1/31/2022

दबाव समूह का अर्थ, परिभाषा, साधन, प्रकार/वर्गीकरण

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दबाव समूह का अर्थ एवं परिभाषा (dabav samuh kya hai)

dabav samuh arth paribhasha sadhan prakar;सामान्य शब्दों में कहें तो दबाव समूह विशेष हितों के साथ जुड़े ऐसे संगठन होते हैं जो अपने समूह के हितों की रक्षा के लिए नीति निर्माताओं पर दबाव बनाते हैं। 

ओडीगार्ड के मतानुसार," दबाव समूह ऐसे लोगों का औपचारिक संगठन है जिनके एक अथवा अधिक सामान्य उद्देश्य या स्वार्थ होते है और जो विविध प्रकार से घटना-क्रम, सार्वजनिक नीति-निर्माण और शासन को इसलिए प्रभावित करने का प्रयास करते हैं कि वे अपने हितों की रक्षा और वृद्धि कर सकें। 

वी. ओ. की. के शब्दों मे," दबाव समूह वे निजी संघ हैं जो सार्वजनिक नीतियों को प्रभावित करने के लिए बनते हैं।"

ओटी गार्ड के शब्दों में," दबाव समूह ऐसे व्यक्तियों का औपचारिक संगठन है जिनके एक या अनेक सामान्य उद्देश्य अथवा स्वार्थ होते हैं जो घटनाओं के क्रम को विशेष रूप से सार्वजनिक नीति के निर्माण और शासन को अपने हितों की रक्षा एवं वृद्धि के लिये प्रभावित करते हैं।"

आधुनिक राजनीतिक प्रक्रिया में दबाव, हित एवं संगठित समूहों तथा उनकी तकनीकों के अध्ययन का विशिष्ट महत्व हैं। इस अध्ययन से उन अन्तर्निहित शक्तियों और प्रक्रियाओं पर प्रकाश पड़ता है जिनके माध्यम से संगठित समाजों में विशेषकर लोकतंत्रिक समाजों में राजनीतिक शक्ति का संचालन और प्रयोग होता है। लेकिन इसका अभिप्राय यह नही है कि सर्वधिकारवादी व्यवस्था में दबाव हित-समूहों का अस्तित्व नही होता। अंतर यही है कि जहाँ लोकतंत्रिक समाजों मे ये समूह राजनीतिक क्रियाशीलता के लिए स्वस्थ तत्व माने जाते है और अपने निहित स्वार्थों की रक्षा के लिए ये समूह अपने-अपने ढंग से सक्रिय रहते हैं, वहाँ सर्वाधिकारवाद अथवा साम्यवादी समाजों में ये समूह अपना स्वतंत्र महत्व नहीं रखते वरन् उनकी स्थिति राज्य के केवल ऐसे साधनों के रूप में होती हैं जिनका उद्देश्य राज्य द्वारा निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक होना होता हैं।

दबाव समूह के उदय के कारण  (dabav samuh ke uday ke karan)

दबाव समूह के उदय के प्रमुख कारण निम्नलिखित है-- 

1. राज्य के कार्यों में वृद्धि होने से शासन के अतिरिक्त सामाजिक, आर्थिक कार्य भी राज्य करने लगा। अपने वर्ग अथवा समूह हित के लिये कानून बनवाने के लिए लोग संगठित हुए। 

2. औद्योगित क्रान्ति ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया। वे अपने हितों के लिये संगठित प्रयास करने लगे। 

3. विभिन्न वर्गों की बढ़ती आकांक्षा एवं जागरूकता उन्हें समान हित के आधार पर संगठित करता हैं।

4. प्रादेशिक निर्वाचन प्रणाली या प्रादेशिक प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त जो क्षेत्र के आधार पर प्रतिनिधित्व देता है जिसमें आर्थिक समूह, सामाजिक, सांस्कृतिक समूहों का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता। अतः वे अपने हितों के लिये संगठित होते हैं। 

5 .बढ़ती महत्वाकांक्षा भी अनेक दबाव समूहों का निर्माण करवाती है। राजनीति में सक्रिय होने की लालसा में कुछ लोग दबाव समूह का गठन करते हैं।

दबाव समूह के साधन (dabav samuh ke sadhan)

आज दुनिया में लाखों दबाव समूह कार्यरत हैं। इन सबके अपने उद्देश्य एवं कार्य करने के तरीके हैं। दबाव समूहों के साधन एवं उद्देश्य को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं रहा। कुछ विद्वान इनमें अनेक बुराइयाँ देखते हैं तथा लोकतन्त्र भ्रष्ट करने का माध्यम मानते हैं। वहीं कुछ विद्वान इसे उचित, राजनीतिक प्रक्रिया में उत्पन्न रिक्तता को भरने का माध्यम मानते हैं अमेरिका एवं ब्रिटेन के दबाव समूहों के प्रति नजरियों में भी अन्तर है। जहां अमेरिका में इन्हें भ्रष्टता के गढ़ के रूप में देखा जाता है वहीं ब्रिटेन में यह लोकतन्त्र के अनिवार्य हिस्से के रूप में देखे जाते हैं। दबाव समूहों द्वारा अपनाये जाने वाले साधन इस निम्नलिखित है-- 

1. संगठन निर्माण 

दुनिया में दो तरह से दबाव समूह दिखायी पड़ते हैं। कुछ दबाव समूह पूर्णतः संगठित होते हैं। वे पद-सोपान के क्रम में संगठित होते हैं। संगठन बनाकर वह कार्य विभाजन करते हैं । इस तरह वह उत्तरदायित्व तय कर अपने उद्देश्यों को पाने का प्रयास करते हैं। 

2. लॉबीग

दबाव समूह का यह महत्वपूर्ण साधन है। अमेरिका में यह तरीका बहुत लोकप्रिय है। इस में दबाव समूह के सदस्य विधायिका के सदस्यों से सीधा सम्बन्ध स्थापित कर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। इस उद्देश्य के लिये विभिन्न दबाव समूह विशेष प्रतिनिधि नियुक्त करते हैं। दबाव समूह द्वारा प्रयोग में लाया जा रहा प्रमुख साधन है। 

3. सामूहिक प्रचार

सामूसिक प्रचार दबाव समूह द्वारा प्रयोग में लाया जा रहा प्रमुख साधन है। वे अपने उद्देश्यों, लक्ष्यों का व्यापक प्रचार करते हैं। वे विभिन्न प्रचार एजेन्सियों के माध्यम से अपनी मांगों को सरकार तक पहुँचाते हैं तथा उन्हें वैध ठहराते हैं। वह सुनियोजित ढंग से व्यापक प्रचार अभियान द्वारा सरकार पर दबाव बनाते हैं। इस साधन के द्वारा सरकार पर दबाव बना अपना हित साधते हैं। 

4. पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन  

दबाव समूह का यह महत्वपूर्ण साधन है। इसमें विभिन्न समूह विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन करते हैं वे अपनी मांगों का ने केवल प्रचार करते हैं। वरन् उनको सही भी ठहराते हैं। इन पत्र-पत्रिकाओं का प्रसार दूर-दूर तक किया जाता है। इससे दबाव समूह को अनेक लाभ होते हैं। उन्हें प्रचार, वैधता तो मिलती ही साथ ही अनेक नये सदस्य भी मिलते हैं जिससे इनकी सदस्य संख्या बढ़ती है। 

5. जनता से सीधा सम्पर्क

दबाव समूह के पास सदस्यता होती है। वे सीधे जनता से सम्पर्क करते हैं। वे जनता के बीच जाकर अपनी मांगों का प्रचार करते हैं। साथ ही जनसमर्थन भी प्राप्त करते हैं। उनको प्राप्त जनसमर्थन ही उनकी शक्ति होती है जिसके माध्यम से भी वह अपनी मांगों को पूरा करवाते हैं। 

6. विभिन्न राजनीतिक दलों से परोक्ष सम्बन्ध 

दबाव समूह सीधे चुनाव में भाग नहीं लेते परन्तु वे विभिन्न राजनीतिक दलों से परोक्ष सम्बन्ध रखते हैं। वे उनको विधायिका में पहुँचाकर अपने हितों की पूर्ति करवाते हैं। भारत में भारतीय राष्ट्रीय श्रमिक संघ; प्ण्छण्ज्ण्ण्द्ध साम्यवादी दलों से, भारतीय मजदूर संघ (भारतीय जनता पार्टी से) जुड़ा हुआ है। 

7. हड़ताल एवं धरना प्रदर्शन  

दबाव समूह सरकार एवं विधि निर्माताओं पर दबाव बनाने के लिये हड़ताल एवं धरना प्रदर्शन करते हैं। इसके माध्यम से वह अपने साथ उपस्थित संख्या बल प्रदर्शित करते हैं। वे इसके माध्यम से सरकार का ध्यान आकृष्ट कर अपनी मांगों को मनवाने का प्रयास करते हैं। 

8. न्यायालय की मदद 

दबाव समूह अपने हितों के लिये विभिन्न उपक्रम करते हैं। परन्तु कई बार ऐसे कानून बन जाते हैं जो उनके हितों के विरूद्ध होता है तो वे न्यायालय की शरण में जाकर उन कानूनों का रद्द कराना चाहते हैं। वे कई बार किसी मामले में सार्वजनिक हित का हवाला देकर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका; भी करते हैं। अतः दबाव समूह न्यायालय की मदद भी लेते हैं ।

9. गोष्ठियों एवं सभाओं का आयोजन 

वे समय-समय पर जनजागरण बढ़ाने के लिये गोष्ठियों एवं सभाओं का आयोजन करते हैं। ये गोष्ठियों एवं सभाओं का आयोजन सूचनाओं के आदान-प्रदान का महत्वपूर्ण माध्यम है। वे इन सभाओं, गोष्ठियों में विधि निर्माताओं एवं प्रभावशाली व्यक्तियों का आमन्त्रित करते हैं। वे इससे अपने मतों को प्रभावशाली ढंग से रखते हैं तथा अधिकारियों एवं नीतिनिर्माताओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास करते हैं। 

10. अनैतिक माध्यमों का उपयोग 

दबाव समूह कई बार हित साधने के लिये अनैतिक साधनों का भी प्रयोग करते हैं। वे असंवैधानिक साधनों का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकते हैं। कतिपय यही कारण है कि दबाव समूह की व्यापक आलोचना भी की जाती है।

दबाव समूह के प्रकार अथवा वर्गीकरण (dabav samuh ke prakar)

दबाव समूह छोटे-बड़े, स्थायी-अस्थायी आदि कई रूपों में पाये जाते हैं। विद्वानों ने इन्हें कई वर्गों में विभाजित किया हैं। 

फैड्रिक के मतानुसार दबाव समूह दो प्रकार के होते हैं--

1. सामान्य हित समूह एवं

2. विशिष्ट हित समूह। 

प्रो. एलमण्ड एक राजनीतिक ढाँचे में दो तत्वों के आधार पर दबाव समूहों का वर्गीकरण करता हैं-- 

1. किस प्रकार का दबाव समूह किसी  हित को मूर्त रूप दे रहा हैं एवं

2. वह संपर्क रेखा जिसके जिरिये दबाव समूह अपना हित संचालित करता हैं। 

इसी प्रकार प्रो. एलमण्ड ने दबाव समूह के चार प्रकार माने हैं-- 

1. संस्थागत हित समूह 

इस प्रकार के समूहों में एलमण्ड उन समूहों को रखते है जो किसी राजनीतिक दल के अंदर 'समूह' के रूप मे कार्य करते है। यह नौकरशाही एवं सेना तक में आन्तरिक समूह के रूप मे रहते है। संस्थागत हित समूहों का, चाहे वे सरकारी और गैर-सरकारी हो, संगठन मजबूत और प्रभावशाली रहता हैं। 

2. चमत्कारिक हित समूह 

वे हित समूह समाज में उत्पन्न होते है पर वे राजनीतिक व्यवस्था में अनायास प्रवेश करने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। यह प्रवेश चमत्कारी व्यवहार (Anomic behaviour) द्वारा होता हैं अर्थात् यह चमत्कार बड़े प्रदर्शनों द्वारा, जुलूसों द्वारा या दंगों द्वारा प्रकट होता हैं। यह चमत्कार तभी होता है जब कोई संगठित समूह राजनीतिक व्यवस्था मे नही रहने दिया जाता है या ये समाज द्वारा बड़ी मात्रा में निर्वाचित प्रतिनिधियों के रूप में विधानमंडलों में नही पहुँच पाते है और अपने हितों के लिए आशंकित हो उठते हैं। फ्रांस, इटली, अरब देशों एवं लेनिन अमेरिका में ये दबाव समूह अधिक प्रभावशाली हैं।

3. गैर-संघीय या गैर-समुदायात्मक समूह 

यह समूह वर्ग रक्त संबंध, धर्म अथवा मेल-मिलाप या संचार के किसी अन्य परम्परागत धरातल पर आधारित होते हैं। धार्मिक संगठन, जाति, संगठन, चर्च आदि इसी प्रकार के गैर सामुदायात्मक या परम्परावादी हित समूह होते हैं। ये समूह विशिष्ट व्यक्तियों, धार्मिक नेताओं, पारिवारिक सदस्यों आदि द्वारा असंगठित और अनौपचारिक रूप से अपने हितों की पूर्ति का प्रयास करता हैं। 

3. संघीय या समुदायात्मक समूह

ये समूह औपचारिक रूप से संगठित होते हैं। इनका उद्देश्य विशेष व्यक्तियों का हित साधन करना होता हैं। इनके उदाहरण हैं ट्रेड यूनियन, व्यवसायिक संघ आदि। इनका संगठन लगातार प्रयत्नशील होता हैं। हितों को मूर्त रूप देने के लिए ये विशिष्ट प्रक्रिया अपनाते हैं और इस प्रकार का कार्य करने के तरीकों को राजनीतिक व्यवस्था में स्वीकृत अथवा वैध रूप प्राप्त होता हैं। 

अन्य 

अन्य प्रकार के भी कुछ समूह होते है जैसे भारत में ट्रेड यूनियन काँग्रेस, चेम्बर ऑफ कामर्स, किसान सभा आदि आर्थिक समूह में शिक्षक संघ, डाॅक्टरों, वकीलों एवं छात्रों के संघ आदि नही आते हैं। कुछ हित समूह स्थानीय, प्रान्तीय, राष्ट्रीय सरकार के स्तरों पर बने होते हैं।

ब्लौण्डल का वर्गीकरण 

जीन ब्लोण्डल ने दबाव-समूहों का वर्गीकरण उनके निर्माण के प्रेरक तत्वों के आधार पर किया है। जिन समूहों की स्थापना के मूल में व्यक्तियों के सामाजिक संबंध होते हैं, उन्हें सामुदायिक समूह (Communal Groups) की संज्ञा दी है और जिन समूहों की स्थापना के पीछे किसी विशिष्ट लक्ष्य की प्रेरणा हो उन्हें संघात्मक या साहचर्य समूह (Associational Groups) कहा गया हैं। सामुदायिक समूहों को पुनः दो प्रकारों में विभक्त किया गया हैं-- रूढ़िगत अर्थात् प्रथागत (Customary) एवं संस्थात्मक (Institutional)। इसी प्रकार संघात्मक या साहचर्य समूहों को भी दो भागों में बाँटा गया हैं-- संरक्षणात्मी (Protective) तथा उत्थानात्मक समूह। 

(अ) सामुदायिक समूह (Communal Groups)

इन समूहों का निर्माण ही सामाजिक संबंधों के कारण होता हैं। साथ-साथ रहने से सामाजिक संबंध, सामान्य दृष्टिकोण और एक-दूसरे के प्रति लगाव उत्पन्न होता है जिसके फलस्‍वरूप सामुदायिक एकता की भावना विकसित होती हैं। इस सामुदायिक एकता के कारण कालान्तर में लोग स्वयमेव इस प्रकार के समूहों के बंधनों में बँध जाते हैं जिनके सदस्य एक-दूसरे के सुख-दुःख में हाथ बँटाते हैं। अनेक सामुदायिक समूहों का संगठन अनौपचारिक होता है, किन्तु बहुत से औपचारिक रूप से भी संगठित होते है। संगठन अनौपचारिक हों या औपचारिक दोनों ही प्रकार के सामुदायिक समूह अपने सामुदायिक हितों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और इस प्रक्रिया में आन्तरिक व्यवस्था तथा बाहरी तत्वों से अपनी सुरक्षा कायम रखते है। ये समूह शासन से अपेक्षा करते हैं कि वह उनके संरक्षण और उनकी उन्नति के प्रति सचेष्ट रहेगा। सामुदायिक समूहों में हम जातियों, प्रजातियों, पड़ोस आदि को ले सकते है। भारत जातिगत समूहों की दृष्टि से 'धनी' हैं। 

1. रूढ़िगत या प्रथागत समूह (Customary Groups) 

जिन समूहों के सदस्यों के पारस्परिक व्यवहार में और उनकी कार्य-प्रणाली में सामाजिक रीति-रिवाजों की प्रधानता होती हैं उन्हें प्रथागत या रूढ़िगत कहा जाता है। जातियों, प्रजातियों आदि के सामुदायिक समूह प्रथागत समूहो के अच्छे उदाहरण हैं। मानव-समाज के विकास की प्रारंभिक स्थिति में इन समूहों की बहुलता होती हैं। किन्तु ज्यों-ज्यों समाज का विकास होता जाता हैं, इन समूहों का महत्व भी घटता जाता है। भारत में प्रथागत समूहों का जो स्थान और आधिक्य हैं वह पाश्चात्य औद्योगिक देशों में नही हैं, यद्यपि वहाँ भी धर्म और प्रजातीय समूह न केवल पाए जाते हैं बल्कि काफी सक्रिय भी हैं। 

2. संस्थात्मक समूह (Institutional Groups

कुछ संस्थाओं के सदस्य प्रायः साथ-साथ रहते है और कालांतर मे उनमें सामाजिक संबंधों के साथ-साथ रागात्मक संबंध भी विकसित हो जाते हैं। ये समूह अपने सदस्यों के सामान्य हितों की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील रहते है। ब्लौण्डल ने इस प्रकार सामुदायिक समूहों को 'संस्थात्मक समूह' की संज्ञा दी हैं। सैनिक कल्याण परिषदें, कर्मचारी संरक्षण परिषदें, वृद्ध-जन-कल्याण समितियों आदि के रूप में जो समूह पाए जाते हैं उन्हें संस्थात्मक समूहों की श्रेणी में ही रखा जाता हैं। 

(ब) संघात्मक या साहचर्य समूह (Associational Groups) 

ये वे समूह है जो विशिष्ट लक्ष्यों की पूर्ति के लिए स्थापित किए जाते है। ब्लौण्डल की व्याख्यानुसार इन समूहों का एक न्यूनाधिक निश्चित लक्ष्य होता हैं जिसके माध्यम से राजनीतिक व्यवस्था में समाज की माँगों का प्रवेश होता हैं। समाज में माँगों की दशा का निर्धारण किसी माँग के बारे में समूह-विशेष के दृष्टिकोण से ही हो पाता हैं। यह बहुत संभव हैं कि कुछ माँगों का निर्माण एक दिशा में हो और विपरीत माँगों को कुचल दिया जाए।  संघात्मक समूह वस्तुतः माँगों के साथ चलते है और औद्योगिक विकास के साथ-साथ इनकी संख्या तेजी से बढ़ती हैं। 

1. संरक्षणात्मक समूह (Protective  Groups) 

ये संघात्मक समूहों का एक भेद हैं जिनका लक्ष्य विशिष्ट होते हुए भी प्रायः व्यापक और सामान्य होता हैं। ये समूह अपने सदस्यो के सामान्य हितों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। विभिन्न व्यावसायिक संगठनों, श्रमिक संघों व्यापार-संघों आदि को संरक्षणात्मक समूह की श्रेणी में ही गिना जाता है। संरक्षणात्मक समूहों में श्रमिक संघ (Labour Unions) सर्वाधिक सामान्य प्रकृति के होते हैं क्योंकि ये न केवल स्थानीय श्रमिकों के लिए सेवा-शर्तों की सुविधाएँ प्राप्त करने को प्रयत्नशील रहते हैं, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी श्रमिक-हितों की रक्षा के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। 

2. उत्थानात्मक समूह (Promotional Group)

जब किसी विशेष विचार अथवा दृष्टिकोण के प्रचार और उस दृष्टि से समाज को उन्नत बनाने का लक्ष्य लेकर किन्हीं समूहों का निर्माण किया जाता हैं तो उन्हें उत्थानात्मक समूह कहते हैं। गौ-संरक्षण, नारी-स्वातन्त्र, निःशस्त्रीकरण, सार्वभौमिक मताधिकार आदि के लिए जिन समूहों का निर्माण होता हैं उनको उत्थानात्मक समूहों की श्रेणी में ही रखा जाता हैं। संरक्षणात्मक संघों की तुलना में कहीं अधिक विशिष्ट लक्ष्यों की पूर्ति हेतु इन समूहों का निर्माण किया जाता हैं।

दबाव समूहों की आलोचना या दोष 

राजनीतिक प्रणाली में दबाव समूह कि बड़ा उपयोग होता है। दबाव समूह राजनीतिक प्रणाली को अनेक प्रकार से सहायता देते हैं। वे अनेक प्रकार के पक्ष रखकर शासन को उनके विषय मे पूरी जानकारी देते है। लोकतन्त्रात्मक शासन में दबाव समूह सरकार के सहयोगी होते है। सरकार और समाज में सन्तुलन बनाये रखने के लिए दबाव समूह कड़ी का काम करते हैं। चुनावों के समय राजनीतिक दल सक्रिय रहते हैं पर चुनावों के बाद चहल-पहल समाप्त हो जाती हैं। इस सक्रियता शून्य की पूर्ति दबाव समूह ही करते हैं। 

दबाव यद्यपि अनेक लाभ और महत्व रखते है पर उनमें गम्भीर दोष भी होते है। इन दोषों को दूर किये बिना प्रजातन्त्रीय व्यवस्था स्वस्थ्य नहीं कही जा सकती हैं। दबाव समूह के विपक्ष में दिये जाने वाले तर्क निम्नलिखित हैं-- 

1. दबाव समूहों के एजेंट लाबी में चक्कर काटते रहते है। वे विधायकों एवं संसद सदस्यों को अनेक प्रकार से प्रभावित करते हैं। किसी विधेयक को जो उनके विरूद्ध होता हैं, उसके पास कराने में वे अड़चन डाला करते हैं। दबाव समूह के एजेंट रिश्वत, सुरा-सुन्दरी तथा अन्य सुविधायें देकर विधायकों एवं मन्त्रियों को पद भ्रष्ट करने में लगे रहते हैं। यदि उनका हित नही सधता तो वे झूठा बदनाम करने से भी बाज नही आते हैं। राजनीति को गंदा करना इनका मुख्य कार्य हैं। 

2. दबाव समूह अनेक बार उपयोगी एवं बहुसंख्यक जनता के हित संबंधी विधेयकों को पास होने से रोक देते हैं। वे सदैव चिन्ता में लगे रहते हैं कि केवल ऐसे विधेयक पास करायें जो विशिष्ट वर्गों के हितों से संबंधित हों। यह बात लोकतंत्र के विरूद्ध होती हैं। 

3. दबाव समूह राजनीतिक दलों की क्षमता पर भी प्रहार करता हैं। फाईनर का मत है कि राजनीतिक दल जहाँ कमजोर होते हैं, वहाँ दबाव समूह शक्तिशाली हो जाते हैं। राष्ट्रीय हितों की वहाँ उपेक्षा प्रारंभ हो जाती हैं तथा विशिष्ट हितों की पूर्ति होती हैं। 

4. दबाव समूहों की शक्ति जब बढ़ने लगती है और राजनीतिक दल कमजोर हो जाते हैं तो विशिष्ट हितों में परस्पर संघर्ष छिड़ जाता हैं, सामाजिक एकता को खतरा पैदा हो जाता हैं और अनैतिकता एवं भ्रष्टाचार का बोलबालि हो जाता हैं। 

5. दबाव समूह प्रशासन को भ्रष्ट करने में लगे रहते हैं जिससे प्रशासन में न्याय, ईमानदारी और कर्त्तव्य परायणता का वातावरण कुलुषित हो जाता हैं। जो अधिकारी ईमानदारी दिखाता हैं, वही बदनाम कर दिया जाता हैं और भारत के गृहमंत्री श्री नन्दा के समान उनका राजनीतिक जीवन ही समाप्त कर दिया जाता हैं।

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