2/13/2022

संसदात्मक शासन अर्थ, विशेषताएं, गुण एवं दोष

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प्रश्न; संसदात्मक शासन प्रणाली का अर्थ बताइए। 

अथवाय" संसदीय शासन प्रणाली की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।

अथवा" संसदीय सरकार का अर्थ बताइए? संसदात्मक शासन के गुण-दोषों का वर्णन कीजिए।

अथवा" संसदात्मक शासन प्रणाली से आप क्या समझते है? संसदात्मक शासन व्यवस्था के लक्षण बताइए।

अथवा" संसदीय शासन प्रणाली की विशेषताएं तथा गुण-दोषों का विवेचन कीजिए।

अथवा" संसदीय शासन व्यवस्था की सफलता की शर्तें क्या हैं?

उत्तर--

लोकतंत्र मे दो प्रकार की शासन प्रणालियाँ सर्वाधिक प्रसिद्ध और प्रचलित है, एक संसदात्मक शासन प्रणाली और दूसरी अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली। इन दोनों प्रणालियों मे अंतर कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के पारस्परिक संबंधों के कारण है। जहाँ कार्यपालिका और संसदात्मक सरकार है तथा जहाँ कार्यपालिका और व्यवस्थापिका पृथक है और एक-दूसरे को परस्पर नियंत्रण करती है तथा कार्यपालिका प्रमुख वास्तविक शासक है वहां अध्यक्षात्मक सरकार है। यहाँ हम संसदात्मक शासन व्यवस्था का अर्थ, संघात्मक शासन प्रणाली की विशेषताएं या लक्षण और गुण दोष जानेंगे।

संसदात्मक शासन व्यवस्था का अर्थ (sansdatmak shasan pranali ka arth)

संसदात्मक शासन प्रणाली उस शासन प्रणाली को कहते है जिसमे कार्य पालिका का प्रधान (मुख्य कार्य पालिका) प्रधानमंत्री होता है। वही वास्तविक कार्य पालिका होती है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व मे संगठित कार्य पालिका संसद के प्रति उत्तरदायी होती है। 

वास्तव मे इस शासन व्यवस्था मे दो प्रकार की कार्य पालिकायें होती है-- (अ) नाममात्र की कार्यपालिका (प्रायः राष्ट्रपति) और वास्तविक कार्य पालिका (प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल), यह उत्तरदायित्व के सिद्धांत पर संगठित होती है। मंत्री-परिषद् तभी तक अपने पदों पर रहती है जब तक कि संसद का उसमें विश्वास हो। इसका उदाहरण इंग्लैंड और भारत की शासन प्रणालियाँ है। यह प्रणाली वास्तव मे संसद की सर्वोच्चता के सिद्धांत पर आधारित होती है। शासन के तीनों अंगों मे सबसे अधिक महत्व संसद को दिया जाता है। 

संसदीय शासन की विशेषताएं (sansdatmak shasan pranali ki visheshta)

संसदीय शासन की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--

1. प्रधानमंत्री का नेतृत्व 

मन्त्रिमण्डल, प्रधानमंत्री के नेतृत्व मे एक टीम की भांति काम करता है। प्रधानमंत्री मन्त्रिमण्डल का निर्माता, पालन कर्ता और संहारक होता है। प्रधानमंत्री का नेतृत्व संसदीय प्रजातंत्र की चुम्बकीय विशेषता है। प्रधानमंत्री वास्तविक कार्यपालिका है वह " शासन का प्रधान " है उसके चारों ओर संसदीय प्रजातंत्र प्रणाली का तानाबाना बुना रहता है। 

2. नाममात्र की कार्यपालिका 

नाममात्र की कार्यपालिका का मतलब है देश की सर्वोच्च कार्यपालिका जिसे राष्ट्रपति कहा जाता है अथवा ब्रिटेन मे जिसे सम्राट कहते है नाममात्र का हो अर्थात् जिसे प्रशासन की शक्तियाँ औपचारिक रूप से तो प्राप्त हो पर वास्तविक रूप मे प्राप्त न हो। कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग प्रधानमंत्री तथा मंत्रिमण्डल के सदस्य करते है। 

इस शासन व्यवस्था मे राज्य का प्रधान (राष्ट्रपति) नाममात्र की कार्यपालिका होता है, जबकि वास्तविक कार्यपालिका मंत्रिपरिषद् होती है। 

3. सामूहिक उत्तरदायित्व 

सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत संसदीय सरकार का सर्वाधिक विस्मयकारी और अनोखा सिद्धांत है। यह इस भावना पर निर्भर है कि " जिऐंगे एक साथ मरेंगे एक साथ।" मन्त्रिमण्डल अपने समस्त कार्यों के लिए संसद के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होता है। सामूहिक उत्तरदायित्व का अभिप्राय यह है कि मंत्रिमंडल तभी तक कार्य करेगा जब तक उसे व्यवस्थापिका मे बहुमत का समर्थन है। मंत्रिमंडल के निर्णय सामूहिक आधार पर लिए जाते है। 

4. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका मे घनिष्ठ सम्बन्ध 

कार्यपालिका अथवा मंत्रिमंडल के सदस्य संसद के ही चुने हुये सदस्य होते है। वे उच्च अथवा निम्न किसी भी सदन के सदस्य हो सकते है। मंत्रिमंडल के सदस्य अपने-अपने सदन की कार्यवाही मे भाग लेते है। वे सदन मे पूछे गये प्रश्नों के उत्तर भी देते है। सभी महत्वपूर्ण विधेयक तथा वार्षिक बजट भी संबंधित मंत्रियों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।

5. व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायित्व 

संसदीय प्रजातंत्र मे मंत्रिमंडल उत्तरदायित्व रहता है। मंत्रिमंडल अपने सभी कार्यों और निर्णयों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी रहता है। इसके साथ ही मंत्रिमंडल तभी तक कार्य करता है जब तक उसे प्रतिनिधि सदन का विश्वास और समर्थन रहता है संसदीय प्रणाली मे इसके लिए यह व्यवस्था है कि मंत्रिमंडल का सदस्य व्यवस्थापिका का अनिवार्यतः सदस्य होगा। व्यवस्थापिका प्रश्न पूछकर स्थगन प्रस्ताव लाकर, निन्दा प्रस्ताव लाकर तथा मंत्रिमण्डल के प्रति अविश्वास प्रस्ताव रखकर अपने प्रति मंत्रिमंडल के उत्तरदायित्व का बोध कराती है।

6. कार्यपालिका का अनिश्चित कार्यकाल 

इस शासन मे संविधान द्वारा मंत्रिमंडल का कार्यकाल निश्चित नही होता है। मंत्रिमंडल अपने पद पर तभी तक कार्य कर सकता है जब तक कि उसे व्यवस्थापिका (निचले सदन) का विश्वास प्राप्त है। जब व्यवस्थापिका (निचला सदन) मंत्रिमंडल के विरूद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर देती है, तब मंत्रिमंडल भंग हो जाता है।

संसदात्मक शासन प्रणाली के गुण या महत्व ( sanghatmak shasan pranali ke gun)

संसदीय शासन प्रणाली में निम्नलिखित गुण देखने को मिलते हैं--

1. इसमे योग्य, अनुभवी तथा लोकप्रिय व्यक्तियों का शासन होता है। 

2. मंत्री जनता के प्रतिनिधि होते है।

3. यह लोकमत के अनुसार चलती है अर्थात् यह प्रजातंत्रीय शासन है।

4. इस प्रणाली मे विरोधी दलों का महत्व बना रहता है।

5. इस प्रणाली मे जनता निरंतर प्रशिक्षत होती रहती है।

6. सरकार जनता के प्रति जवाबदार होती है।

7. कार्यपालिका और व्यवस्थापिका मे सहयोग।

8. संसदात्मक शासन मे लचीलापन होता है।

9. उत्तरदायित्व शासन अर्थात् कार्यपालिका उत्तरदायी होती है।

10. संसदात्मक शासन प्रणाली मे निरंकुश हो जाने का कोई भय नही रहता। 

11. संसदात्मक शासन प्रणाली मे हमेशा लोकप्रिय सरकार बनी रहती है।

संसदीय शासन प्रणाली के दोष (sansdatmak shasan pranali ke dosh)

संसदीय शासन व्यवस्था में निम्नलिखित दोष देखने को मिलते हैं--

1. मुख्यमंत्री असहाय एवं शासन पंगु।

2. दल-बदल के रोग को प्रोत्साहन।

3. संकटकाल का ठीक से सामना नही।

4. मंत्रिमंडल की निरंकुशता।

5. इस शासन प्रणाली मे शासन एकदम अस्थायी रहता है।

6. शासन अयोग्य मंत्री के हाथों हो सकता है।

7. शासन पर जनता का पूर्ण विश्वास नही।

8. जनकल्याण के कार्य लंबी अवधि तक नही। 

9. मंत्रियों की अनुभवहीनता तथा व्यस्तता के कारण नौकरशाही का प्रभाव निरंतर बढ़ता जाता है।

10. इस शासन प्रणाली मे मंत्रिमंडल अस्थायी होते है। ये केवल संसद मे बहुमत रहने तक पदासीन रहते है। इसमे मध्यावधि चुनाव होते रहते है।

11. शासन मे स्थायित्व न होने से नीतियों मे अनिश्चितता पाई जाती है।

संसदीय शासन प्रणाली की सफलता की शर्ते 

संसदीय शासन के गुण एवं दोषों का अध्ययन करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संसदीय शासन प्रणाली आज विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय शासन प्रणाली है और यदि इसकी कमियों को दूर करना है तो इसके लिए कुछ आवश्यक परिस्थितियों का होना अनिवार्य है, जो निम्नलिखित हैं-- 

1. प्रतियोगी दल व्यवस्था 

संसदीय प्रणाली की सफलता के लिए प्रतियोगी दल व्यवस्था का होना जरूरी है अर्थात् चुनावों में दलों का मुकाबला बराबरी का होना चाहिए। अक्सर यह कहा जाता है कि संसदीय शासन की सफलता के लिए द्विदलीय व्यवस्था आवश्यक है परन्तु वर्तमान में यह सत्य नहीं है क्योंकि भारत में संसदीय शासन सफल है जबकि यहाँ पर बहुदलीय व्यवस्था है। वास्तव में प्रतियोगी दल व्यवस्था दलों को उत्तरदायी बनाती है वह चाहे द्विदलीय व्यवस्था हो या बहुदलीय व्यवस्था। 

2. राज्य के अध्यक्ष की ध्वजमात्रता 

संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है और यह उत्तरदायित्व प्रधानमंत्री व मंत्रिमंडल का होता है इसलिए समस्त शक्तियाँ इन्हीं में निहित होती और राज्य का अध्यक्ष नाममात्र की शक्तियों का प्रयोग करता है। यदि राज्याध्यक्ष शक्तियों का वास्तविक प्रयोग करने लगेगा तो सरकार का उत्तरदायित्व निश्चित नहीं हो पायेगा जो संसदीय प्रणाली की भावना के विपरीत होगा। अतः संसदीय प्रणाली में राज्य के अध्यक्ष की ध्वज मात्रता की अवस्था में ही शासन सुचारू रूप से संचालित हो सकता है। 

3. राज्य के अध्यक्ष की तटस्थता 

संसदीय शासन प्रणाली में सत्तारूढ़ और विपक्षी दल दो प्रमुख समूह होते हैं और उनमें संविधान एवं नियमों के अधीन सत्ता प्राप्ति की रस्साकशी चलती रहती है। कोई कार्य नियमों के अधीन है इसका निर्णय राज्याध्यक्ष करता है अतः उसका तटस्थ होना आवश्यक है। ब्रिटेन में वंशानुगत सम्राट या साम्राज्ञी परम्परागत रुढ़िवादिता के उपरान्त भी राजनीतिक तटस्थता के कारण संसदीय शासन के प्रेरक रहे हैं। भारत में यद्यपि राज्याध्यक्ष (राष्ट्रपति) अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होता है परन्तु कुछ एक मामलों को छोड़ दें तो वो भी प्रायः तटस्थ रहकर संवैधानिक नियमों के अनुसार कार्य करता है। 

4. स्पीकर की निष्पक्षता 

संसदीय शासन प्रणाली में संसद शक्ति एवं समस्त गतिविधियों का केन्द्र होती है। समस्त कार्यवाही कुछ नियमों के अधीन संचालित होती है और इन नियमों को लागू करने व व्याख्या करने का कार्य लोकप्रिय सदन का अध्यक्ष (स्पीकर) करता है। समस्त कार्यवाही निष्पक्ष एवं उचित दिशा में हो इसके लिए स्पीकार की निष्पक्षता अनिवार्य होती है। ब्रिटेन में स्पीकार पद पर चयनित व्यक्ति दल की सदस्यता से त्यागपत्र दे देता है और भारत में यह परम्परा है कि स्पीकर सदन की आम सहमति से चुना जाये जिससे वह सभी पक्षों को स्वीकार्य हो और निष्पक्ष होकर कार्य कर सके। 

5. नियतकालिक चुनाव 

संसदीय शासन प्रणाली में नियतकालिक चुनाव का होना आवश्यक है क्योंकि चुनाव के माध्यम से ही जनता अपनी सहमति व असहमति प्रकट करती है, समस्याओं से सरकार को अवगत कराती है और सरकार में विश्वास या अविश्वास प्रकट करती है तथा सरकार को उत्तरदायी बनाती है। निश्चित समयान्तराल पर होने वाले निर्वाचन विपक्षी दलों को भी सत्ता प्राप्ति का अवसर देते हैं और इनके माध्यम से जनता में भी जागरुकता उत्पन्न होती है। अतः नियतकालिक चुनाव आवश्यक हैं। 

6. संसद की सर्वोच्चता 

संसदीय शासन प्रणाली में व्यवस्थापिका व कार्यपालिका के विलयन से एक नई संरचना होती है जिसे संसद कहते हैं। संसद कार्यपालिका व व्यवस्थापिका में संतुलन व सहयोग उत्पन्न करता है। कार्यपालिका व्यवस्थापिका पर निर्भर है वहीं दूसरी तरफ व्यवस्थापिका का जीवन कार्यपालिका की इच्छा पर निर्भर है। ऐसी स्थिति में संसद की सर्वोच्चता दोनों अंगों को एक दूसरे पर हावी होने से रोकता है जो संसदीय प्रणाली की सफलता के लिए अनिवार्य है।

7. जनमत के साधनों का विकास 

संसदीय शासन प्रणाली की सफलता के लिए जनमत निर्माण के साधनों का विकास होना आवश्यक है जिससे सरकार के उत्तरदायित्व पर प्रभावी नियंत्रण रक्खा जा सके। स्वस्थ लोकमत के निर्माण में बाधक कारकों को दूर करना जरूरी है।

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