास करता है।

7. अर्जित संपत्ति 

भाषा मनुष्य को पैतृक सम्पत्ति के रूप में जन्म से ही प्राप्त नही होती है, बच्चे को अनुकरण और अभ्यास के द्वारा सीखनी पड़ती है। यदि किसी अंग्रेज बच्चे का पालन-पोषण हिन्दी भाषी माता-पिता करें तो वह बच्चा हिन्दी भाषी होगा, क्योंकि वह जन्म से कोई भाषा नही जानता है। वस्तुतः भाषा-अर्जन का कार्य तो अनवरत रूप से जीवन-पर्यन्त चलता रहता है।

8. द्धैध संरचना 

भाषा की रचना ध्वनियों और शब्दों (या पदों) द्वारा होती है। इस संसार की कोई भी भाषा ले लें, हमको उनमे यही प्रवृत्ति दिखाई देगी। यानि सभी भाषाओं में द्धैध संरचना मिलती है,-- वाक्यात्मक तथा ध्वनि अक्रियात्मक। आधुनिक अंग्रेज भाषा वैज्ञानिक के अनुसार यह (द्धैध संरचना) मानव भाषाओं की विश्वव्यापी आधारभूत विशेषता है।

9. परिवर्तनशील 

भाषा हमेशा बदलती रहती है। भाषा का कोई रूप स्थिर या अन्तिम रूप नही होता है। भाषा में यह परिवर्तन ध्वनि, शब्द, वाक्य अर्थ-सभी स्तरों पर होता है। उदाहरण के लिए संस्कृत का 'हस्त' शब्द प्राकृत में 'हाथ' होकर हिन्दी में हाथ हो गया है। संस्कृत का 'साहस' शब्द हत्या व्यभिचार आदि के अर्थ मे प्रयुक्त होता था। हिन्दी में उसका अर्थ अब 'हिम्मत' हो गया है। भाषा का शरीर प्रधानतः उन व्यक्त ध्वनियों से बनता है, जिन्हें 'वर्ण' कहते है। 'वर्ण' के सहायक अंग है-- आँख हाथ के इशारे, मुख-विकृत आवाज की अवस्था अर्थात् लहजा इत्यादि।

अनेक बार वैयाकरणों ने भाषा को व्याकरण के नियमों में बाँधने का प्रयत्न किया है, परन्तु भाषा का नियंत्रित रूप प्रयोग से दूर पड़ गया और व्यावहारिक भाषा आवश्यक परिवर्तन करती हुई गतिशील बनी रही। संस्कृत भाषा इसका ज्वलन्त उदाहरण है।

10. भाषा संयोगावस्था से वियोगावस्था की ओर जाती हैं 

पहले व्यक्तियों का विचार था कि भाषि वियोगावस्था से संयोगावस्था की ओर जाती हैं। कुछ व्यक्तियों का विचार था कि भाषा दोनों परिस्थितियों से होकर गुजरती हैं परन्तु अब दोनों ही विचारों में कोई तथ्य नहीं रह गया हैं। भाषा वस्तुतः संयोगावस्था से वियोगावस्था की ओर जाती हैं। वियोग से तात्पर्य हैं, 'विघटित होना', जैसे-- 'मोहनः खादिति' से 'मोहन खाता हैं' का हो जाना। अतः यह कहा जा सकता हैं कि संस्कृत से हिन्दी वियोगात्मक हो गयी हैं। 

11. भाषा का संबंध परम्परा से होता हैं 

भाषा की एक विशेषता यह भी हैं कि भाषा का संबंध परम्परा से होता है। यह एक पीढ़ी द्वारा ग्रहण की जाती हैं। इसके मूल रूप में थोड़ा-बहुत परिवर्तन तो कर सकते हैं लेकिन इसमें आमूल-चूल परिवर्तन या बिल्कुल नई भाषा का सृजन एक साथ नहीं कर सकते हैं।

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