2/12/2022

अधिकार का अर्थ, परिभाषा, प्रकार/वर्गीकरण, सिद्धांत

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प्रश्न; अधिकार से आप क्या समझते हैं? अधिकार संबंधी विभिन्न सिद्धांतों का विभिन्न कीजिए। 
अथवा" अधिकार का अर्थ स्पष्ट कीजिए और इसके प्रमुख सिद्धान्तों की संक्षिप्त विवेचना कीजिए। 
अथवा" अधिकार क्या हैं? अधिकारों के प्रकारों का वर्णन कीजिए। 
उत्तर--
abhikar arth paribhasha prakar;व्यापक स्तर पर अधिकार उन 'अवसरों का समूह' को कहा जा सकता है जो मानव व्यक्तिगत की संवृद्धता को सुरक्षित करते हैं। अधिकार एक बेहतरीन जीवन जीने के लिए वह मौलिक शर्तें हैं जिन्हें राज्य द्वारा मान्यता या स्वीकृत दी जाती हैं।

अधिकार का अर्थ (adhikar kya hai)

अधिकारों का व्यक्ति के जीवन मे बहुत बड़ा स्थान है, क्योंकि अधिकारों के अभाव मे व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास सम्भव नही है। मानव के पूर्ण विकास के लिए स्वतंत्रता आवश्यक है तथा स्वतंत्रता का महत्व तभी है, जब मनुष्य उसका उपयोग कर सके एवं राज्य और समाज उसे मान्यता दें। जब स्वतंत्रता को राज्य की मान्यता मिल जाती है, तो वह अधिकार बन जाती है। पर इसका यह अर्थ नही है कि अधिकारों की उत्पत्ति राज्य द्वारा होती है। वे तो समाज मे पैदा होते है, राज्य तो सिर्फ उन्हें मान्यता प्रदान करता है। 

अधिकार की परिभाषा (adhikar ki paribhasha)

लाॅस्की के अनुसार " अधिकार मानव जीवन की वे परिस्थितियां है, जिनके बिना सामान्यतः कोई व्यक्ति अपना पूर्ण विकास नही कर सकता। 

बार्कर के अनुसार " अधिकार न्याय की उस सामान्य व्यवस्था का परिणाम है जिस पर राज्य और उसके कानून आधारित है।

जी.डी. रिची के अनुसार " नैतिक अधिकार एक व्यक्ति की ओर से दूसरे के प्रति ऐसे दावे है जिन्हें समाज ने मान्यता दे दी हो। जब राज्य इन दावों को कानूनी मान्यता दे देता है तब वे कानूनी अधिकार बन जाते है।

बोसांक के अनुसार " अधिकार समाज द्वारा स्वीकृत और राज्य द्वारा क्रियान्वित एक माँग है।

गार्नर के अनुसार " अधिकार वे शक्तियाँ है जो नैतिक प्राणी होने के नाते मनुष्य के कार्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक है।" 

बाइल्ड के अनुसार " कुछ विशेष कार्यों को करने की स्वतंत्रता की विवेकपूर्ण मांग को अधिकार कहते है।

उपरोक्त परिभाषाओं की विवेचना करने पर कुछ बातें स्पष्ट होती है। कि सभी विद्वान यह मानते है कि अधिकार मूलतः व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास मे सहायक है। अधिकार व्यक्ति के वे दावे है जिन्हें समाज और राष्ट्र स्वीकार करता है। अधिकार व्यक्ति की विवेकपूर्ण मांग है। अधिकारों का आधार स्वार्थ नही है। प्रत्येक अधिकार के साथ कर्तव्य भी जुड़ा रहता है क्योंकि आप स्वयं के लिए जो चाहते है, अन्यों को भी आपको वह देना होता है। इस रूप मे अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू माने जाते है। अधिकारों को राज्य द्वारा संरक्षण प्राप्त होता है, राज्य ही अधिकारों के उपयोग की सम्यक परिस्थितियों को निर्मित करता है। 

अधिकारों के प्रकार या वर्गीकरण (adhikar ke prakar)

साधारणतः अधिकारों को दो वर्गों मे विभाजित किया जाता है--

1. नैतिक अधिकार 

ये वे अधिकार है जिनका सम्बन्ध मनुष्य के नैतिक विकास से है। ये मनुष्यों को नैतिक बनाये रखने के लिए जरूरी है। यह आवश्यक नही की इन अधिकारों को राज्य का संरक्षण प्राप्त हो। इनसे समाज का स्वरूप उन्नत व श्रेष्ठ बनता है।

2. कानूनी अधिकार 

ये वे अधिकार है जिन्हें राज्य कानूनी रूप से व्यक्तियों को प्राप्त या उपलब्ध कराता है। लीकाॅक के शब्दों में, " ये एक नागरिक को दूसरे नागरिकों के विरूद्ध प्राप्त होते है।" इन अधिकारों का पालन कराने की व्यवस्था राज्य कानून द्वारा करता है, इनका उल्लंघन दंडनीय अपराध माना जाता है।

कानूनी अधिकार दो वर्गों में विभाजित किये जा सकते है--

(अ) नागरिक अधिकार 

(ब) राजनीतिक अधिकार 

इन दोनों अधिकारों का विवरण इस प्रकार हैं--

(अ) नागरिक अधिकार 

नागरिक अधिकार व्यक्ति के वे अधिकार है जो उसे समाज से प्राप्त होते है ये अधिकार शारीरिक व मानसिक दबावों के विरूद्ध व्यक्ति को संरक्षण प्रदान करते हैं। फिर चाहे यह दबाव राज्य का हो, समाज का हो या व्यक्ति विशेष का। इस अधिकार में स्वतंत्र रूप से कार्य करने की स्वाधीनता व हस्तक्षेप से मुक्ति के भाव सम्मिलित होते हैं। नागरिक अधिकार राज्य में रहने वाले सभी व्यक्तियों को चाहे वे राज्य के नागरिक न हो, प्रदान किये जाते है। इनका उद्देश्य व्यक्ति के उच्च सामाजिक जीवन को सम्भव बनाना है निम्नलिखित प्रमुख नागरिक अधिकार है-- 

1. जीवन का अधिकार 

प्रत्येक मनुष्य को जीवन का अधिकार है यह अधिकार मौलिक और आधारभूत है क्योंकि इसके बिना अन्य अधिकार असंभव है। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति बिना किसी बाधा के अपने जीवन को उपभोग कर सके। राज्य का कर्तव्य है कि वह व्यक्ति के जीवन की रक्षा करें। जीवन का अधिकार कितना बहुमूल्य है यह इसके सिम होता है कि कोई व्यक्ति स्वयं अपना जीवन भी समाप्त नहीं कर यानि की वह आत्महत्या नहीं कर सकता। मानव जीवन समाज की बहुमूल्य निधि है। अतः उसे किसी प्रकार की क्षति पहुंचाना एक दंडनीय अपराध है। 

2. समानता का अधिकार 

समानता का अर्थ समानीकरण नहीं है। इसका अभिप्राय यह है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्ति के रूप में व्यक्ति का बराबर सम्मान किया जाए तथा उसे उन्नति करने के समान अवसर दिए जाए। अमीर और गरीब सब्बल या निर्मल सभी को उन्नति करने के समान अधिकार दिए जाएं और कानून के सामने सभी बराबर हो। 

3. राजनैतिक समानता का अधिकार 

इसका अर्थ यह है कि शासन संबंधित कार्यों में प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के योग योग्यता अनुसार सक्रिय रूप से भाग लेने का अवसर प्राप्त हो। वयस्क मताधिकार निर्वाचित होने का अधिकार तथा सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार सबको समान रूप से प्राप्त होना चाहिए। इसमें धर्म जाति रंग लिंक वर्ण के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।

4. आर्थिक समानता का अधिकार 

इससे यह भी प्राय है कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति के पास कम से कम इतने साधन अवश्य हो जिससे वह भोजन निवास और वस्त्र की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता अनुसार कार्य मिलना चाहिए तथा जीविका चलाने के अवसर सबको समान रूप से प्राप्त होने चाहिए। 

5. सामाजिक समानता का अधिकार 

सामाजिक क्षेत्र में समानता का अर्थ होता है कि समाज में किसी एक वर्ग को कोई विशेषाधिकार नहीं प्राप्त होना चाहिए। धर्म जाति तथा धन आदि के आधार पर समाज में व्यक्ति का स्थान निर्धारित न किया जाए बल्कि समाज में उसका सम्मान मनुष्य के रूप में हो।  

6. स्वतंत्रता का अधिकार 

लास्की के अनुसार इसका तात्पर्य उस शक्ति से होता है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार बिना किसी बाधा बंधन के अपने जीवन के विकास का ढंग चुन सकें। स्वतंत्रता की सकारात्मक परिभाषा के अनुसार इससे व्यक्ति के विकास का अवसर माना जाता है नागरिकों को अपनी भौतिक और नैतिक उन्नति के करने का पूर्ण अवसर मिलना चाहिए। यह अवसर तभी मिल सकता है, जब समाज कुछ नियम बनाकर एक के जीवन में दूसरे व्यक्ति द्वारा अनुचित हस्तक्षेप न होने दें।

7.व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार 

प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार है किसी को किसी अन्य व्यक्ति पर आघात करने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए एक अन्य व्यक्ति का उपयोग करने तथा किसी के रहने एवं आने-जाने पर रोक लगाने का अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता। किसी व्यक्ति को न तो दास बनाया जा सकता है और ना ही अपराध प्रमाणित किए बिना उसे बंदी ही बनाया जा सकता हैं। 

8. भाषण एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार 

मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए उसे अपने विचारों की अभिव्यक्ति करने का अधिकार मिलना चाहिए। उसे यह सुविधा मिलनी चाहिए कि वह बोलकर या लिखकर अपने विचार व्यक्त कर सकें। विचार स्वतंत्रता के अधिकार को जे. एस. मिल तथा लॉक आदि विद्वानों ने व्यक्ति को आत्मा उन्नति के लिए अपरिहार्य मनाए किंतु यह एक असीमित अधिकार नहीं है सरकार इस अधिकार के दुरुपयोग को रोकने के लिए इस पर प्रतिबंध लगा सकती है। 

9. आने जाने की स्वतंत्रता का अधिकार 

व्यक्ति को अपने देश के अंदर इच्छा अनुसार आवागमन की सुविधा दी जानी चाहिए। यह स्वतंत्रता उसके मानसिक सामाजिक तथा आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है।

10. संगठन बनाने का अधिकार 

समुदाय तथा संगठन जीवन के विकास तथा उन्नति के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इसलिए यह सामान्यतया स्वीकार किया जाता है की नागरिकों को स्वतंत्रता पूर्वक इस प्रकार के समुदायों के निर्माण का अधिकार हो। संगठन के अधिकार के अंतर्गत सबसे महत्वपूर्ण अधिकार राजनीतिक संगठनों का होता है क्योंकि प्रजातंत्र के कुशल संचालन के लिए राजनीतिक दलों का निर्माण आवश्यक है। संगठन बनाने के अधिकार के साथ साथ सार्वजनिक सभा का अधिकार भी महत्वपूर्ण है ऐसी सभाओं द्वारा विभिन्न राजनीतिक दल अपनी नीतियों और विचारधाराओं को जनता के सामने रखते हैं। 

11. शिक्षा तथा संस्कृति की स्वतंत्रता का अधिकार 

प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम स्तर तक शिक्षा प्राप्त करने की पूरी सुविधा मिलनी चाहिए। इसमें व्यक्ति का ही नहीं बल्कि सारे समाज का लाभ निहित है। अल्पसंख्यक वर्गों के बालकों की प्रारंभिक शिक्षा उसकी मातृभाषा के माध्यम से उपलब्ध होनी चाहिए। समाज के सभी वर्गों को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपनी इच्छा अनुसार विद्यालय स्थापित कर सकें। अंत:करण या धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार। इस अधिकार का अर्थ यह है कि प्रत्येक नागरिक को अपने विश्वास के अनुसार किसी धर्म को अपनाने प्रचार करने पूजा पाठ करने, धार्मिक अनुष्ठानों आदि में भाग लेने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। राज्य को धर्म के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। 

12. संपत्ति का अधिकार 

इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति वैध तरीकों से संपत्ति का उपार्जन करता है और अपनी इच्छा अनुसार उसका उपयोग कर सकता है। लॉक का विचार था कि परिश्रम से कमाए हुए धन पर प्रत्येक नागरिक का व्यक्तिगत अधिकार होना चाहिए। उसे स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह कमाए हुए धन का उपयोग अपनी इच्छा के अनुसार अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए कर सकें। यदि राज्य किसी प्रकार की व्यक्तिगत संपत्ति का राष्ट्रीयकरण करे तो उस संपत्ति के मालिकों को पूरा मुआवजा मिलना चाहिए आजकल संपत्ति का अधिकार एक विवादास्पद अधिकार है। 

13. परिवार का अधिकार  

परिवार के अधिकार के बिना मानव जाति का अस्तित्व संभव नहीं हो सकता। इस अधिकार का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से पारिवारिक जीवन व्यतीत करने का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति को विवाह करने परिवार बनाने तथा बच्चों का पालन पोषण करने का अधिकार है।  

14. रोजगार का अधिकार

रोजगार का अधिकार जीवन के अधिकार के साथ जुड़ा है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए काम करना अपनी इच्छानुसार रोजगार प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति को काम प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए और इस काम के बदले में व्यक्ति को उचित पारिश्रमिक प्राप्त होना चाहिए। 

(ब) राजनीतिक अधिकार 

राजनीतिक अधिकार से आशय है कि व्यक्ति द्वारा राज्य की शासन व्यवस्था में भाग लेने के अवसर राज्य की शक्ति का उपयोग किस भांति किया जाए। इस संबंध में निर्णय लेने के अवसर व्यक्ति के राजनीतिक अधिकार माने जाते हैं। राजनीतिक अधिकार केवल देश के निवासी को ही प्राप्त होते हैं ये अधिकार या तो देश के संविधान प्रदत्त होते है या शासन द्वारा समय-समय पर बनाये गये। कानूनों द्वारा ये अधिकार विदेशियों, पागलों व दिवालियों आदि को नहीं दिये जाते निम्नलिखित राजनीतिक अधिकार माने जाते है--

1. मत देने का अधिकार 

नागरिक के चुनावों में भाग लेने की सुविधा को मतदान के अधिकार के रूप में माना जात हैं। यह अधिकार लोकतंत्र की देन हैं इस अधिकार का प्रयोग कर नागरिक राष्ट्रीय राज्य तथा स्थानीय स्तर की सभाओं के प्रतिनिधियों के चुनाव में करता है। यह अधिकार धर्म, जाति, लिंग, सम्पत्ति इत्यादि के प्रतिबंधों से मुक्त होता है तथा प्रत्येक नागरिक को व्यस्क आयु प्राप्त करने पर मिल जाता है। 

2. निर्वाचित होने का अधिकर  

आधुनिक राज्य में जहां एक और नागरिक को मतदान के अधिकार के द्वारा अपने मनचाहे प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, तो दूसरी तरफ उसे यह भी अधिकार है कि वह स्वयं भी राजनीतिक या सार्वजनिक पद के लिए चयनित हो सके। लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्योंकि जन सहभागिता आवश्यक है इसलिए जब तक नागरिकों को निर्वाचित होने का अधिकार नहीं दिया जाता तब तक शासन संचालन में जन सहभागिता को व्यावहारिक क्रियान्विती सम्भव नहीं हो पायेगी। अतः मत देने का अधिकार व निर्वाचित होने का अधिकार एक दूसरे के पूरक भी है और जन सहभागिता को बढ़ाने के सक्रिय उपकारण भी है। 

3. सार्वजनिक पद प्राप्त करने का अधिकार 

इस अधिकार से तात्पर्य है प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के तथा निर्धारित योग्यताओं के आधार पर सरकारी पद प्राप्त करने का अवसर प्राप्त होना। किसी भी नागरिक को जाति, धर्म, लिंग इत्यादी के भेदभाव के आधार पर सरकारी नौकरियों से वंचित नहीं किया जा सकता। 

4. आलोचना का अधिकार 

सरकार को प्रतिवेदन देने तथा सरकार की आलोचना करने को भी राजनीतिक अधिकार में शामिल किया गया है। इस अधिकार के माध्यम से जनता अपनी मांगों तथा असुविधाओं को रचनात्मक तरीके से सरकार तक पहुंचा सकते है। आधुनिक लोकतंत्र में यह अधिकार नागरिक समाज को सक्रिय बनाता है।

अधिकारों के विभिन्न सिद्धांत (abhikaro ke siddhant)

यह सिद्धांत विभिन्न विद्वानों द्वारा इस संबंध में प्रतिपादित किये गये है कि उपरोक्त विभिन्न प्रकार के अधिकार अस्तित्व में कैसे आये? अधिकारों के सिद्धांत और उनकी संक्षिप्त व्याख्या निम्नलिखित हैं--

1. प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत 

यह सिद्धांत अति प्राचीन है। इसकी वकालत हाॅब्स, लाॅक एवं रूसो ने भी की हैं। इस सिद्धान्त को मानने वालों के अनुसार, अधिकार जन्म सिद्ध या प्राकृतिक या राज्य के जन्म से पहले से ही चले आ रहे हैं। ये राज्य द्वारा प्रदान किये गए नही हैं। आशीर्वादम् ने लिखा है कि उसी प्रकार मनुष्य की प्रकृति का अंग है जैसे कि हमारी चमड़ी का रंग। कुछ लोग इसकी भी आलोचना करते हुये कहते हैं कि प्राकृतिक शब्द अनिश्चित और भ्रामक हैं। राज्य के जन्म से पहले कोई अधिकार हो ही नही सकते। इनका दूसरा सटीक अर्थ स्वाभाविक अधिकार हैं। 

2. कानूनी अधिकारों का सिद्धांत 

कुछ विद्वान अधिकारों को कानून की देन मानते हैं। इनका मत है कि ये राज्य कि इच्छा या कानून का परिणाम हैं। इनका मत हैं कि वास्तव में वे ही अधिकार वास्तविक है जिनके पीछे कानूनी विवाद न हो। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक बेन्थम, आस्टिन, हाॅब्स, हाॅलैंड इत्यादि है। इस सिद्धान्त की भी निम्नलिखित तर्कों के आधार पर आलोचना की जाती हैं-- 

(अ) कानून अधिकारों का जन्म-दाता या निर्माता नहीं हैं। 

(ब) अधिकार कानून पर नहीं, अपितु प्रथाओं पर आधारित हैं। 

(स) कानून केवल अधिकारों को कानूनी बताता हैं। 

परन्तु इस सिद्धान्त का यह महत्व अवश्य हैं, कि व्यवहार के बिना कानूनी मान्यता पर आधार के अधिकार का कोई महत्व नहीं हैं। 

3. अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धांत 

ऐतिहासिक सिद्धांत के अनुसार इतिहास अनुभवों के परिणाम हैं, क्योंकि रीति-रिवाज भी ऐतिहासिक होते हैं। इस सिद्धान्त की आलोचना में भी निम्न तर्क दिये जाते हैं-- 

(अ) सभी अधिकार ऐतिहासिक रीति-रिवाजों पर आधारित नहीं होते। 

(ब) इनमें सामाजिक सुधार की सम्भावना नहीं रहती, क्योंकि ये सही नहीं होते हैं। 

(स) अधिकारों के सामाजिक कल्याण का सिद्धांत-- इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार समाज की देन है और वे समाज कल्याण के लिये बाधित दशायें हैं। इसके समर्थक बैन्थम और मिल हैं। इसकी आलोचना इस आधार पर की गई हैं कि लोक-कल्याण की धारणा अनिश्चित है तथा कभी-कभी सामाजिक और व्यक्तिगत कल्याण में टकराव होता हैं। 

4. अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धांत 

इस सिद्धान्त द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि अधिकार वे परिस्थितियां है जो व्यक्ति के आत्मिक विकास के लिये आवश्यक हैं। इसका प्रतिपादन आदर्शवादी विचारकों ने किया हैं। तर्क की दृष्टि से यह सिद्धांत सर्वोत्तम हैं। परन्तू यह सिद्धान्त भी व्यावहारिक नहीं हैं, क्योंकि व्यक्तित्व के विकास संबंधी अधिकारों को राज्य सार्वजनिक मानता हैं। जबकि अधिकार व्यक्तिगत होते हैं। 

अधिकारों के साथ व्यक्ति के कर्तव्य भी होते हैं। बिना कर्तव्यों के अधिकारों का कोई मूल्य नहीं है। वास्तव में अधिकार व कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक व्यक्ति के अधिकार समाम में रहने वाले अन्य व्यक्तियों के कर्तव्य होते हैं। उदाहरणा के लिए एक व्यक्ति को जीवन का अधिकार हैं, परन्तु यह अधिकार व्यवहार में तभी संभव है जबकि समाज में रहने वाले अन्य व्यक्ति उसे जीवित बना रहने दें। अतः अन्य व्यक्तियों का कर्तव्य हैं, खूद जियों और दूसरों को जीने दो। जब हम अपने कर्त्तव्यों का पालन करने के लायक नहीं हैं, अधिकारों का कोई मूल्य नहीं हैं। इसलिए आधुनिक राजनीति विज्ञान में अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों की व्यवस्था और उनके पालन पर बी बल दिया जाता हैं। इसीलिए भारतीय संविधान में 42वें संशोधन द्वारा नागरिकों के कुछ मौलिक कर्त्तव्यों का वर्णन जोड़ा गया हैं। इन कर्तव्यों की व्यवस्था कर संविधान को व्यावहारिक बनाया गया हैं। अन्यथा मनुष्य की प्रवृत्ति होती है कि वह अधिकारों पर तो पर्याप्त बल देता हैं और अपने अधिकारों की सुरक्षा की बात बड़े जोर-शोर से करता हैं, परन्तु जब कर्तव्य-पालन की बात आती हैं तो उनकी उपेक्षा करता हैं। अतः कर्तव्यों की व्यवस्था और उनका पालन राष्ट्रीय चरित्र का मामला हैं। 

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