8/06/2020

प्रकार्य की अवधारणा

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प्रकार्य की अवधारणा (prakay ki avdharna)

प्रकार्य की अवधारणा का मूल आधार यह है कि जैवकीय सावयव एक अखंड व्यवस्था नही है, वरन् इसका निर्माण अनेक कष्ठों के योग से होता है और हर कोष्ठ अपने-अपने निर्धारित कार्यों को करता हुआ सावयव को स्थिरता, निरंतरता एवं उसके संगठन को बनाए रखता है। इसी प्रकार समाज भी जैवकीय सावयव के समान अनेक इकाइयों के योग से बना है व समाज का संगठन या व्यवस्था भी इन इकाइयों के पूर्व निर्धारित कार्यों पर निर्भर है। इसके साथ यह स्पष्ट है कि इन विभिन्न अंगों या भागों का विकास धीरे-धीरे निरंतर होता रहता है और इस विकास के दौरान ही कार्यों का विशेषीकरण होता है। यही नियम समाज पर लागू होता है।
समाजशास्त्र मे प्रकार्य की अवधारणा को सर्वप्रथम हरबर्ट स्पेसर ने "सावयवी सादृश्य" के आधार पर समझया। इसके पश्चात इमाइल दुर्खीम, रेडक्लिफ ब्राऊन, मैलिनोवस्की, मर्टन, पारसंस इत्यादि ने स्पष्ट किया है। प्रकार्य की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए कतिपय वैज्ञानिकों द्वारा प्रकार्य की परिभाषा दी गई है---
एल. ए. कोजर के अनुसार "प्रकार्य किसी सामाजिक क्रिया का परिणाम है जो किसी संरचना तथा उसके निर्माणक अंगों के अनुकूलन और सामंजस्य मे सहायक होता है।"
मर्टन के अनुसार"प्रकार्य वे अवलोकित परिणाम है जो की सामाजिक व्यवस्था के अनुकूलन या सामंजस्य को बढ़ातें है।"
दुर्खीम के अनुसार " किसी सामाजिक तथ्य का प्रकार्य सदैव किसी सामाजिक उद्देश्य के साथ उसके सम्बन्ध में खोजना चाहिए।"

मैलिनोवस्की के अनुसार " प्रकार्य का अभिप्राय हमेशा किसी आवश्यकता को सन्तुष्ट करना है, इसमें भोजन करने की सरल क्रिया से लेकर संस्कारों को सम्पन्न करने तक की सभी जटिल क्रियाएं शामिल हैं।
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