व्यवस्थापिका या विधायिका के कार्य अथवा शक्तियाँ
vyavasthapika ke karya;विधायिका के कार्यों तथा भूमिका का विवेचन उस राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में किया जाना चाहिए जिसका वह अंग हैं। संसदीय प्रणाली में विधायिका की भूमिका उससे भिन्न होती हैं जो अध्यक्षीय प्रणाली में देखने को मिलती हैं। संसदीय प्रणाली में भी विधायिका की भूमिका तथा कार्यपालिका से उसके संबंध सर्वत्र एक से नहीं होते। ब्रिटेन में मंत्री विधायिका में से चुने जाते हैं, किन्तु नार्वें, फ्रांस तथा नीदरलैंड्स मे वे संसद के सदस्य नहीं हो सकते। इन देशों में यदि कोई मंत्री संसद का सदस्य होता भी है तो उसे मतदान का अधिकार नहीं होता। उसी प्रकार पश्चिमी यूरोप की संसदों में प्रश्नोत्तर-काल, कामरोका प्रस्ताव आदि की सुपरिचित संसदीय प्रथाएँ नही हैं। विधायिका के कार्य तथा भूमिका इस बात पर भी निर्भर होती हैं कि किसी देश में दल व्यवस्था, प्रतिनिधित्व प्रणाली आदि किस प्रकार की है। सोवियत संघ में साम्यवादी दल का आधिपत्य एक ऐसा तत्व हैं जिससे सर्वोच्च सोवियत संघ की भूमिका तथा शासन की व्यवस्था में उसका स्थान निर्धारित होता हैं।
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अतः व्यवस्थापिका की स्थिति, शक्तियाँ तथा कार्य सभी राजनीतिक व्यवस्थाओं में एक से नहीं होते। चित्रपट के एक छोर पर संयुक्त राज्य अमेरिका की कांग्रेस हैं और दूसरे छोर पर सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत। दूसरे शब्दों में, विधायिका की स्थिति, भूमिका तथा कार्य उस राजनीतिक व्यवस्था की प्रकृति से निर्धारित होते हैं जिसका वह अंग हैं।
अतः व्यवस्थापिका के कार्य सर्वत्र एक जैसे नहीं होते तथापि कुछ महत्वपूर्ण कार्य हैं जिन्हें प्रत्येक लोकतांत्रिक राज्य में व्यवस्थापिका को करना होता हैं। व्यवस्थापिका या विधायिका प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं--
1. विधि-निर्माण
राजनीतिक विज्ञान के छात्र को उसके विषय-प्रवेश के प्रथम वर्ष में ही यह बतला दिया जाता हैं कि विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका उन्हें लागू करती हैं और न्यापालिका उनकी व्याख्या (निर्वचन) करती हैं। इस दृष्टि से विधायिका विधि की निर्माणशाला हैं, वह लोकमत को कच्चा माल मानती हैं और उसे अधिनियमों, प्रस्तावों तथा सार्वजनिक नीतियों में परिवर्तित करती हैं।
लोकतंत्र में मे सभी कानून व्यवस्थापिका द्वारा ही बनाये जाते हैं। व्यवस्थापिका ही नये कानूनों का निर्माण करती हैं और पुराने कानूनो को वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप संशोधित भी करती हैं।
आज जनता अपनी राजनीतिक व्यवस्था से अधिकाधिक माँग करती हैं, जिसका अर्थ हैं कि विधायिका को जनता की आकाक्षांओं की पूर्ति के लिए अधिकाधिक कानून बनाने पड़ते हैं।
2. वित्तीय कार्य
मेडिसन ने कहा हैं कि", जिसके पास वित्तीय शक्ति होती हैं, उसी के पास वास्तविक शक्तियाँ होती हैं।" आज का युग ही अर्थ या धन का युग हैं। धनहीन व्यक्ति या संस्था शक्तिहीन होती हैं। शक्ति का स्त्रोत ही धन है। आज के प्रजातन्त्रीय शासन की एक मुख्य विशेषता यह है कि व्यवस्थापिका के निम्न सदन को यह अधिकार है कि उसकी स्वीकृति बिना कार्यपालिका धन व्यय नहीं कर सकती। आधुनिक व्यवस्थापिका राष्ट्रीय वित्त पर पूर्ण नियंत्रण रखती हैं। प्रति वर्ष भावी वर्ष के लिये व्यवस्थापिका में बजट प्रस्तुत किया जाता हैं। जब तक वह उसे स्वीकार न करे तो एक पैसा भी व्यय न हो सकेगा। नवीन करों को लगाना तथा पूराने करों को हटाना या उनमें संशोधन करना व्यवस्थापिका का ही कार्य हैं। वह सम्भूतियों (Supplies) को स्वीकृति देती है। निम्न सदन को वित्तीय शक्तियाँ अपेक्षाकृत अधिक मिली हैं। वित्त-विधेयक (Finance bill) सर्वप्रथम निम्न सदन में ही रखा जाता हैं। वित्तीय शक्ति के आधार पर ही व्यवस्थापिका कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती हैं। यह नियंत्रण सार्वजनिक लेखा समिति, लेखा परीक्षा, जाँच पड़ताल आदि के माध्यम से रखती हैं।
3. विमर्शात्मक कार्य
व्यवस्थापिका विचार-विनिमय संबंधी महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित करती हैं। विधि-निर्माण और विचार-विमर्श दोनों कार्य साथ-साथ चलते हैं। कानून तभी लोकप्रिय हो सकता है जब वह बड़ी सूझ-बूझ के साथ बनाया जाये। उसके लिए संबंधित विषय पर पर्याप्त विचार-विमर्श होना आवश्यक हैं। एतदर्थ, व्यवस्थापिका को बहुत-सी समितियों में बाँट दिया जाता है ताकि गम्भीरता और बारीकी से विचार हो सके।"
कुछ लोगों का कहना है कि व्यवस्थापिका सभा साँपों की महफिल है जहाँ जीभों की लपालपी चलती हैं। काम कम, बातें बहुत अधिक होती है। चूँकि व्यवस्थापिका में अनेक स्वार्थों, अनेक विचारधारा, अनेक दलों के लोग रहते हैं अतः विचार-विमर्श और वाद-विवाद में बहुत-सा समय नष्ट हो जाता है। इतना ही नहीं सार्वजनिक मामलों के विषयों के अतिरिक्त राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय नीति के विषय में भी सरकार व्यवस्थापिका का अनुमोदन चाहती हैं, अतः इन विषयों पर भी खूब वाद-विवाद चलता हैं। गिलक्राइस्ट का कहना हैं कि," संसद राष्ट्र का एक प्रतीकात्मक संग्रह होने के कारण उसके केंद्रीय विचारों को व्यक्त करती है जो उचित भाषा में अभिव्यक्त होकर तथा पारित होकर कानून बन सकते है। इस प्रकार संसद विचार एवं विधि-निर्माण का दोहरा कर्तव्य पूरा करती हैं।"
4. प्रशासनिक कार्य
व्यवस्थापिका का प्रशासन पर महत्वपूर्ण नियंत्रण रहता है। जिन देशों में संसदात्मक शासन प्रणाली प्रणाली प्रचलित है वहाँ व्यवस्थापिका कार्यपालिका के कार्यों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण रखती हैं, क्योंकि मंत्रिमंडल व्यवस्थापिका के सदस्यों में से चुना जाता है और वह उसके प्रति उत्तरदायी होता हैं। संसदीय शासन-प्रणाली में व्यवस्थापिका प्रस्तावों, प्रश्नों और काम रोको प्रस्तावों द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती हैं। कार्यपालिका का जीवन व्यवस्थापिका के विश्वास पर निर्भर करता हैं। इंग्लैंड, भारत आदि देशों में यही व्यवस्था हैं। अध्यक्षात्मक शासन-प्रणाली में व्यवस्थापिका का नियंत्रण किसी न किसी रूप में कार्यपालिका पर बना रहता है। अमेरिका के राष्ट्रपति द्वारा की गई उच्च-वर्गीय नियुक्तियों को स्वीकृति प्रदान कर तथा संधि-पत्रों को स्वीकृति देकर व्यवस्थापिका पर अंकुश रखती हैं। साथ ही महाभियोग का आमोघ अस्त्र व्यवस्थापिका के ही पास हैं। व्यवस्थापिका का उच्च सदन सीनेट एक प्रमुख जाँच निकाय का कार्य करती हैं। सौल्टाऊ ने ठीक ही लिखा हैं कि," संसद अन्ततोगत्वा सर्वोच्च होती हैं तथा उसका अधिकार राज्य की गतिविधियों के प्रत्येक विभाग तक फैला रहता हैं।"
5. न्यायिक कार्य
न्यायिक कार्य के लिये अलग से सरकार का एक अंग हैं जिसे न्यायपालिका करते हैं। फिर भी व्यवस्थापिका के जुम्मे कुछ न्यायिक कार्य भी होते हैं। उदाहरणार्थ, इंग्लैंड में सर्वोच्च न्यायालय का कार्य उच्चसदन की एक समिति (प्रिवी कौंसिल) करती हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में भी उच्च सदन (सीनेट) राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति पर अनुशासन भंग करने पर, एक न्यायालय के रूप में बैठती हैं और प्रतिनिधि सभा महाभियोग का आरोप लगाती हैं। भारत में भी राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने की व्यवस्था संविधान में दी गई हैं। महाभियोग का प्रस्ताव किसी भी सदन द्वारा पास हो सकता है पर द्वितीय सदन उसकी जाँच करता हैं। महाभियोग के लिये विशेष बहुमत की आवश्यकता पड़ती हैं।
6. निर्वाचन संबंधी कार्य
व्यवस्थापिका कुछ निर्वाचन संबंधी कार्य भी करती हैं। उदाहरणार्थ भारत की व्यवस्थापिका राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति का चुनाव करती हैं। राष्ट्रपति के निर्वाचन में राज्यों की व्यवस्थापिकायें भी भाग लेती हैं। स्विट्जरलैंड की संसद मंत्रिपरिषद्, न्यायाधीशों तथा प्रधान सेनापति का चुनाव करती है। अमेरिका की कांग्रेस भी अपने निर्वाचकों, निर्वाचन-विवरणों और सदस्यों की निर्वाचन संबंधी योग्यता का निर्णय करती हैं।
7. संविधानी कार्य
विधायिका ही शासन का एकमात्र अंग है जिसे देश के संविधान को संशोधित करने का अधिकार होता हैं, यद्यपि इस विषय में विधायिका की शक्ति की सीमा तथा उसके प्रयोग की पद्धित देश के संविधान द्वारा ही निर्धारित कर दी जाती हैं। भारत में संविधान के कुछ प्रावधानों का संशोधन संसद अपने साधारण बहुमत द्वारा कर सकती हैं, जैसा कि साधारण विधान के संबंध मे होता हैं, कुछ प्रावधान ऐसे हैं जिनके संशोधन के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है, कुछ भाग ऐसे है जिनका संशोधन करने के लिए संसद के दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ बहुसंख्यक राज्यों का समर्थन आवश्यक होता हैं।
उदाहरणा के लिए, सप्तम अनुसूची जिसमें विषयों की सूचियाँ दी हुई हैं, कार्यपालिका की शक्तियों से संबंधित सामान्य नियम राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया इत्यादि। इससे स्पष्ट है कि संसद का संविधान के संशोधन की प्रक्रिया के साथ सीधा तथा घनिष्ठ संबंध है यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार वह 'संविधान की बुनियादी संरचना' में परिवर्तन नहीं कर सकती। संयुक्त राज्य में कांग्रेस संविधान के संशोधन के विषय में अभिक्रम (पहल) करती हैं, और जब वह दो-तिहाई बहुमत से पारित हो जाता है तो उसके लिए तीन-चौथाई राज्यों का अनुसमर्थन आवश्यक होता हैं। ब्रिटेन में, जैसा कि लिखित संविधान नही हैं, संसद साधारण विधान के द्वारा संविधान की पुनर्रचना कर सकती हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि विधायिका की संविधान के संशोधन में प्रमुख भूमिका होती हैं।
8. कार्यपालिका पर नियंत्रण
विधायिका कार्यपालिका पर नियंत्रण करती हैं। संसदीय शासन वाले देशों में तो कार्यपालिका पूरी तरह विधायिका पर निर्भर होती है। कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है। विधायिका कभी भी अविश्वास का प्रस्ताव पारित करके मंत्रिमंडल को भंग कर सकती हैं। अध्यक्षीय शासन-प्रणाली में कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं रहती। किन्तु विभिन्न उपायों द्वारा कार्यपालिका पर व्यवस्थापिका का नियंत्रण रहता हैं। उदाहरणार्थ, अमेरीकी सीनेट राष्ट्रपति पर नियुक्तियों के मामलों में प्रभावकारी नियंत्रण रखती हैं, राष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता हैं तथा सीनेट मंत्रियों के भ्रष्ट आचरण की जाँच कर सकती हैं।
9. अन्य कार्य
व्यवस्थापिका में जन प्रतिनिधि होते है। वे जनता की शिकायतें व्यवस्थापिका में प्रस्तुत करते हैं। स्थानीय एवं राष्ट्रीय समस्याओं पर वहाँ विचार होता हैं। इन सभी कार्यवाहियों का प्रकाशन समाचार-पत्रों में किया जाता हैं। इस प्रकार लोकमत तैयार करने, लोकमत प्रकट करने का व्यवस्थापिका एक साधन हैं। कानून के अतिरिक्त वह राजनीतिक शिक्षा, प्रसार कार्य, विभिन्न मतों, विचारों व मतभेदों का एकीकरण भी करती हैं। व्यवस्थानिका द्वारा शिक्षा देने एवं चेतना जागृत करने का यह कार्य वर्तमान युग में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। वास्तव में प्रजातंत्र का भविष्य बहुत कुछ इसी पर निर्भर करता हैं।
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