2/07/2022

संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था में अंतर

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sansdatmak or adhyakshatmata shasan pranali me tulna;लोकतंत्र मे दो प्रकार की शासन प्रणालियाँ सर्वाधिक प्रसिद्ध और प्रचलित है, एक संसदात्मक शासन प्रणाली और दूसरी अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली। इन दोनों प्रणालियों मे अंतर कार्यपालिका और व्यवस्थापिका के पारस्परिक संबंधों के कारण है। जहाँ कार्यपालिका और संसदात्मक सरकार है तथा जहाँ कार्यपालिका और व्यवस्थापिका पृथक है और एक-दूसरे को परस्पर नियंत्रण करती है तथा कार्यपालिका प्रमुख वास्तविक शासक है वहां अध्यक्षात्मक सरकार है।

संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था में अंतर 

संसदात्मक और अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में निम्नलिखित अन्तर हैं-- 

1. कार्यपालिका के आधार पर अंतर 

संसदात्मक शासन में कार्यपालिका का रूप दोहरा होता है। एक नाममात्र की तथा दूसरी वास्तविक। पहले को राज्याध्यक्ष तथा दूसरे को शासनाध्यक्ष कहते है, इसलिए कहा जाता है कि ब्रिटेन में राजा राज करता है, शासन नहीं। भारत में राष्ट्रपति तथा ब्रिटेन का राजा-रानी नाममात्र के  और प्रधानमंत्री (मंत्रिपरिषद्) वास्तविक कार्यपालिका होते हैं। इसके विपरीत अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका एकल होती है। कार्यपालिका की शक्ति एक ही व्यक्ति (राष्ट्रपति) में निहित रहती है। अमेरिका अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली का सर्वोत्तम उदाहरण है। 

2. कार्यकाल के आधार पर अंतर

संसदात्मक शासन में वास्तविक कार्यपालिका (मंत्रिपरिषद्) का कार्यकाल निश्चित नहीं होता। व्यवस्थापिका किसी भी समय अविश्वास का प्रस्ताव पारित करके कार्यपालिका को पदच्युत कर सकती है। अतः एक निश्चित अवधि के पहले भी व्यवस्थापिका का विश्वास खो देने पर मंत्रिपरिषद् को अपने पद से हटना पड़ता है, किन्तु अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका का कार्यकाल संविधान द्वारा निश्चित होता है। समय से पूर्व उसे (राष्ट्रपति) हटाना कठिन है। 

3. कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के सम्बन्धों के आधार पर अंतर

संसदात्मक शासन में कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में निरंतर घनिष्ठ सम्बन्ध बना रहता है। निम्न सदन के बहुमत दल का नेता प्रधानमंत्री बनाया जाता है तथा वह व्यवस्थापिका में से ही अपनी मंत्रिपरिषद् का निर्माण करता है। मंत्रिपरिषद् व्यवस्थापिका के प्रति पूर्ण उत्तरदायी होती है तथा व्यवस्थापिका का मंत्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रहता है। जबकि अध्यक्षात्मक शासन शक्ति पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित होता है। इसमें कार्यपालिका का निर्माण स्वतंत्र रूप से किया जाता है कार्यपालिका (राष्ट्रपति और उसके सचिव) व व्यवस्थापिका (कांग्रेस) का पूर्ण पृथक्करण होता है और कार्यपालिका के सदस्य व्यवस्थापिका के सदस्य नहीं होते हैं। व्यवस्थापिका का भी कार्यपालिका पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं रहता।

4. उत्तरदायित्व के आधार पर अंतर 

संसदात्मक शासन में वास्तविक कार्यपालिका (मंत्रिपरिषद्) व्यवस्थापिका के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है। व्यवस्थापिका प्रश्न पूछकर, अविश्वास का प्रस्ताव, कामरोको प्रस्ताव आदि विभिन्न उपकरणों द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है। अपने प्रत्येक कार्य के लिए मंत्रियों का संसद के प्रति उत्तरदायित्व होता है इसलिए इसे उत्तरदायी शासन भी कहा जाता है। इसके विपरीत अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती और न ही उसे अपने कार्यों के निष्पादन के लिए व्यवस्थापिका के विश्वास की आवश्यकता होती है। 

5. शासन की शक्तियों के आधार पर अंतर 

संसदात्मक शासन का आधार व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका शक्तियों का संयोजन है। इसमें कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका एक-दूसरे के सहयोग से मिलजुल कर कार्य करती है। जबकि अध्यक्षात्मक शासन का आधार व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के मध्य शक्ति पृथक्करण हैं। इसमें शासन के दोनों अंग स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं। 

6. मंत्रियों की स्थिति के आधार पर अंतर 

संसदात्मक शासन में मंत्रियों की स्थिति उच्च स्तर की होती है। वे अपने विभागों के सर्वेसर्वा होते हैं, और कानून निर्माण के कार्य में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। किन्तु अध्यक्षात्मक शासन में मंत्री नहीं विभागीय सचिव होते हैं और वे राष्ट्रपति के अधीन रह कर कार्य करते हैं। 

7. परिवर्तन के आधार पर अंतर 

संसदात्मक शासन में समयानुसार सरकार में परिवर्तन किया जा सकता है संकटकाल में यह व्यवस्था अधिक उपयोगी सिद्ध होती है। संकटकाल में भी बिना निर्वाचन के प्रधानमंत्री को बदला जा सकता है जैसे द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटेन में चेम्बरलेन के स्थान पर चर्चिल को प्रधानमंत्री (बिना निर्वाचन) बनाया गया था। अध्यक्षात्मक शासन कठोर है। इसमें समयानुसार परिवर्तन नहीं किये जा सकते। राष्ट्रपति का कार्यकाल संविधान द्वारा निश्चित होता है। 

8. सरकार में दलीय स्थिति के आधार पर अंतर

संसदात्मक शासन में जिस राजनीतिक दल का व्यवस्थापिका में बहुमत होता है उसी दल की सरकार बनती है, परन्तु कभी-कभी किसी एक राजनीति दल को बहुमत ने मिलने की स्थिति में समान विचारधारा वाले अन्य राजनीतिक दलों को सम्मिलित कर मिले-जुले मंत्रिमण्डल का गठन किया जाता है। संसदात्मक शासन की इस विशेषता को राजनीतिक सजातीयता कहा जाता है। जबकि अध्यक्षात्मक शासन में राजनीतिक सजातीयता का अभाव रहता है। राष्ट्रपति किसी भी योग्य व्यक्ति को बिना दलीय आधार के सचिव के पद पर नियुक्त कर सकता है। 

इस प्रकार संसदात्मक एवं अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था पूर्णताः एक-दूसरे के विपरीत हैं। 

भारत के लिए उपयुक्त व्यवस्था संसदात्मक या अध्यक्षात्मक

राष्ट्रीय आन्दोलन के काल में भारत में संसदीय शासन की स्थापना ही हमारा लक्ष्य था और ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय जनता का नेतृत्व करने वाले वर्ग के द्वारा इसी शासन व्यवस्था का प्रशिक्षण प्राप्त किया गया था इसलिए जब भारतीय संविधान सभा के सम्मुख संसदात्मक या अध्यक्षात्मक, दोनों में से किसी एक व्यवस्था को अपनाने का निश्चय किया गया। संविधान निर्माताओं द्वारा गम्भीर बहस व चिंतन के पश्चात् भारत के लिए संसदीय शासन प्रणाली का समर्थन किया गया। चतुर्थ आम चुनाव के पूर्व तक संसदात्मक व्यवस्था को सामान्यतया सन्तोषजनक समझा जाता रहा, लेकिन चौथे आम चुनाव में भारतीय राजनीति को एक नया मोड़ प्रदान किया। चुनाव के बाद भारतीय संघ के अनेक राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता और कमजोर शासन का एक चिन्ताजनक दौर प्रारम्भ हो गया। व्यवहार में यह देखा गया कि मुख्यमंत्री की समस्त शक्ति अपने राजनीतिक दल के आन्तरिक विवादों या शासन में भागीदार दलों के पारस्परिक विवादों को सुलझाने की चेष्टा में ही व्यय हो जाती है और शासन की उत्तमता या श्रेष्ठता की ओर ध्यान देने का अवसर ही नहीं मिलता। ऐसी स्थिति में अनेक व्यक्तियों द्वारा इस बात का समर्थन किया गया कि राजनीतिक स्थिरता और प्रशासनिक कुशलता की दृष्टि से भारत में संसदात्मक व्यवस्था के स्थान पर अध्यक्षात्मक व्यवस्था को अपना लिया जाना चाहिए। 

लेकिन समस्त स्थिति पर पूर्णतया विचार करने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि अध्यक्षात्मक शासन यदि भारतीय राजनीति की कुछ समस्याओं को हल करेगा, तो दूसरी ओर कुछ नवीन समस्याएँ उत्पन्न कर देगा और भारत के लिए संसदात्मक व्यवस्था ही उपयुक्त है। 

प्रथम, भारत में प्रजातन्त्र नया नया ही स्थापित हुआ है और ऐसी स्थिति में यदि कार्यपालिका पर नियन्त्रण के प्रभावशाली साधन न हो तो इसके निरंकुश हो जाने की प्रबल आशंका रहती है। अतः लोकतंत्र को सजीव बनाये रखने की दृष्टि से संसदात्मक व्यवस्था ही उपयुक्त है। 

द्वितीयत, भारत जैसे नव स्थापित प्रजातंत्र में अनेक बार जनता सही निर्णय नहीं कर पाती और चुनाव के शीघ्र बाद ही नेतृत्व में परिवर्तन की आवश्यकता होती है। नेतृत्व में इस प्रकार का परिवर्तन संसदात्मक व्यवस्था में ही सम्भव है। 

तृतीयत, भारत जैसे विकासशील देश में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के बीच पारस्परिक सहयोग और समस्त शासन का एक इकाई के रूप में कार्य करना बहुत अधिक आवश्यक होता है। इस स्थिति को संसदात्मक व्यवस्था में ही प्राप्त किया जा सकता है। 

चतुर्थत, भारत में लोकतंत्र नया-नया ही स्थापित हुआ है और इसकी सफलता के लिए जन चेतना बहुत आवश्यक है जन चेतना की इस स्थिति को संसदात्मक व्यवस्था में ही अधिक अच्छे प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है। 

उपर्युक्त विचारों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र और व्यक्ति स्वातन्त्रय के हित में भारत के लिए संसदात्मक व्यवस्था ही उपयुक्त प्रतीत होती है।

संदर्भ; माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अमेर 

लेखगण

डॉ. मधुमुकुल चतुर्वेदी, विभागाध्यक्ष राजनीति विज्ञान शहीद कैप्टन रिपुदमनसिंह राजकीय महाविद्यालय, सवाईमाधोपुर 

डॉ. मनोज बहरवाल, सह आचार्य (राजनीति विज्ञान) सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय, अजमेर 

भवशेखर, सहायक आचार्य (राजनीति विज्ञान) राजकीय मीरा कन्या महाविद्याल, उदयपुर 

प्रवीण कौशिक, प्रधानाचार्य राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय खरवालिया जिला नागौर 

सुनील चतुर्वेदी, प्राचार्य मास्टर आदित्येन्द्र राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय भरतपुर 

गोपाललाल अग्रवाल, प्रधानाचार्य राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय रेल्वे स्टेशन, दौसा।

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