2/23/2022

दलीय प्रणाली के गुण एवं दोष

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दलीय प्रणाली के गुण (daleey pranali ke gun)

दलीय प्रणाली में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं--

1. सरकार बनाना 

प्रत्येक राजनीतिक दल सत्ता मे भागीदारी के लिए गठित होता है। अतः अपनी सरकार बनाना उसका प्रथम कार्य है। इसके लिए वह जनकार्यक्रम और अपनी नीतियों का निर्धारण करता है। निर्वाचन मे भाग लेता है तथा व्यवस्थापिका मे आने के बाद यदि बहुमत है तब सरकार बनाने का कार्य करता है। यदि बहुमत नही है तब प्रतिपक्ष की भूमिका निभाता है।

2. राजनीतिक प्रशिक्षण देना 

राजनीतिक दलों का कार्य जनता को राजनीतिक कार्यों और घटनाक्रम से अवगत करना तथा अपने विचारों की दृष्टि से प्रशिक्षित करना है। इसके लिए वे साहित्य का निर्माण करते है, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अपना तर्क और दृष्टिकोण को रखते है। सभा, सम्मेलन, आन्दोलन आदि के माध्यम से भी जनता को सजग करते है। 

3. जनता और सरकार के बीच सेतु 

सरकार जनता के लिए होती है, जनता भी अपेक्षा रखती है कि सरकार जनकल्याण के कार्य करेगी। जनता और सरकार के बीच सेतु का काम राजनीतिक दल करते है। राजनीतिक दल जनता की समस्याओं को और जनता की मांग को सरकार तक पहूँचाते है। इसी प्रकार राजनीतिक दल सरकार के कार्यों और उपलब्धियों को जनता तक पहुँचाते है। केवल इतना ही नही वे उनका विश्लेषण भी करते है। दूसरी ओर जनता की समस्याओं के निराकरण के लिए सरकार पर दबाव भी डालते है।

4. मानवीय स्वभाव के अनुकूल 

प्रकृति की भाँति ही विभिन्न व्यक्तियों के स्वभाव एवं विचारों में भी भिन्नता पाई जाती है। कुछ लोगों का स्वभाव उदारवादी होता है तो कुछ अनुदारवादी तो कुछ क्रांतिकारी और विद्रोही विचारों के विचारों एवं स्वभाव की यह विभिन्न राजनीतिक दलों के द्वारा ही प्रकट हो सकती है। यही कारण है कि राजनीतिक दलों को मानवीय प्रकृति के अनुकूल कहा जा सकता है। 

5. लोकतंत्र के लिए आवश्यक 

राजनीतिक दल लोकतंत्र के अनिवार्य अंग हैं, उनके अभाव में लोकतंत्र की सफलता की कल्पना भी नहीं की जा सकती। राजनीतिक दल ही लोकतंत्र का संचालन करते हैं, वे चुनावों में भाग लेते हैं, जिसके परिणामस्वरूप सरकार बनती है। इस प्रकार राजनीतिक दल लोकतंत्र के प्रहरी हैं।

6. क्रांति की संभावना को कम करना 

सत्ता के खिलाफ जनक्रांति तब होती है जब अपनी बात को शासन तक पहुँचाने के रास्तों को बंद कर दिया जाता है। राजनीतिक दल जन आक्रोश को प्रजातांत्रिक और संवैधानिक तरीकों से जो मूलतः शांतिमय होते है व्यक्त करते है और सरकार को बाध्य करते है कि वह जनता की भावना को महत्व देते हुए कार्य करें। ऐसा करने से जनता को एक संगठित मंच मिलता है जहाँ वह अपनी शिकायतों और परेशानियों को रख सकती है। 

7. राष्ट्रीय नीतियों का निर्माण 

राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल राष्ट्रीय नीतियों का निर्धारण करते है, राष्ट्र के आर्थिक, औधोगिक विकास की नीतियां जनकल्याण की नीतियां, शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रतिरक्षा, आवास आदि अहम मुद्दों पर अपनी नीतियों का निर्धारण करती है तथा उन्हें जनता तक पहुँचाती है। सरकार उनके आधार पर कार्य करती है। 

8. लोकमत का निर्माण 

राजनीतिक दल लोकमत का निर्माण करते है। किसी प्रश्न पर जनता का रूख क्या होना चाहिए इसकी पहल राजनीतिक दल करते है। लोक शिक्षण का राजनीतिक दलों के कार्यों मे महत्वपूर्ण स्थान है। जनता के बिखरे हुए विचार राजनीतिक दलों के कारण संगठित रूप ले लेते है तथा किसी भी समस्या के सभी पहलुओं की जानकारी जनता को मिल जाती है।

9. संसदीय प्रणाली के संचालन मे भूमिका 

राजनीतिक दलों की अहम भूमिका संसदीय शासन प्रणाली के संचालन की है। निर्वाचन दलीय आधार पर होते है। दलीय आधार पर ही प्रत्याशी निर्वाचित होकर व्यवस्थापिका मे जाते है। व्यवस्थापिका मे जिस दल को बहुमत मिलता है वह सरकार बनाता है तथा अल्पमत प्राप्त राजनीतिक दल प्रतिपक्ष मे बैठता है। यदि राजनीतिक दल न हो तो व्यवस्थापिका को सदस्य पूरी तरह असंगठित और अनियंत्रित होंगे। ऐसे सदस्यों के साथ स्थायी मंत्रिमंडल बनाया ही नही जा सकता। राजनीतिक दल अपने सदस्यों को अनुशासित और संगठित रखते है तथा सरकार के निर्माण मे अथवा प्रतिपक्ष की भूमिका मे रचनात्मक सहयोग देते है।

दलीय प्रणाली के दोष (daleey visheshta ke dosh)

दलीय पद्धति के जहाँ अनेक गुण हैं वहीं यह प्रणाली दोषों से भी मुक्त नहीं है। एलेक्जेंडर पोप का तो मत है कि," जिस समाज में दलों का अस्तित्व है, वहाँ सच्ची समान्य इच्छा की अभिव्यक्ति हो ही नहीं सकती। भूतपूर्व अमेरिकन राष्ट्रपति वाशिंगटन ने भी अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है कि राजनीतिक दल लोकप्रिय शासन के सबसे बड़े शत्रु हैं। रूसो का मत है कि," सामान्य इच्छा या सच्चा लोकमत ऐसे देश में व्यक्त नहीं हो सकता जहाँ राजनीतिक दल या वर्ग विद्यमान हैं। इसी संदर्भ में हम यहाँ राजनीतिक दल के निम्नलिखित दोष की चर्चा कर रहे हैं--

1. लोकतंत्र के विकास में बाधक 

लोकतंत्र व्यक्तिगत स्वतंत्रता का समर्थक है, किंतु राजनीतिक दल इस स्वतंत्रता का हनन कर लोकतंत्र में बाधक बन जाते हैं। राजनीतिक दल के सदस्यों को अपने व्यक्तिगत विचारों को त्यागकर सार्वजनिक क्षेत्र में दल के विचारों का समर्थन करना पड़ता है। 

इस प्रकार व्यक्ति दलीय यंत्र के चक्र का एक ऐसा भाग बन जाता है जो पहिये के साथ ही चलता रहता है। 

लीकॉक कहते हैं, " राजनीतिक दल उस व्यक्तिगत विचार तथा कार्य संबंधी स्वतंत्रता का अंत कर देते हैं जिसे लोकतंत्रात्मक शासन का आधारभूत सिद्धांत माना जाता है।" 

सामान्य लोगों की ही नहीं वरन् जनप्रतिनिधि के विचारों की भी स्वतंत्रता पर अंकुश लगा दिया जाता है और उसे संसद, विधानमंडल एवं सार्वजनिक रूप से दल के विचारों का ही समर्थन करना होता है, चाहे उन विचारों से व्यक्ति के विचार कितने ही भिन्न एवं विरोधी क्यों न हों। 

गिलबर्ट मतानुसार, " मैंने सदैव दल की पुकार पर ही मतदान किया और अपने संबंध में विचार करने के लिए कभी नहीं सोचा।"  

2. एक मात्र उद्देश्य सत्ता की प्राप्ति 

प्रजातंत्र मे राजनीतिक दलों की भूमिका को सम्मानीय स्थान प्राप्त है पर राजनीतिक दल उस स्थान को कामय नही रख पाते है। उनका कार्य राजनीतिक चेतना का विस्तार करना है पर उनके सामने येन-केन-प्रकारेण सत्ता प्राप्ति ही एक मात्र लक्ष्य हो जाता है और सभी कार्यक्रम उसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आयोजित किए जाते है। इसके लिए मतदाताओं को कैसे भी अपने पक्ष मे करना यही कार्य करते रहते है। 

3. शासन कार्य में सर्वोत्तम व्यक्ति की उपेक्षा 

दलीय प्रणाली के कारण देश के सर्वोत्तम व्यक्तियों की सेवा से देश वंचित रह जाता है राजनीतिक दल अपने प्रतिनिधि ऐसे व्यक्तियों को चुनते हैं जो उनका अंधसमर्थन करें और दल के नेता की हाँ में हाँ मिलाएं, किंतु सर्वोत्तम व्यक्ति अपने विचारों को त्यागकर इस प्रकार का आचरण नहीं कर सकते। 

अतः दल में योग्य व्यक्तियों की उपेक्षा होती है और अयोग्य व्यक्तियों को प्रशासन में उच्च स्थान मिल जाता है, फलस्वरूप समूचे प्रशासनिक स्तर में गिरावट आ जाती है।

4. राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा 

राजनीतिक दलों के कार्य राष्ट्रीय हितों के अनुकूल होना चाहिए पर दलीय प्रणाली मे कई बार राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा होती है। राजनीतिक प्रश्नों पर उनका नजरिया राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ाने वाला कम, जनता के बीच कटुता को बढ़ाने वाला अधिक होता है। नकारात्मक राजनीति नफरत की खाई को बढ़ाती है, जातीय मज़हबी और साम्प्रदायिक राजनीति राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा पैदा करती है, राजनीतिक दलों को सत्ता प्राप्ति के लिए इन मुद्दों को लेकर टकराहट की चिंता नही रहती यह राष्ट्रीय एकता के खिलाफ है।

5. लोकमत को भ्रमित करना 

किसी भी राष्ट्रीय मुद्दे पर जनता को समर्थन या विरोध करने के प्रश्न पर जैसी भी विभिन्न राजनीतिक दलों की नीति हो उसके अनुरूप दल कार्य करते हैं। यहाँ तक तो ठीक है पर राजनीतिक प्रणाली का अवगुण यह है कि लोकमत को अपने पक्ष मे करने के लिए उचित-अनुचित का विचार किए बिना राजनीतिक दल कार्य करते है, जनता को गलत सूचनाएं देते है और गुमराह करते है। इसके परिणामस्वरूप जनता भ्रमित हो जाती है, जनता को वास्तविक सच्चाई का पता ही नही चलता।

6. दल की तानाशाही 

दलीय (राजनीतिक) प्रणाली दलीय अधिनायकतंत्र स्थापित करती है। राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं को दल और उसकी नीतियों के विरोध मे अपने विचार जनता मे व्यक्त करने की स्वतंत्रता नही रहती। इसी प्रकार व्यवस्थापिका का सदस्य बनने के बाद उसे दल के अनुशासन मे रहना पड़ता है। सदन मे किस प्रस्ताव का समर्थन करना है और किस प्रस्ताव का विरोध करना है यह दल निश्चित करता है। दल की नीति के अनुसार ही सदन मे समर्थन या विरोध सदस्य करते है। इस रूप मे देखे तो सदस्य अपनी पार्टी की कठपुतलियाँ होते है, विचारों को व्यक्त करने की उनकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है। यदि सदस्य पार्टी द्वारा स्वीकार की गई लाइन से हटकर कुछ कहने की सोचता भी है तो उसे दल की अवज्ञा करने वाला माना जाता है और उसके विरोध मे अनुशासत्मक कार्यवाही की जाती है। 

7. समय एवं धन की बर्बादी 

दलों के कारण विधानमंडल के भीतर बहुत समय वाद-विवादों मे नष्ट किया जाता है। इससे देश का बहुमूल्य समय और धन बर्बाद होता है।

8. दलीय प्रणाली से देश योग्य व्यक्तियों की सेवा से वंचित रह जाता है

जो विरोधी दल मे है, क्योंकि सत्तारूढ़ दल उनके अच्छे से अच्छे परामर्श को भी ठुकरा देता है।

9. आपातकालीन समय मे अनुपयुक्त 

दलीय प्रणाली सामान्य समय मे तो जनता को बाँटती ही है। आपातकाल मे भी राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों पर जनता को एकमत नही होने देती। यद्यपि कुछ देशों मे यह स्थिति नही है उदाहरण के लिए संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और ब्रिटेन मे राष्ट्रीय संकट के समय सभी मतभेद भुलाकर सब एक हो जाते है तथापि यह समस्या भारत, श्रीलंका आदि देशों मे अधिक पाई जाती है। भारत मे तो चीन के आक्रमण के समय भी पूरा देश एक मत और एक स्वर से अभिप्राय के विरोध मे खड़ा नही हो सका। यही स्थिति विदेश नीति के संबंध मे भी आती हैं। 

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